अंबरीश कुमार
बरसात तो करीब हफ्ते भर से ही हो रही है .पर तीन चार दिन से जो मूसलाधार बरसात हो रही है वह अब डराने लगी है .घर में तो वैसे भी कैद होकर रह गए हैं पर थोड़ी राहत यह जरुर है कि बगीचे में जो थोड़ी बहुत कसरत इधर उधर पेड़ पौधों तक जाने में हो जाती थी वह भी बंद हो गई है .ऊपर का कमरा जो अमूमन अतिथि के लिए होता है वह छोटे बेटे अंबर के स्टडी रूम में बदल गया है .बीटेक के क्लास और मीटिंग के चलते खाना नाश्ता भी ऊपर ही होता है .अब नीचे एक कमरा और एक छोटा सा बरामदा यही बचता है जिसमें कमरा भी मेरे कब्जे में .मीटिंग हो या कार्यक्रम अपना एक कोना हमेशा घिरा रहता है .सामने की खिड़की के बाहर प्लम का पेड़ है जिसपर बन्दर आते हैं और बीच बीच में लंगूर भी .फिर भी कुछ प्लम बचे है .दाहिने वाली खिड़की के सामने को किंग डेविड प्रजाति का सेब का पेड़ था वह जाड़ों की बर्फ से गिर गया है जिसके चलते चेरी और चिनार के पड़े होते पेड़ दिखने लगे हैं .उसके बाद देवदार के अपने लगाये दरख्त भी नजर आते हैं .तीन तरफ खिड़की है और तीनो तरफ से हरियाली ही इस वीराने में मन लगाये रखती है .बचपन में मुंबई में बरसात में भीगना अच्छा लगता था .रेनकोट ,गम बूट और छाते के बावजूद चेम्बूर में जब स्कूल से घर लौटता तो इतना भीग कर आता की मम्मी देख कर ही परेशान हो जाती .न छाता खोलता न ही रेन कोट पहनता .वह बरसात तो भीगने वाली ही होती थी .मुंबई की बरसात के बाद लखनऊ की बरसात देखी .कालेज से यूनिवर्सिटी तक .भीगते हुए कई फ़िल्में भी देखने गए मेफेयर में .तब तक वह दौर आ गया था कि छाता खोलने लगे थे .कभी अकेले तो कभी दुकेले .
वह बरसात भी क्या बरसात होती थी .दस दिन पंद्रह दिन तक सूरज भी नहीं निकलता.पता नहीं कितनो ने वह बरसात देखी है .गाँव जाते तो सारे रास्ते लगता गाँव अलग अलग टापुओं पर बसे हैं .शाम होते ही मेढकों की आवाज .आम का मौसम होता और रात के खाने में आम रोटी से ही काम चल जाता .
एक वह दौर भी था .आज लगातार बरसात से वह दौर याद आया .पर अब भीगने की भी हिम्मत नहीं पड़ती वर्ना मन तो था कि देवदार के दरख्त तक जाते और कुछ देर खड़े होकर भीगते .बहरहाल अब खिड़की से ही बरसात को देख रहे हैं ,बादलों को आते भी देख रहे हैं खिड़की बंद है क्योंकि बादल भीतर आ सकते हैं .
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