संजय श्रीवास्तव
27 मई 1964 के दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के निधन की खबर दोपहर तक पूरे देश में फैलने लगी. उस दिन देशभर में शादी का बहुत तगड़ा साया था. दोपहर में जब निधन की खबर आई, पूरा देश सदमे में डूब गया. शादी वाले घरों में स्तब्धता छा गई. सबको लग रहा था कि ऐसे माहौल में क्या शादी हो पाएगी. तैयारियां पूरी हो चुकी थीं. कई जगहों पर बारात आकर जनवासे में आकर ठहर चुकी थी. पहले जिस धर्मशाला या बड़े मकानों में बारात को ठहराया जाता था, उसको जनवासा कहते थे. शादी वाले घरों की समस्या वाकई अजीब हो गई. उन्होंने तब जिला प्रशासन से संपर्क साधा. अफसरों का रुख था कि शादी तो बेशक कराइए लेकिन सादगी से.
उसी दिन मेरे मम्मी-पापा की भी शादी थी. तैयारियां पूरी हो चुकी थीं. शहर था जौनपुर. नेहरू के निधन की खबर के बाद बाजार देखते ही देखते बंद हो गए. सड़के सूनीं हो गईं. मातमी सन्नाटा फैल गा. तमाम लोगों ने घरों में चूल्हे नहीं जलाए. रात में घरों की लाइट्स नहीं जलीं. हर कोई दुखी थी.
शादी के घरों में तब महीनों तैयारी होती थी. आजकल की तरह रेडिमेड इंतजाम नहीं होता था. हलवाई कई दिनों पहले बैठ जाता था. डेकोरेशन का इंतजाम हो जाता था. बैंड-बाजा बुक हो जाता था. तब शादियों में लाउडस्पीकर से इन मौकों पर जोर-शोर से कानफोडूं गाना बजाया जाता था. ताकि खुशी का भरपूर सार्वजनिक इजहार हो.
शादियां भी कई दिनों की होती थीं. कम से कम 03 दिन तो बारात टिकती ही थी. एक दिन बारात आती थी, उसका स्वागत होता था. कुछ रस्में होती थीं. फिर सुबह और शाम उसका नाश्ता-चाय और दोपहर-रात खाना. अगले दिन फिर कुछ और रस्में- द्वारचार, मंडप, सात फेरे. फिर तीसरे दिन सुबह लंच के बाद ही विदाई होती थी. तब आजकल की तरह ना तो स्टेज सजता था. ना इस तरह कुर्सियों लगती थीं. आमतौर पर पंडाल में टाट पट्टे बिछाए जाते थे. पत्तल पर खाना होता था. कुल्हड़ में चाय दी जाती थी.
सवाल मेरे नाना के सामने भी यही था कि अब क्या किया जाए. जिला प्रशासन की अनुमति के बाद उन्हें राहत मिली. लेकिन लाउडस्पीकर बंद कर दिए गए. बारात आई लेकिन बगैर बैंड बाजे के. कोई डांस नहीं. कोई हंगामा नहीं. घर की सजावट भी खत्म कर दी गई. डेकोरेशन प्रतीकात्मक थी. ऐसे में शादी हुई. अगले दिन बारात विदा हो गई.
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