हफ़ीज किदवई
आजकल तीन नेताओं और एक केंद्र से कितना कुछ सीखने का वक़्त है . मुकुल,ममता और जितिन, तीनों के बीच एक सूत्र बंगाल और सियासी चौसर और उसके नियम,जितना चाहो उतना सीखो इस राजनीति से...
जितिन कॉंग्रेस के बंगाल प्रभारी थे . बंगाल के ही मुकुल रॉय भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे और ममता तो बंगाल का मुकुट है हीं, अब देखिए कॉंग्रेस का एक राज्य का प्रभारी भाजपा में जब दो दिन पहले गया,तो मीडिया का क्या रुख था,दिनभर इसे चलाया गया,बड़ा ब्राह्मण लीडर कहकर संबोधित किया गया . वहीं जब आज भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष दम घुटने की वजह से उनका दामन छोड़ ममता के पास आ गया,तो खबर कितनी चली,खैर कुछ मीडिया का केंद्र की सत्ता के पाँव में लोटना जगज़ाहिर है, इसपर बात करना ही फिजूल है .
सीखना क्या है यह समझिये . पहले ममता से सीखिए,माफ करना . मुकुल बहुत पहले ममता को छोड़ गए,यह ममता के लिए पहला झटका था . पूरे चुनाव भर ममता के विरुद्ध ही रहे,यहां तक जब ममता पर बहुत निजी हमले हो रहे थे,मुकुल राय ने उसपर कोई साथ नही दिया . अब जब ममता आग का दरिया पार कर चुकी और मुकुल का वह वज़न भी नही रहा, जो पहले थे . ऐसे में कोई भी होता तो उनको पार्टी में नही लेता,मगर एक पॉलिटिशियन आदमियों के आने को ही शुभ मानता है और ममता एक घोर राजनैतिक नेता हैं, उन्होंने मुकुल को ले लिया .
देश के हर नेता को ममता से सीखना चाहिए कि नेता वही,जो जोड़े,जो अपनी पार्टी में लोगों और नेताओं की संख्या बढ़ाए . राजनीति कभी भी व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति की जगह नही होती,यहां आप जिसे न भी पसन्द करें,उसे जोड़ना पड़ता है . ममता ने मुकुल को वापिस लेकर अपने से कम अनुभवी लोगों को सन्देश दे दिया है कि लोगों के अवगुण,धोखे या दूसरी कमज़ोरियों को भूलकर ही तुम राजनेता बन सकोगे,यहां यह फार्मूला सबसे कमजोर माना जाता है, जो कहे,जिसे जाना है, जा सकता है .
अब भाजपा को देखिये . पुश्तों से कांग्रेसी को तोड़ना उनके सबसे प्रिय विषय है . अब जब यूपी में जितिन की राजनैतिक हैसियत बच्चा बच्चा जानता है, तब उसे इन्हें बड़े दिल से पार्टी ने अपनाया है, यह भी देखना होगा . जो जितिन आज तक आपको ज़ीरो लगते रहे,उन्हें चुनाव में दौड़ते हुए जब देखिएगा,तब आप सोचिएगा की क्या यह वही जितिन हैं . लोगों से काम लेना आता है भाजपा को और काम निकल जाने पर काम लगाना भी आता है, यह भी एक तरह की राजनीति होती है .
ख़ैर एक राज्य बंगाल से जुड़े यह सभी नेता अपने हिस्से की राजनीति कर रहे हैं मगर इधर साल भर से ममता जो राजनैतिक दांव पेंच चल रही हैं, यह सोनिया गाँधी,मुलायम सिंह यादव,लालू प्रसाद यादव,शरद पवार जैसे अनुभवी नेताओं की फ़ेहरिस्त में मज़बूत नाम बनकर उभरी हैं . यह सभी लीडर माफ करना जानते थे,यह सब राजनीति में व्यक्तिगत मंशाओं को बहुत तरजीह नही देते थे,यह अपने गुस्से को इतना नही बढ़ाते थे कि इनके बगल से उठ कर गए लोग कभी वापसी नही कर सकें . बेनी प्रसाद वर्मा हों या आज़म खान,सबको उतनी ही इज़्ज़त से वापिस भी तो लाए थे मुलायम सिंह यादव,इसीलिए तो उन्हें राजनीति के चौसर का महारथी कहा जाता है .
राजनीति को राजनीति की तरह करना चाहिए . इसमें व्यक्तिगत कुछ भी नही होता,माफ कीजिये या सज़ा दीजिये,दोनों में राजनीति होनी चाहिए,व्यक्तिगत बदले या कुंठाएं नही और आख़री बात जो लोगों को जोड़ने में कामयाब हो वही राजनेता,जो जोड़ न सके,वह अच्छा इंसान भले हो मगर डेमोक्रेसी में बेहतरीन पॉलिटिशियन नही हो सकता.
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