कहां गए कहार और भिश्ती ?

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कहां गए कहार और भिश्ती ?

डा शारिक अहमद खान  
या ख़ुदा ये कौन सा दौर आया है कि सक़्क़ों-भिश्तियों का काम ही ख़त्म हो गया है.इंसान अब ख़ुद सक़्क़ा बना फिर रहा है,चापाकलों से ख़ुद पानी काढ़ता है,हुक़ूमती बम्बों से पानी भरता है.लोगों ने अपने घर की छतों पर पक्के और प्लास्टिक के हौज़ लगा रखे हैं,अंग्रेज़ी फ़ितूर छाया हुआ है मआशरे में तो इन हौज़ों को टंकी कहते हैं,अंग्रेज़ी हर्फ़ टैंक से टंकी का हर्फ़ बना लिया है. 
उन्हीं हौज़ों से बम्बों के ज़रिए ग़ुसलख़ाने में पानी आता है,हैफ़ ग़ुसलख़ानों में भी हौज़ होते हैं जिनमें झाग वाला साबुन डालकर घुसे पड़े रहो,इनको गोरों की ज़बान में बाथिंग टब कहते हैं,हैफ़ मुझे भी उसमें घुसना पड़ता है,गोरों ने बदन का मैल छुड़ाने के लिए इसे ज़रूरी करार दिया हुआ है.ग़ुसलख़ानों के बम्बों से बारिशनुमा पानी भी गिरता है जिसे शावर कहते हैं,अंग्रेज़ी निज़ाम की नक़ल में पहले नेटिव लोगों ने नहाने को बाथ कहना शुरू किया,अब दो हाथ फुदकते हुए शावर कहना शुरू कर दिया है.बहरहाल,पुराने दौर में ऐसा नहीं था,देहातों में जहाँ भिश्ती बिरादरी के मुसलमान नहीं होते उन मुसलमान ज़मींदारों के यहाँ और शहर-देहात के हिंदू ज़मींदार हज़रात के यहाँ कहार पानी भरते और शहरों-क़स्बों में मुसलमानों के घरों में पानी भरने के लिए सक़्क़े आते,जिन्हें भिश्ती भी कहा जाता.भिश्ती अपने कंधों पर मशक लिए रहते,मशक आमतौर पर बकरी के चमड़े की हुआ करती,एक मशक में पच्चीस से तीस लीटर तक पानी आ जाता.पीने के पानी की मशक अलग होती और नहाने-धोने के पानी की मशक अलग,भिश्ती का काम था बाहर के कुएं या घर के कुएं से मशक से पानी खींचकर पीने के बर्तनों में पीने का पानी और नहाने-धोने के तांबे-पीतल-मिट्टी के हौज़ों में नहाने-धोने का पानी भरना.भिश्ती के लाए पानी से ही ग़ुस्ल होता.भिश्ती अपनी मशक में पानी भरकर धुलाई भी किया करते थे,गर्मियों में सहन की मिट्टी पर पानी छिड़ककर ज़मीन को ठंडा करना भी भिश्तियों का काम था.फ़ारसी शब्द 'बहिश्त' से भिश्ती शब्द बना.बहिश्त का मतलब होता है जन्नत-स्वर्ग.प्यासे सहरा में पानी मिल जाए तो सहरा बहिश्त ही लगता है,इसीलिए पानी पिलाने वाले को भिश्ती कहा गया जो 'बहिश्ती' का ही ज़बानी चलन पर बदला हुआ नाम है.इस तरह से बहिश्ती वो भी हुआ जो जन्नत में पानी पिलाए.भिश्ती-सक़्क़ा मुसलमानों की एक जाति है जो सल्तनत के दौर के सुल्तानों के वक़्त हिंद में उनके साथ आयी.

भिश्तियों में हब्शी ज़्यादा हुआ करते जो मध्य एशिया और अफ़्रीका से ग़ुलाम के तौर पर आए,वजह कि दूर से पानी भरने का काम कठोर परिश्रम का काम था,हब्शी लोग मेहनती भी होते और शारीरिक रूप से मज़बूत भी,इसलिए बहुत से हब्शी ग़ुलाम भिश्ती-सक़्क़े के काम में लगाए थे.हिंद में भिश्ती जाति अब पिछड़ी जाति में आती है,भिश्ती अपना ख़ानदानी पेशा छोड़ दूसरे कामों में लग गए हैं,वजह कि अब भिश्ती का कोई काम नहीं रह गया.भिश्ती मुसलमान 'शेख़ सरवरी' और 'अब्बासी' टाइटिल का इस्तेमाल करते हैं.लेकिन ये 'शेख़ अब्बासी' से अलग जाति है,शेख़ अब्बासी जाति सामान्य जाति क्रम में आती है.मुग़लिया दौर में और अंग्रेज़ों के दौर में शहरों में गलियों और नालियों की धुलाई के लिए सरकारी भिश्ती रखे जाते,जो जमादारों के हाथों सड़कों पर झाड़ू लग जाने के बाद नालियों को और ज़रूरत पड़ने पर सड़कों को कंधों पर टंगी मशक से धोते फिरते.मौसम-ए-गर्मा मतलब ग्रीष्म ऋतु में शाम को शहर की सड़कों पर अपनी मशक से पानी छिड़ककर सड़कों को ठंडा करना और धूल बैठाना भी भिश्तियों का काम था.बकरे-बकरी के चमड़े से भिश्ती की मशक बनाने से पहले चमड़े को हल्दी-नमक से साफ़ कर और ख़ूब धोकर सुखाया जाता था,जब ये चमड़ा साफ़ हो जाता तो इसे चमड़े के धागों-तांत से सिलकर मशक तैयार की जाती.एक मशक को पानी भरने के लिए लगातार इस्तेमाल किया जाए तो मशक छह महीने चल जाती,फिर ये 

धीरे-धीरे ख़राब होने लगती.हिंदू हज़रात मशक से पानी नहीं पीते थे,वजह कि मशक चमड़े की होती,लेकिन जब मशक का दौर कम-ख़त्म हुआ तो हैंडपंप आए,उसमें भी चमड़े का वार्शल लगा होता और उसी से पानी खिंचकर ऊपर आता,उसका पानी बहुत से हिंदू हज़रात पीने लगे,लेकिन बहुत से हिंदू धार्मिक मान्यताओं के कारण हैंडपंप से खींचा गया पानी नहीं भी पीते थे,वजह कि उसमें चमड़े का वार्शल रहता है.ख़ैर,हमने तो मशक ख़ूब देखी है,चमड़े की मशक से आए पानी से नहाए भी हैं और मशक से पानी भी पिया है.मज़ारों-दरगाहों पर भी भिश्ती देखे जाते थे,उनकी मशक का पानी भी पिया.दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर कुछ ही बरसों पहले तक भिश्ती टहला करते जो मशक में पानी लिए रहते और अठन्नी में भरपेट पानी पिलाते,जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर उनकी मशक का पानी भी हमने पिया और भिश्ती शर्बत भी मशक में भरे रहते जो रूपये का एक प्याला देते.भिश्ती अपनी मशक से पानी-शर्बत प्यालों में ही ढालकर परोसते.आज लखनऊ के क़ैसरबाग़ गेट की तरफ़ से गुज़र के दौरान साइकिल पर पानी रखने के डिब्बे लेकर बेचता ये शख़्स दिखा जो तस्वीर में है तो हमें भिश्ती और उनकी मशक की याद आ गई.

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