तीस साल में मिला मुआवजा

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तीस साल में मिला मुआवजा

चित्तरूपा पालित और रूपेन गोस्वामी  
 ‘नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण’ (एनवीडीए) के तहत मध्यप्रदेश के धार जिले में बनी ‘मान सिंचाई परियोजना’ के विस्थापितों को 30 साल बाद न्याय मिला है. सुप्रीमकोर्ट द्वारा गठित ‘अपीलीय फोरम’ ने विस्थापितों के पक्ष में फैसला सुनाते हुए, 31 मार्च 2021 को विस्थापितों को ‘पुनर्वास नीति’ के अनुसार जमीन देने का आदेश दिया है. इस आदेश के जरिए ना सिर्फ मध्यप्रदेश सरकार, बल्कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी माना है कि विकास का एक अल्पकालीन, सीमित नजरिया नहीं होता है. इस नजरिए से एक तरफ, विकास के कारण अपने संसाधनों से वंचित लोगों की अवहेलना होती है और दूसरी तरफ, हाशिए पर बसे नागरिक संविधान द्वारा दी गई जीवन जीने की ग्यांरटी का लाभ नहीं उठा पाते. सुप्रीमकोर्ट ने बार-बार कहा है कि ‘पुनर्वास नीति’ का पालन करना विस्थापितों का मूल अधिकार और सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है. 
धार जिले में नर्मदा की सहायक नदी मान पर बन रही ‘मान सिंचाई परियोजना’ से 17 आदिवासी गांव प्रभावित हुए हैं. ये गांव मध्यप्रदेश के धार जिले की मनावर तहसील के ‘अनुसूचित इलाके’  में बसे हैं. इन विस्थापितों को अव्वल तो ‘पुर्नवास नीति’ के तहत उनकी जमीन के अधिकार के बारे में कोई सूचना नहीं दी गई. दूसरे, वर्ष 1990-91 में ‘पुनर्वास नीति’ के तहत ‘जमीन के बदले जमीन’ न देकर गैर-कानूनी रूप से 6000 रुपए प्रति हैक्टेयर की बहुत मामूली दर से मुआवजा देकर टाल दिया गया था. वर्ष 1997 में जब लोगों को बिना पुनर्वास के खदेडने का प्रयास किया गया तो ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के तहत विस्थापितों का संघर्ष प्रारम्भ हुआ. लोगों ने बांध पर कब्ज़ा और सत्याग्रह किया जिसमें कई बार जेल गये. अंत में सरकार को वर्ष 2001 में 11 करोड़ रुपयों का विशेष पैकेज देना पड़ा, पर यह पैकेज भी ‘पुनर्वास नीति’ के अनुरूप न होने से कई विस्थापितों ने ‘शिकायत निवारण प्राधिकरण’ (जीआरए) के समक्ष अपने अधिकारों की मांग की. 
‘जीआरए’ द्वारा बिना आधार बताए विस्थापितों की मांग खारिज करने पर ‘नबआं’ ने ‘उच्च न्यायालय’ में अपील की. वर्ष 2009 में ‘उच्च न्यायालय’ के फैसले के बाद मामला ‘सर्वोच्च न्यायालय’ में पहुंचा. वर्ष 2012 में ‘सर्वोच्च न्यायालय’ ने विस्थापितों के दावों पर निर्णय लेने के लिये ‘उच्च न्यायालय’ के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में ‘अपीलीय फोरम’ का गठन किया. इसी अपीलीय फोरम ने हाल में मध्‍यप्रदेश सरकार की ‘पुनर्वास नीति’ की कंडिका 3 व 5 के मुताबिक विस्थापितों को जमीन देने का आदेश दिया है. 
मध्यप्रदेश सरकार की 1987 तथा 1989 में पारित नर्मदा बांधों के विस्थापितों के लिए बनी ‘पुनर्वास नीति’ भारत भर में श्रेष्ठ मानी जाती थी. ‘सरदार सरोवर बांध’ पर गठित ‘नर्मदा पंचाट’ के निर्देशों पर आधारित और उससे भी बेहतर प्रावधानों वाली इस नीति के बावजूद विस्थापित किसान जमीन से बे-कब्जा होने के बाद सड़क पर आ जाते हैं. जमीन के आभाव में दूसरा कोई रोजगार-धंधा करने में वे अक्षम होते हैं और नतीजे में खेती-किसानी के बिना जल्द ही भुखमरी व मौत का सामना करने लगते हैं. 
मध्यप्रदेश सरकार की ‘पुनर्वास नीति’ में पहले जमीन देना अनिवार्य था, उसके एवज में नगद मुआवजा देकर निपटारे का कोई विकल्प नहीं था, लेकिन वर्ष 1991 मे इसमें संशोधन किया गया. पारित किया गया कि अगर किसी विस्थापित को जमीन की एवज में मुआवजा चाहिए तो वह एक लिखित आवेदन भू-अर्जन अधिकारी को देगा और उसके पश्चात उसे एक मुश्त पूरा मुआवजा दे दिया जायेगा. लेकिन अगर आवेदक आदिवासी है तो कलेक्टर को उचित जांच करके यह प्रमाणित करना होगा कि जमीन के एवज में मुआवजा देने से संबंधित आदिवासी परिवार का अहित नहीं होगा. 
‘मान बांध परियोजना’ के विस्थापितों को ना उनके जमीन के अधिकार के बारे में कुछ बताया गया, ना ही जमीन प्रस्तावित या आवंटित की गई. जब आदिवासी को जमीन के बारे में कुछ बताया ही नहीं गया तो उसका जमीन के अधिकार छोड़कर मुआवजे का आवेदन देने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता. इस तरह से आदिवासियों द्वारा बिना कलेक्टर को कोई आवेदन दिए या  कोई जांच या प्रमाणित किए समस्त मुआवजा सरकार द्वारा बांट दिया गया. 
आश्चर्य है कि ‘जीआरए’ ने यह देखा ही नहीं कि मुआवजा बांटने के पहले आदिवासियों का कोई आवेदन और कलेक्टर की कोई जांच व प्रमाणीकरण नहीं है. उन्होंने आदिवासियों की रक्षा के लिए बने प्रावधान को नजर-अंदाज कर दिया और वर्ष 2002 में आदिवासियों के खिलाफ आदेश दे दिया. वर्ष 2004 में मामला ‘उच्च न्यायालय’ गया, लेकिन वहां से भी विस्थापित आदिवासियों को कोई राहत नहीं मिली और सन् 2009 में विस्थापित सुप्रीमकोर्ट पहुंचे.   
सुप्रीमकोर्ट के आदेशानुसार ‘उच्च न्यायालय’ के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति शम्भू सिंह की अध्यक्षता में अपीलीय फोरम का गठन किया गया जिसमें सेवानिवृत्त जिला जज न्यायमूर्ति तारकेश्वर सिंह न्यायायिक व आईएएस सुश्री रजनी सिंह प्रशासनिक सदस्य थे. फोरम द्वारा विस्थापितों की अपील पर विस्तार से सुनवाई की गई. सभी पक्षों को सुनने के बाद फोरम ने अपने आदेश में कहा है कि राज्य सरकार ने ‘मान बांध परियोजना’ प्रभावितों के पुनर्वास के लिये बनी ‘पुनर्वास नीति’ का पालन नहीं किया है. सरकार द्वारा न तो विस्थापितों को जमीन के बदले न्यूनतम 2 हेक्टर जमीन देने के प्रावधान बताए गए हैं और न ही उन्हें जमीन आवंटित की गई है. 
‘पुनर्वास नीति’ के अनुसार जमीन का अधिकार तभी छोड़ा जा सकता है जब विस्थापित ने ऐसा कोई आवेदन किया हो और कलेक्टर द्वारा जांच की गई हो कि इससे विस्थापित का हित प्रभावित नहीं होगा. परंतु न तो ऐसा कोई आवेदन किया गया और न ही कलेक्टर द्वारा कोई जांच की गई, अतः विस्थापितों को जमीन प्राप्त करने का अधिकार बरकरार है. फोरम ने राज्य सरकार को आदेश दिया कि विस्थापित द्वारा आवेदन करने के 3 माह के अंदर ‘पुनर्वास नीति’ के अनुसार विस्थापितों को जमीन का आवंटन किया जाये. ‘अपीलीय फोरम’ के समक्ष विस्थापितों का पक्ष अधिवक्ता श्री भरत चितले और अधिवक्ता सुश्री अंजुम पारिख ने रखा. 
30 साल तक चली इस लडाई को विस्थापित पूरे धैर्य से झेलते रहे, लेकिन न्यूनतम 5 एकड़ सिंचित जमीन के अधिकार पर अडिग रहे. भूमि-हीनता और अत्यन्त गरीबी के बावजूद वे आधा-अधूरा पैसा या अनुदान पर सहमत नहीं हुये. यह जीत विस्थापितों के लंबे धैर्यपूर्ण संघर्ष की जीत है. (सप्रेस) 
 

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