वे कानून जिसे लोहिया बार बार चुनौती देते रहे

गोवा की आजादी में लोहिया का योगदान पत्रकारों पर हमले के खिलाफ पटना में नागरिक प्रतिवाद सीएम के पीछे सीबीआई ठाकुर का कुआं'पर बवाल रूकने का नाम नहीं ले रहा भाजपा ने बिधूड़ी का कद और बढ़ाया आखिर मोदी है, तो मुमकिन है बिधूड़ी की सदस्य्ता रद्द करने की मांग रमेश बिधूडी तो मोहरा है आरएसएस ने महिला आरक्षण विधेयक का दबाव डाला और रविशंकर , हर्षवर्धन हंस रहे थे संजय गांधी अस्पताल के चार सौ कर्मचारी बेरोजगार महिला आरक्षण को तत्काल लागू करने से कौन रोक रहा है? स्मृति ईरानी और सोनिया गांधी आमने-सामने देवभूमि में समाजवादी शंखनाद भाजपाई तो उत्पात की तैयारी में हैं . दीपंकर भट्टाचार्य घोषी का उद्घोष , न रहे कोई मदहोश! भाजपा हटाओ-देश बचाओ अभियान की गई समीक्षा आचार्य विनोबा भावे को याद किया स्कीम वर्करों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न क्या सोच रहे हैं मोदी ?

वे कानून जिसे लोहिया बार बार चुनौती देते रहे

कनक तिवारी  
संविधान में बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर राज्य के  बनाए गए किसी कानून के जरिए प्रतिबंध लगाए जाने को प्रख्यात समाजवादी नेता राममोहर लोहिया ने बार बार चुनौती दी.एक मामला उत्तरप्रदेश सरकार के खिलाफ उन्होंने दायर किया जब उन्हें उत्तरप्रदेश स्पेशल पावर्स एक्ट, 1932 की धारा 3 के तहत फर्रुखाबाद में उत्तेजक भाषण देने के लिए गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया.सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की संविधान पीठ की ओर से प्रख्यात जज के सुब्बाराव ने लोहिया के पक्ष में फैसला सुनाया जिन्हें अपने उदार दृष्टिकोण के लिए सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में याद  किया जाता है.यह कहा कि जो कुछ डा लोहिया ने कहा वह पूरी तौर पर उनकी नागरिक आज़ादी के तहत रहा है. 
यह दिलचस्प है कि 1932 में अंगरेजों के बनाए कानून की मुखालफत कांग्रेस ने अपने आंदोलन के जरिए लगातार की लेकिन राजद्रोह किसी न किसी तरह कायम रहा.संविधान लागू होने के बाद भी उत्तरप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री और संविधान सभा के सदस्य रहे गोविन्दवल्लभ पंत ने खुद उसे राज्य के 35 जिलों में लागू कर दिया था. 
तुमने बहुत तकलीफ दी है राजद्रोह  
जेएनयू में कुछ छात्रों, कश्मीर के अध्यापक नूर मोहम्मद भट्ट, टाइम्स आॅफ इंडिया के अहमदाबाद स्थित संपादक भरत देसाई, विद्रोही नामक पत्र के संपादक सुधीर ढवले, डाॅक्टर विनायक सेन को माओवादियों तक संदेश पहुंचाने, उड़ीसा के पत्रकार लक्ष्मण चौधरी द्वारा माओवादी साहित्य रखने, एमडीएमके के नेता वाइको तथा एक और प्रकरण कश्मीरी युवक बिलाल अहमद कालू का 1997 में कोर्ट से सजाओं में निपटा.1995 में बलवंत सिंह वगैरह के प्रकरण में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके हत्यारों को मिली सजा को लेकर सिनेमा हाल के सामने ‘खालिस्तान जिंदाबाद‘ के नारे लगाने पर प्रकरण दर्ज हुआ था.वहां जमा भीड़ में भी कुछ लोगों ने नारे को दोहराया.सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि न तो अभियुक्तों ने कोई जुलूस निकाला और न ही उनके भड़काऊ नारों के कारण लोगों का सरकार विरोधी सक्रिय समर्थन मिला.वैसा ही विचारण रंगराजन और अरूप भुइयां के प्रकरणों में भी हुआ था. 
केदारनाथ सिंह के कारण राजद्रोह नहीं हटा 
सबसे चर्चित मुकदमे केदारनाथ सिंह के 1962 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण राजद्रोह भारतीय दंड संहिता की आंतों में छुपकर नागरिकों को बेचैन और आशंकित करता थानेदारों को हौसला देता रहता है.बिहार की फाॅरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदारनाथ ने कांग्रेस पर भ्रष्टाचार, कालाबाज़ार और अत्याचार सहित कई आरोप बेहद भड़काऊ भाषा में लगाए थे.केदारनाथ सिंह ने यहां तक कहा कि सीआईडी के कुत्ते बरौनी के आसपास निठल्ले घूम रहे हैं.कई कुत्ते-अधिकारी बैठक में शामिल हैं.लोगों ने अंगरेज़ों को भारत की धरती से निकाल बाहर किया है, लेकिन कांग्रेसी गुंडों को गद्दी सौंप दी.ये कांग्रेसी गुंडे लोगों की गलती से गद्दी पर बैठ गए हैं.हम अंगरेज़ों को निकाल बाहर कर सकते हैं, तो कांग्रेसी गुंडों को भी निकाल बाहर करेंगे.कई बार सुप्रीम कोर्ट ने कहा चाहे जिस प्रणाली की हो, प्रशासन चलाने के लिए सरकार तो होती है.उसमें उन लोगों को दंड देने की शक्ति भी होनी चाहिए जो अपने आचरण से राज्य की सुरक्षा और स्थायित्व को नष्ट करना चाहते हैं.ऐसी दुर्भावना इसी नीयत से फैलाना चाहते हैं जिससे सरकार का कामकाज और लोक व्यवस्था बरबाद हो जाए.सुप्रीम कोर्ट ने अपने कुछ पुराने मुकदमों पर निर्भर करते कहा राजद्रोह की परिभाषा में ‘राज्य के हित में‘ नामक शब्दांश की बहुत व्यापक परिधि है.उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती.सुप्रीम कोर्ट ने दरअसल ब्रिटिश अवधारणाओं पर भरोसा किया और ‘राज्य की सुरक्षा‘ शब्दांश को लचीला कर दिया. 
जानना दिलचस्प है कि केदारनाथ सिंह प्रकरण में सुुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने संविधान सभा द्वारा राजद्रोह की छोड़छुट्टी के तथ्य पर कुछ नहीं कहा.1951 में सुप्रीम कोर्ट ने रमेश थापर की पत्रिका ‘क्राॅसरोड्स‘ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्य पत्र ‘आॅर्गनाइज़र‘ में क्रमश: मद्रास और पंजाब की सरकारों द्वारा प्रतिबंध लगाने के खिलाफ बेहतरीन फैसले दिए थे.उनके कारण नेहरू मंत्रिपरिषद को संविधान में संशोधन करते अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगाने के आधारों को संशोधित करना पड़ा था.केदारनाथ सिंह में कहा कि राजद्रोह का अपराध जोड़े गए शब्द ‘राज्य की सुरक्षा‘ और ‘लोकव्यवस्था‘ की चिंता करता हुआ बनाया गया है.इसलिए उसे दंड संहिता से बेदखल नहीं किया जा सकता.केदारनाथ सिंह के प्रकरण में बहुत बारीक व्याख्या करने से मौजूदा परिस्थितियों में अंगरेजों के जमाने के इस आततायी कानून को जस का तस रखे जाने में संविधान को भी असुविधा महसूस होनी चाहिए. 
अंगरेज चले गए, औलाद छोड़ गए!  
राजद्रोह का सुप्रीम कोर्ट के केदारनाथ सिंह के फैसले के कारण गोदनामा वैध बना हुआ है.यह अंगरेज बच्चा भारत माता के कोखजाए पुत्रों को अपनी दुष्टता के साथ प्रताड़ित करता रहता है.राजद्रोह की परिभाषा को संविधान में वर्णित वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति की आजादी के संदर्भ में विन्यस्त करते केदारनाथ सिंह के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने दंड संहिता के अन्य प्रावधानों के संबंध में सार्थक अवलोकन कर लिया होता तो राजद्रोह के अपराध को कानून की किताब से हटा देने का एक अवसर विचार में आ सकता था.केदारनाथ सिंह के प्रकरण में किसी पत्रकार द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी का कथित उल्लंघन करने का आरोप नहीं था.एक राजनीतिक व्यक्ति ने भी यदि सरकार के खिलाफ और आपत्तिजनक भाषा में जनआह्वान किया था तो वह अपने परिणाम में तो टांयं टांय फिस्स निकला था.सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि कहा कि यदि कोई लोक दुव्यवस्था हो जाए या कोई लोक दुव्यवस्था होने की संभावना बना दे तो उससे राज्य की सुरक्षा को खतरा होने की संभावना बनती है. 
‘राज्य की सुरक्षा‘ का कांच महल 
‘राज्य की सुरक्षा‘ नामक शब्दांश बेहद व्यापक लेकिन अस्पष्ट है.सरकार या सरकार तंत्र में बैठे हुक्कामों के खिलाफ कोई विरोध का बिगुल बजाता है, तो उससे भर राज्य की सुरक्षा को खतरा हो सकता है.ऐसा भी तो सुप्रीम कोर्ट ने नहीं कहा.इसी नाजुक मोड़ पर गांधी सबके काम आते हैं.अंगरेजी हुकूूमत के दौरान गांधी कानूनों की वैधता को संविधान के अभाव में चुनौती नहीं दे पाते थे.फिर भी उन्होंने कानून का निरूपण किया.जालिम कानूनों का विरोध करने के लिए गांधी ने जनता को तीन अहिंसक हथियार दिए.असहयेाग, निष्क्रिय प्रतिरोध और सिविल नाफरमानी.अंगरेजी हुकूमत से असहयोग, सिविल नाफरमानी या निष्क्रिय प्रतिरोध दिखाने पर तिलक, गांधी और कांग्रेस के असंख्य नेताओं को बार बार सजाएं दी गईं.इन्हीं नेताओं के वंशज देश में बाद में हुक्काम बने. 
आजादी के संघर्ष के दौरान जिस विचारधारा ने नागरिक आजादी को सरकारी तंत्र के ऊपर तरजीह दी.आज उनके प्रशासनिक वंशज इतिहास की उलटधारा में देश का भविष्य कैसे ढूंढ़ सकते हैं? राजद्रोह का अपराध राजदंड है.वह बोलती हुई रियाया की पीठ पर कोड़ा बनकर पड़ता है.अंगरेजों के तलुए सहलाने वाली मनोवृत्ति के लोग राजद्रोह को अपना अंगरक्षक मान सकते हैं.राज के खिलाफ द्रोह करना जनता का मूल अधिकार है, लेकिन जनता द्वारा बनाए गए संविधान ने खुद तय कर लिया है कि वह हिंसक नहीं होगा.यह भी कि वह राज्य की मूल अवधारणाओं पर चोट नहीं करेगा क्योंकि जनता ही तो राज्य है, उसके नुमाइंदे नहीं. 
साभार 

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