डा शारिक़ अहमद ख़ान
कश्मीरी वाज़वान 'शर्बत-ए-बाबरी' के बिना अधूरा है.शर्बत-ए-बाबरी की मुख्य चीज़ है 'तुख़ मलंगा'.जिसे चिया सीड्स के नाम से भी जाना जाता है.लेकिन ये 'चिया' भोजपुरी के 'चियाँ 'वाला चिया नहीं होता,ये अलग होता है.भोजपुरी वाला चियाँ रेड़ के बीज को कहा जाता है,रेड़ मतलब अरंडी.बचपन में हम लोग चियाँ का बीज एक खेल के तहत लड़ाया करते.चियाँ की लड़ाई में हथेली पर चियाँ का बीज रखकर विपक्षी की हथेली के चियाँ से लड़ाया जाता,जिसका चियाँ फूट जाता वो हार जाता.चियाँ को मज़बूत करने के लिए हम चियाँ को दवा की शीशे की शीशी में कड़वा तेल मतलब सरसों का तेल डालकर रखा करते,ऐसा करने से तेल पिया चियाँ मज़बूत हो जाता और विपक्षी का चियाँ इसके सामने कमज़ोर पड़ जाता.
काला चियाँ कमज़ोर चियाँ होता,भूरी लाइनिंग वाला मज़बूत,हम तो ढूंढकर भूरी लाइनिंग वाला चियाँ ही कड़वे तेल में डालते,जिसे ग्रामीण 'कड़ुक तेल' भी कहते हैं.अब तो शायद ही कोई बच्चा चियाँ लड़ाने का खेल खेलता हो.बहरहाल,कल कश्मीरी वाज़वान में मिले तस्वीर के कश्मीरी शर्बत-ए-बाबरी वाला चिया एक प्रकार की तुलसी तुख़ मलंगा का बीज होता है.कहते हैं कि बाबर की फ़ौज के किसी फ़ौजी ने इसे कश्मीर में समरकंद से लाकर उगाया इसीलिए इसे बाबरी कहा गया.
शर्बत-ए-बाबरी बनाने से पहले तुख़ मलंगा मतलब चिया को दो घंटे तक भिगो दिया जाता है.जब चिया नरम हो जाता है तो दूध-किशमिश-शहद-इलायची समेत गुलाब के अर्क-मेवे के पेस्ट और सूखे नारियल-शकर-नींबू-अनार समेत जिन भी चीज़ों का ऊपर से मन करे और जो उपलब्ध हों उन्हें मिलाकर शर्बत-ए-बाबरी तैयार होता है.लेकिन मुख्य चीज़ इसमें होती है तुख़ मलंगा.कुछ लोग दस्तरख़्वान पर बैठते ही ये शर्बत पीते हैं तो कुछ भोजन से उठने से पहले.शर्बत-ए-बाबरी को हमेशा तांबे के पात्रों में परोसा जाता है,इससे शर्बत-ए-बाबरी की लज़्ज़त में मज़ीद इज़ाफ़ा हो जाता है.
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