अवध तिरहुत मेल से नैनीताल एक्सप्रेस तक का सफ़र !

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अवध तिरहुत मेल से नैनीताल एक्सप्रेस तक का सफ़र !

अंबरीश कुमार  
कुमायूं की तलहटी तक जिस रेल से हम आते हैं उसकी यात्रा भी कम दिलचस्प नहीं है .और बहुत ज्यादा पुरानी भी है . 24 अप्रैल का दिन था और साल था 1884 जब काठगोदाम रेलवे स्टेशन पर पहली रेलगाड़ी पहुंची थी .इस ट्रेन का नाम अवध-तिरहुत मेल था.यह पहाड़ के लोगों के लिए यादगार दिन था .इसे देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटे थे और जोरदार स्वागत हुआ था .यह जानकारी इतिहास के पन्नो की है . यह जो फोटो देख रहे हैं काठगोदाम रेलवे स्टेशन की है .यहां तक ट्रेन से आते थे तो फिर तांगा से नैनीताल का सफ़र होता .पर सब कोई नैनीताल जाता भी नहीं था .वह खास लोगों की जगह थी .यह फोटो करीब सौ साल पहले की है .अपना भी आना जाना इस स्टेशन से करीब चार दशक पुराना तो हो ही चुका है .लखनऊ से छोटी लाइन की नैनीताल एक्सप्रेस या फिर दिल्ली से रानीखेत एक्सप्रेस .छोटी लाइन की नैनीताल एक्सप्रेस में पुराने फर्स्ट क्लास के डिब्बे को ही वातानुकूलित बना दिया गया था .रानीखेत एक्सप्रेस में पहले सेकंड क्लास के साथ फर्स्ट क्लास और बाद में वातानुकूलित टू टीयर ,थ्री टियर का डिब्बा लगने लगा .फिर यूपीए अध्यक्ष जब नियमित रूप से गर्मियों में कौसानी जाने लगीं तो वातानुकूलित फर्स्ट क्लास का डिब्बा भी जोड़ दिया .आफ सीजन में इसका टिकट आसानी से मिल जाता है इसलिए हमने भी कई बार इससे पुरानी दिल्ली से काठगोदाम तक का सफ़र किया .खैर लौटा जा अवध तिरहुत रेल पर . 
तब यह स्टेशन अवध तिरहुत रेलवे का हिस्सा था .आजादी से पहले रेल निजी हाथों में ही थी पर इसे कोई व्यवसायी नहीं बल्कि राजा महाराजा और नवाब ने अपने लिए चलाना शुरू किया था .तिरहुत रेलवे उनमें से एक थी जिसे दरभंगा स्टेट चला रहा था.1874 में दरभंगा के महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ने तिरहुत रेलवे की शुरूआत की थी.यह रेलगाड़ी भी बहुत अलग थी .इसके सैलून की भव्यता के भी कई किस्से हैं .हालांकि आम लोगों के लिए जो ट्रेन चलाई गई तीसरा दर्जा इसमें नहीं होता था .पर जब गांधी ने इस रेल से सफ़र करने की इच्छा जताई तो महाराजा दरभंगा ने तीसरे दर्जे में पंखा और शौचालय भी लगवा दिया .क्योंकि गांधी किसी भी हाल में तीसरे दर्जे के अलावा किसी और दर्जे में यात्रा करने को तैयार नहीं थे .यही तिरहुत मेल काठगोदाम तक चलाई गई थी .वह दौर अंग्रेजों का था .पहाड़ी सैरगाह की यात्रा आम आदमी के बस में भी नहीं थी .राजे रजवाड़े ,जमींदार और पुराने रईस ही यह शौक पाल सकते थे .इनमें से कई राज घरानों ने तो पहाड़ पर अपने भव्य बंगले भी बनवा रखे थे .अभी भी राजा बलरामपुर से लेकर सिंधिया परिवार के पुराने बंगले देखे जा सकते हैं .एक अंग्रेज की पुरानी पीली कोठी को सिंधिया ने खरीद कर उसे अपने शिकारगाह में बदल दिया जो रामगढ़ में  है . 
फिर फिल्म उद्योग ने इन पहाड़ी सैरगाहों पर कई फिल्मों की शूटिंग कर इन्हें और लोकप्रिय बनाया .शिमला ,मसूरी ,श्रीनगर ,पहलगाम ,दार्जिलिंग ,नैनीताल से लेकर ऊटी तक .फिल्म अभिनेता देवानंद ने अपनी बहुत सी फिल्मों की शूटिंग पहाड़ी सैरगाहों पर की थी .महल फिल्म की शुटिं तो दार्जिलिंग में हुई .इसी तरह कटी पतंग की शूटिंग नैनीताल में हुई और इसके कई गीत मशहूर भी हुए .नैनी झील से लेकर नैनीताल के मशहूर बोट क्लब में फिल्माया गया गीत 'जिस गली में तेरा घर न हो .... इस फिल्म की शूटिंग काठगोदाम से लेकर नैनीताल तक हुई जिसमें राजेश खन्ना जंगलात विभाग के अफसर बने थे .पर तिरहुत रेल का सफ़र बहुत ज्यादा नहीं चला .रेलवे का सरकारीकरण हुआ और यह सब इतिहास का हिस्सा हो गया .काठगोदाम से दिल्ली जाते हुए अक्सर नवाब रामपुर का वह सैलून स्टेशन पर दिखता है जो बदहाल हाल में है .एक दौर में इसके भीतर बहुत महत्वपूर्ण लोग ही जा पाते थे .  
पर तिरहुत रेलवे कंपनी का सैलून ज्यादा मशहूर था .इसमें देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णनन, मदन मोहन मालवीय से लेकर तमाम बड़े नेता शामिल थे. सिर्फ़ गांधी ही ऐसे नेता थे जिन्होंने सैलून का इस्तेमाल कभी नहीं किया. उन्होंने हमेशा तीसरे दर्जे में ही यात्रा की.तिरहुत रेलवे कंपनी के  दो सैलून थे.इसमें चार डिब्बे थे. पहला डिब्बा बैठकखाना और बेडरूम था, दूसरा डिब्बा स्टॉफ़ के लिए, तीसरा डिब्बा पैंट्री और चौथा डिब्बा अतिथियों के लिए होता था.फोटो साभार  तिरहुत रेलवे  

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