धरती बचाने को आप भी आगे आएं

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धरती बचाने को आप भी आगे आएं

पंकज चतुर्वेदी  
इस समय पूरा देष बिस्तर, आक्सीजन,  दवा जैसे संकट से जूझ रहा है और इसकी कमी के लिए तंत्र को दोश दे रहा है.यदि बारिकी से देखें तो हम किसी बीमारी के फैल जाने के बाद उसके निदान के लिउ हैरान-पेरषान हैं , जबकि देष की सोच समस्या को आने या उसके विकराल होने से पहले रोकना होना चाहिए.यह एक कड़वा सच है कि एक सौ पैतीस करोड़ की आबादी , वह भी बेहद असमान सामाजिक-आर्थिक पृश्ठभूमि की, उसके सामने ऐसी विपदा में तंत्र के ढह कर बेहाल हो जाना लाजिमी है, लेकिन इससे बड़ा दुख यह है कि तंत्र हालात को गंभीर होने के कारकों पर नियंत्रण करने में असफल रहा है सारी दुनिया जिस कोरोना से कराह रही है, वह असल में जैव विविधता से छेड़छाड़, धरती के गरम होते मिजाज और वातावरण में कार्बन की मात्रा बढ़ने के मिलेजुले प्रभाव की महज झांकी है.पर्यावरण पर खतरा धरती के अस्तित्व के लिए चुनौती बन गया है, महज पानी के दूशित होने या वायु में जहर तक बात नहीं रह गई है, इन सबका समग्र कुप्रभाव जलवायु परिवर्तन के रूप में सामने आ गया है.मौसम चक्र का अस्त-व्यस्त होना, गरमी हो या सर्दी या फिर बरसात , पूरे मौसम के चार महीने के स्थान पर अचानक ही कुछ दिनों पर चरम पर और अचानक ही न्यूनतम हो जाना.़ 
जरा बारिकी से गौर करें , जिन षहरों - दिल्ली, मंुबई, प्रयागराज, लखनऊ, इंदौर , भोपाल, पुणे  अािद में कोरोना इस बार सबसे घातक है, वहां की वायु गुणवत्ता बीते कई महीनों से गंभीरता की हद से पार है.दिल्ली से सटे गाजियाबाद को बीते तीन सालों से देष के सबसे प्रदूशित षहर की सूची में पहले तीन स्थानों पर रहने की षर्मनाम ओहदा मिला है.गत पांच सालों के दौरान दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में सांस के रोगियों की संख्या 300 गुणा बढ़ गई है.एक अंतरराश्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे.सनद रहे कि आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है.‘दुनिया के तीस सबसे दूशित षहरों में भारत के 21 है.हमोर यहां सन 2019 में अेकेले वायू प्रदूशण से 17 लाख लोग मारे गए.खतरे का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण करीब 25 फीसदी फेंफड़े के कैंसर की वजह है.यह तो किसी से छिपा नहीं है कि कोरोना वायरस जब फैंफडों या स्वांसतंत्र पर अपना कब्जा जमाता है तो रोगी की मृत्यू की संभावना बढ़ जाती है.जान लें कि जिन षहरों के लोगों को फैंफडे वायू प्रदूशण से जितने कमजोर है, वहां कोविड का कहर उतना ही संहारक है। 
अब सारे देष से खबर आ रही है कि अमुक सरकारी अस्पताल में पिछले सल ख्रीदे गए वैंटलेटर खोले तक नहीं गए या उनकी गुणवत्ता घटिया है या फिर उन उपकरणों को संचालित करने वाला स्टाफ तक नहीं है.यह बानगी है कि हमारा चिकित्सा तंत्र स्वांस रोग से जूझने को कितना तैयार है.दिल्ली हो या रोहतक या पंजाब ठंड के दिनों में पराली को ले कर चिल्लाते मिलेंगे लेकिन षहरों की आवोहवा खराब होने के मूल कारण - बढ़ती आबादी, व्यापार-सत्ता और पूंजी का महानगरों में सिमटना, निजी वाहनों की संख में इजाफा, विकास के नाम पर लगातार ध्ूल उगलने वाली गतिविधियां, सड़कों पर जाम से निबटने के तरीकों पर कभी किसी ने काम नहीं किया.यह एक कड़वी चेतावनी है कि यदि षहर में रहने वालों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाई नहीं गई, उन्हें पर्याप्त पौश्टिक आहार नहीं मिला, यदि यहां सांस लेने को साफ  हवा नहीं मिली तो कोरोना से भी खतरनाक महामारियाँ समाज में स्थाई रूप से घर कर जाएंगी.यह किसी से छुपा नहीं है है कि वैष्विक भूख तालिका में हमारा स्थान दयनीय स्थिति पर है और पिछले साल की बेरोजगारी की झड़ी के बाद यह समस्या विकराल हो गई है.भूखा रहेगा इंडिया तो करोनो से कैसे लडेगा इंडिया ? 
आखिर एक नैनो महीन वायरस ने इंसान के डीमनए पर कब्जा करने काबिल ताकत हांसिल कैसे कर ली? पिछले एक दशक के दौरान देखा गया कि मानवीय जीवन पर संक्रामक रोगों की मार बहुत जल्दी- जल्दी पड रही है और ऐसी बीमारियों का 60 फीसदी हिस्सा जन्तुजन्य है और इस तरह की बीमारियों का 72 फ़ीसदी जानवरों से सीधा इंसान में आ रहा है .कोविड-19 हो याएच आई वी , सार्स, जीका ,हेन्द्रा, ईबोला, बर्ड फ्लू आदि सभी रोग भी जंतुओं से ही इंसानों को  लगे हैं .दुखद है कि अपनी भौतिक सुखों की चाह में इंसान ने पर्यावरण के साथ जमकर छेड़छाड़ की और इसी का परिणाम है की जंगल, उसके जीव्  और इंसानों के बीच दूरियां कम होती जा रही है .जंगलों की अंधाधुंध कटाई और उसमें बसने वाले जानवरों के नैसर्गिक पर्यावास के नष्ट होने से इंसानी दखल से दूर रहने वाले जानवर सीधे मानव के संपर्क में आ गए और इससे जानवरों के वायरसों के इंसान में संक्रमण और इंसान के शरीर के अनुरूप खुद को ढालने की क्षमता भी विकसित हुई.यह बात जानते-समझते हुए भी भारत में गत साल के संपूर्ण तालाबंदी के दौरान भी कोई ऐसी पचास से ज्यादा परियोजनाओं को पर्यावरणी नियमों को ढली दे कर मंजूरी दी गई जिनकी चपेट में पष्चिमी घाट से ले कर पूर्व का अमेजान कहलाने वाले सघन पररंपरिक वन क्षेत्र आ रहे हैं. नए जंगल के आंकड़े बेमानी है क्यों कि जैव विविधता की रक्षा के लिए प्राकृतिक रूप से लगे, पारपंपरिक और ऐसे सघन वन अनिवार्य है जहां इंसान का दखल लगभग ना हो. 
पहले कहा जाता था कि प्रदूशण का असर केवल षहरों में है, गांव में तो षुद्ध हवा-पानी है ना, लेकिन आज के हालात सबसे ज्यादा गांव वालों को ही प्रभावित कर रहे हैं.गांव अर्थात जीवकोपार्जन का मूल आधार खेती-किसानी वह भी प्रकृतिपर आधारित.हालात इतने विशम हैं कि खेती अब अनिष्चितता से गुजर रही है.उत्पाद की गुणवत्ता गिर रही है, वहीं मवेषियों के प्रजनन और दुग्ध क्षमता पर भी असर हो रहा है. उधर करोनो के भय से हुए पलायन के चलते गावों पर आबादी का बोझ बढ़ा तो साफ पानी के संकट ने गांवों के निरापद स्वरूप को छिन्न-भिन्न कर दिया.खासकर खान, रेत उत्खनन और उज्जवला सिलेंडर  की अनउपलब्धता से फिर से लकड़ी से चूल्हा फंूकने के कारण गांवों में कोविड के पनपने के पर्याप्त अवसर बन गए हैं। 
असल में कोविड का पहले से भी भयावह स्वरूप  इंसान की प्रकृति के विरूद्ध जिद का नतीजा है.बीते साल तालाबंदी में प्रकृति खिलखिला उठी थी, हवा-पानी साफ था, पक्षी-जानवर भी स्वच्छंद थे लेकिन इंसान जल्द से जल्द प्रकृति की इच्छा के विपरीत फिर से कोरोना-पूर्व के जीवन में लाटनके को आतुर था  सरकार व समाज दोनों को समझना होगा कि उत्तर-कोरोना काल अलग है, इसमें विकास, जीडीपी की परिभाशाएं बदलना होगा.थोडा पर्यावरण को अपने मूल स्वरूप में आने दें, जबरदस्ती करेंगे तो प्रकृति भयंकर प्रकोप दिखाएगी. 

 

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