चराग़ ए नूर जलाओ....

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चराग़ ए नूर जलाओ....

पूर्णेंदु शुक्ल
अगर आप उत्‍तर भारतीय हैं तो आपके लिए इस बात पर यकीन करना काफी मुश्किल होगा कि काशीनाथ मिश्रा बांकुड़ा सीट पर चार बार विधायक रह चुके हैं। ना अलीशान घर, ना बैठने के लिए गद्देदार सोफा, बदन पर बेहद साधारण कपड़े, मेरे पहुंचने के काफी देर बाद बिना दूध की चाय का एक कप, बातचीत में नेताओं जैसा अन्‍दाज़ नहीं। अनुशासित इतने कि पार्टी की अन्‍दरूनी चीज़ों पर बोलने से साफ मना कर दिया। मैं सोच में पड़ गया कि लगभग गरीब और दयनीय सा दिखने वाला आदमी चुनाव कैसे जीत सकता है? पिछले कई सालों में तमाम राज्‍यों की धूल छानकर पैदा हुए अनुभव की कसौटी पर ये आदमी विधायक जैसा महसूस नहीं हो रहा था। पर उनके घर से निकलने के बाद जब तमाम दूसरे लोगों से बात की तो लगा कि अपने पुराने अनुभवों की छन्‍नी को दिल्‍ली में ही टांगकर आना था जिससे छानकर मैं संभावित प्रत्‍याशियों को जिताऊ या हराऊ उम्‍मीदवार की संज्ञा दिया करता था।
काशीनाथ मिश्रा को अपनी ईमानदारी के बदले सिर्फ आदर और प्रेम ही नहीं मिलता (जो कि उत्‍तर भारत में भी मिल जाता है) बल्कि चुनाव में वोट भी मिलता है। बांकुड़ा का चुनावी इतिहास इस बात का गवाह है। बांकुड़ा की 13 सीटों में से (परिसीमन के बाद घटकर 12 हो गई है) 11 पर वाममोर्चा 77 से लगातार काबिज़ है और एक पर 82 से नहीं हारी है। जो एक बांकुड़ा नाम की सीट बचती है इस पर काशीनाथ मिश्रा ने वाममोर्चा के उम्‍मीदवारों को चार बार पटखनी दी है। खैर काशीनाथ मिश्रा जैसे अनेकों उदाहरण पश्चिम बंगाल में मिल जाएंगे। ये अनुभव मेरे लिए यादगार था इसलिए आप से साझा किया। अब बात बांकुड़ा जिले की।
आज से 34 साल पहले जब वाममोर्चा सरकार बनी तो बांकुड़ा की जनता ने सपनों को हकीक़त के सांचे में ढालने की उम्‍मीद बांधी होगी। नवदम्‍पत्तियों ने सोचा होगा कि उनका जीवन जैसा भी बीता उनके होने वाले बच्‍चों को एक बेहतर जीवन मयस्‍सर होगा। जब भूमिसुधार कार्यक्रम शुरू हुआ तो लगा कि सपने सच भी हो सकते हैं। फिर एक दशक बीता। लगा कि बेहतर होने और दूसरों से बेहतर होने के बीच फ़र्क होता है। पर तब भी दूसरों से बेहतर मानने का एहसास उनके दिलों में मौजूद था। आज जबकि वाममोर्चा सरकार 34 साल पूरे कर चुकी है, लोग अपने आप को ठगा हुआ सा पाते हैं।
बांकुड़ा की 90 फीसदी से ज्‍यादा आबादी गांवों में रहती है1 दो तिहाई से ज्‍यादा लोग खेती पर निर्भर हैं। आबादी का पांचवा भाग जंगली सम्‍पदा पर निर्भर हें। 22 ब्‍लॉक में से 16 ब्‍लॉक में सिंचाई की व्‍यवस्‍था नहीं है। साल में बमुश्किल एक फसल हो पाती है। इस कारण बांकुड़ा के लोग वर्धमान, पश्चिमी मिदनापुर जाकर खेत मजदूर का काम करते हैं। आज भी लगभग तीन चौथाई आबादी ढिबरी युग में ही जी रही है। इतनी ही आबादी के पास रहने लायक घर नहीं है। लक्ष्‍मी और सरस्‍वती दोनों ही बांकुड़ा के भक्‍तों पर प्रसन्‍न होने को तैयार नहीं है।
जिले की रानीबंध और रायपुर नाम की दो सीटें जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। जंगली क्षेत्र है, गरीबी है तो माओवाद भी बोनस में मौजूद है। विष्‍णुपुर की बालूचरी साडि़यां काफी प्रसिद्ध हैं पर बुनकरों की हालत ठीक नहीं हैा सरकारी मदद की आस में हैं।
बड़ी संभावना है कि इस बार बंगाल का निज़ाम बदल जाए। पर क्‍या बांकुड़ा की किस्‍मत भी बदल पाएगी? बांकुड़ा के लोगों को नींद में सपने अब भी आते हैं। जागते हुए सपने देखने से उन्‍हें अब डर लगता है।
(लेखक चुनाव सर्वेक्षण एवं विश्लेषण एजेंसी टीम सी-वोटर में चुनाव विश्लेषक हैं।)

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Comments

hi

Replied by Administrator at 2019-03-11 20:04:12

hii

Replied by Administrator at 2019-03-11 20:08:16

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