देवदार के जंगल में एक अंग्रेज का प्रेत !

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देवदार के जंगल में एक अंग्रेज का प्रेत !

अंबरीश कुमार 
यह जंगलात विभाग के डीएफओ का पुराना बंगला है .वर्ष 1888 में बना था .दो मंजिला हरे रंग से रंगी टिन की छत वाला .देखने में लगता था कि दो भवनों को जोड़ कर बनाया गया है .पत्थर का बना हुआ .भीतर देवदार की लकड़ी का काम है .चारो तरफ भी देवदार के ही दरख्त हैं .लकड़ी की सीढ़ी चढ़ कर पहली मंजिल पर पहुंचे तो रोशनदान से आती रौशनी से भीतर अंधेरा नहीं लगता .यह इमारत  दूर से सैनिकों की पुरानी बैरक जैसा .वीराने में जंगल से लगा हुआ .बताते हैं इसमें एक अंग्रेज अफसर का प्रेत घूमता रहता है .पता नहीं भूत प्रेत होते भी हैं या किस्से गढ़ दिए जाते हैं .लेकिन इसी वजह से कई अफसर इस  बंगले को छोड़ गए थे यह भी बताया गया .वैसे भी आसपास का माहौल बहुत ही भुतहा नजर आ रहा था .ऐसे में भूत प्रेत के किस्से और डरा ही देते हैं.यह किस्सा सुनाया डाक बंगला के चौकीदार ने .वैसे वह खुद भी जब अंधेरी रात में बगल की पहाड़ी से एक हाथ में लालटेन और दूसरे में बड़ा सा टिफिन लेकर उतरता तो किसी प्रेत की छाया जैसा ही दिखता .फिर वह डाइनिंग टेबल पर खाना लगाता और साथ किस्से भी सुनाता .रख रखाव तो इस डाक बंगला का बहुत अच्छा नहीं था पर जिस जगह यह बना था वह लोकेशन बहुत अच्छी लगी .आधा बंगला स्कूल को दे दिया गया .वजह यहां निर्माण पर रोक थी और कोई ऐसा भवन भी नहीं था जहां बच्चे पढने जाते .जाड़ों में यह पूरा इलाका बर्फ से ढक जाता .पर ठंढ तो साल भर ही रहती .हमें भी एडवेंचर का शौक ठहरा सो बहुत मशक्कत के बाद यहां पहुंचे थे .कलेक्टर से परमिट बनवाया गया था वर्ना आम सैलानी यहां जल्दी नहीं आते .और आते भी तो लौट जाते क्योंकि ठहरने की कोई जगह ही नहीं थी .परमिट की वजह से अपना इंतजाम हो गया था . पर यहां पहुंचने के बाद भूत प्रेत के किस्से सुन डर भी लगा .वैसे भी भूत प्रेत लगता है पहाड़ पर ही ज्यादा बचे हैं मैदान से तो अब गायब होते जा रहे हैं .चकराता में अंग्रेजों की सैनिक छावनी 1860 में बनी थी .इसी वजह से इस इलाके में आम लोगों का आना जाना कम ही रहा . 


जब बस से उतरे तो शाम भीगी हुई थी .सामने देवदार के दरख्तों से घिरी कोई इमारत थी .यह कोई बस अड्डा जैसी जगह भी नहीं थी .अपने को जाना डाक बंगला तक था .पर जंगल के साथ साथ जा रही सड़क सुनसान थी .इधर उधर देखा तो कुछ दूर पर एक बुजुर्ग दिखे .उनसे पूछा कि डाक बंगला किधर है तो जवाब दिया ,इसी सड़क पर करीब एक किलोमीटर चले जायें एक ही भवन दाहिने तरफ दिखेगा वही डाक बंगला है . ठंढ भी बढ़ रही थी और अंधेरा भी घिर रहा था .डर बरसात का था क्योंकि छाता तो लेकर आये ही नहीं थे .चकराता बस से गए थे और ज्यादा जानकारी नहीं थी .रास्ता पूछते पूछते डाक बंगला की तरफ चले तो घने देवदार की जंगलों में एक किलोमीटर से भी ज्यादा चलने पर एक पुराना बंगला नजर आया जो बंद था .बरामदे की कुर्सियों पर बैठे तभी एक बुजुर्ग सामने आए जो उसके चौकीदार और खानसामा सभी थे .खैर चाय और रात के खाने के बारे में पूछा तो जवाब मिला ,बाजार से सामान लाना होगा तभी कुछ बन पाएगा और बाजार बंद होने वाला है .बाजार क्या था दो चार दूकान जो आसपास के गांव वालों के लिए राशन से लेकर सब्जी भाजी रखते थे .अंडा मुर्गी भी मिल जाता .पर अपने लिए वह दाल चावल सब्जी रोटी के इंतजाम में लग गया .आसपास के खेतों की सब्जी मिल जाती थी .रात के खाने में सब कुछ था .डाक बंगला के रसोइये वैसे भी बहुत हुनरमंद होते हैं .और इस डाक बंगले में तो दूँ स्कूल में पढने वाले राजीव गांधी आते तो गांधी परिवार के सदस्य भी .इसलिए इंतजाम चाक चौबंद रखा जाता . 
नब्बे के दशक की शुरुआत थी .घूमने फिरने के शौक के चलते चकराता का कार्यक्रम बना .जनसत्ता अख़बार की कवरेज के चलते आना जाना लगा रहता था .इसके चलते अपना घूमना फिरना काफी होता था और सुविधा भी मिल जाती थी .चकराता एक अछूती सी जगह थी तो सोचा घूमने के साथ  एक यात्रा वृतांत भी लिख दिया जाएगा .जनसत्ता ब्यूरो के साथी अनिल बंसल अक्सर कहते थे कि मै जहां भी घूमने जाता हूं लौटकर उसके बारे में रविवारी जनसत्ता में लिख कर यात्रा का पैसा भी वसूल लेता हूं .कुछ हद तक यह सही माना जा सकता है क्योंकि यात्रा में बहुत ज्यादा खर्च न हो इसलिए डाक बंगला में ज्यादा रुकना होता था .चकराता में रुकने के लिए तब परमिट की जरुरत पड़ती .हरिद्वार स्थित अपने संवाददाता सुनील दत पांडेय ने परमिट वगैरह बनवा दिया क्योकि सारा इलाका सेना के अधीन है . पर यहां आने जाने का कोई साधन नहीं था .बस और फिर पैदल ही चलना पड़ा .चकराता का रास्ता तब वन वे था और कई जगह खाई देख दर भी लगता था .खैर शाम को पहुंचे तो देवदार के घने जंगल ,बर्फ से लड़ी पहाड़ियों को देख सम्मोहित थे .हरियाली ऎसी की आखे बंद होने का नाम न ले .यहाँ से शिमला का भी रास्ता है और बहुत ज्यादा दूर भी नहीं है .चकराता में तब कोई आबादी नहीं थी और न ही कोई होटल क्योकि यह इलाका सेना के अधीन है और कोई निर्माण नहीं हो सकता था .आवाज के नाम पर हवाओं से हिलते दरख्त के पत्तों की आवाज या फिर सड़क पर परेड करते सैनिकों के बूटों की आवाज .रात के अंधेरे में यह सन्नाटा डराता भी था .खैर हम डाक बंगला तक पहुंच ही गए . 
नाम नहीं याद पर चौकीदार ने डाक बंगले का एक सूट खोल दिया जो ठंडा और सीलन भरा था जिसके कोने में बने फायर प्लेस में रखी लकड़ी को जलाने के साथ मेरे और सविता के लिए दो कप दार्जलिंग वाली चाय भी ले आया तो कुछ रहत मिली .ठंड और बढ़ गई थी . बाहर बरसात और धुंध से ज्यादा दूर दिख भी नहीं रहा था .यह डाक बंगला अंग्रेजों के ज़माने का था जिसका एक हिस्सा स्कूल में तब्दील हो चुका था .बाद में चौकीदार ने बताया वह भी उसी दौर से यहाँ पर है और जब राजीव गांधी देहरादून में पढ़ते थे तो छुट्टियों में यही आते और रुकते थे .डाक बंगले में बिजली नहीं थी और एक पुराने लैम्प की रौशनी में खाना खाते हुए चौकीदार से कुछ पुराने किस्से सुन रहे थे .और उस वीराने में कुछ था भी नहीं बाहर बरसात के चलते अगर निकलते भी तो घना अंधेरा .तेज हवा के साथ बरसात की तेज बूंदे टिन की छत पर गिरकर कर्कश आवाज कर रही थी .कमरे के भीतर एक कोने में भी पानी की बूंदे अपना रास्ता तलाश रही थी .चौकीदार ने भी कुछ ऐसे किस्से सुनाये कि उत्सुकता और बढ़ गई . 
खाने के बाद कब नींद आई पता नहीं चला .रात में बरसात और तेज हुई .अचानक खिड़की का एक पल्ला खुल गया और तेज हवा का झोंका आया तो नींद खुल गई .अगर कभी पहाड़ पर टिन की छत वाली किसी इमारत में रुके हो तो अनुभव होगा .लगातार सरसराहट की आवाज आती रहती है जैसे बरसात हो रही हो ऊपर .दरअसल यह टिन और लकड़ी के बीच हवा के दबाव की वजह से होता है .यह पहले पता नहीं था जिससे कुछ अजीब सा महसूस हो रहा था .खिड़की तक गया . बाहर देवदार का दरख्त किसी आकृति की तरह नजर आ रहा था .खिड़की बंद कर दी पर नींद गायब थी .जंगलात विभाग के उस अंग्रेज अफसर के बारे में सोच रहा था जिसकी आत्मा बंगले में भटकती रहती है .पता नहीं कबतक ये आत्मा भटकेगी . 
 

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