अंबरीश कुमार
रात के करीब साढ़े नौ बज चुके थे जब सपरार के इस डाक बंगले में पहुंचे .बिजली नहीं थी ,बरसात जारी थी .अंधेरे में कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था .गेट पर हार्न देने पर भीतर का दरवाजा खुला और चौकीदार बाहर आया .गेट खोला और सिंचाई भवन के डाक बंगले का पहला सूट खोल दिया .लालटेन की रौशनी में पुराने ज़माने का फर्नीचर नजर आया .इन डाक बंगलों में और कुछ हो न हो ड्रेसिंग रूम काफी बड़ा होता है .कई घंटे की यात्रा से थकावट हो गई थी .चाय के लिए बोला और सोफे पर पसर गए .
बरसात और तेज हो गई थी .
बेतवा पार कर जब आगे बढे तो शाम ढल चुकी थी और जाना जंगल के डाक बंगले में था इसलिए निकल गए .बेतवा भी देखने वाली थी .इतना पानी लेकर जो चल रही थी .ओरछा में बेतवा जब पत्थरों से गुजरती है तो मन होता है किसी एक बड़े पत्थर पर बैठ कर इस नदी को देखते रहें .बेतवा को देखते हुए मन तो नहीं भरा पर जाना आगे थे इसलिए पहाड़ी रास्ते पर बढ़ गए . रास्ता भी पहाड़ी पर कभी ऊपर जाता तो कभी नीचे आता .दोनों तरफ हरियाली ही हरियाली ,वह भी ऐसी की आंख झपकाने का मन न करे .बगल के पहाड़ों पर पत्थर इस तरह एक दूसरे के ऊपर खड़े थे मानो किसी न हाथ से खड़ा किया हो . तेज बरसात में ओरछा रेल क्रासिंग पर कार रुकी तो बगल में गायों का झुंड खड़ा नजर आया . दो गाय बगल की झोपड़ी में बरसात से बचने के लिए आसरा लिए हुए थी
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बहुत दिन क्या सालों बाद दोनों बच्चों के बिना निकले थे क्योकि दोनों व्यस्त थे . बाहर निकलने में पूरे साजो सामन के साथ निकलना पुराना नियम है जिसमे बिजली की चाय की केतली ,पावडर दूध के पाउच ,शुगर क्यूब और डिप वाली चाय . इसके अलावा सब्जी सलाद का सामान रास्ते से लेना ताकि रात में दिक्कत न हो . बरुआ बाजार में सविता को सब्जी देख रहा नहीं गया और भुट्टा ,हरा बैगन ,खीरा टमाटर आदि सब ले लिया . इस बीच सपरार बांध के डाक बंगला से संपर्क करने का प्रयास कर रहे थे ताकि खाने की व्यवस्था का पता किया जा सके .
एक तो बरसात दूसरे जंगल की व्यवस्था .अगर कोई भी व्यवस्था न हो तो चूल्हे पर खाना बन सके इसलिए कच्चा सामान जरुती था . हिमाचल ,उतराखंड और छत्तीसगढ़ में इसका अनुभव हो चुका है .हालांकि छत्तीसगढ़ में हर जगह व्यवस्था हो गयी थी सिर्फ उदयन्ती अभ्यारण्य के तौरंगा डाक बंगले को छोड़ पर वहा जो खाना ले गए थे वह काम आ गया था . खैर बरुआ सगर से आगे अंधेरा घिर गया था और बरसात से गाड़ी की रफ़्तार भी काफी कम थी. गजब का मौसम . तभी सुनील ने फोन कर बताया कि खाना पैक कराकर ले जाना होगा क्योकि वहा गैस ख़त्म हो चुकी है . मऊरानीपुर सविता के पिता जी का ननिहाल भी है इसलिए वे चाह रही थी कि रिश्ते की एक दादी जिन्दा हो तो उनसे मिल लें .यह सब सोचते सोचते अचानक गाड़ी रुकने से ध्यान भंग हुआ . आगे निकल आए थे .करीब चार किलोमीटर पीछे गए तो वहा सुधीर हैं कुछ साथियों के साथ खड़े थे . कुछ देर बैठे तभी तीन टिफिन गाड़ी में रखवा दिए गए . उन्होंने रास्ता भी बताया और फिर आगे चल पड़े . पर शहर में जो घुसे तो निकलना मुश्किल लगने लगा . पूछते पूछते आगे बढे तो शहर पार करते घुप अंधेरा .
तीन चार किलोमीटर दूर बताया गया था और सात किलोमीटर दूर आ चुके थे . सड़क के दोनों किनारों पर पानी भरा जंगल नजर आ रहा था . एक जगह लालटेन टिमटिमाती दिखी तो पता किया और उसने बताया अभी आगे जाकर बाएं मुड़ना होगा . सन्नाटा और अंधेरा दोनों डराने वाला था . एक कच्ची सड़क पर कुछ दूर जाने के बाद निरीक्षण भवन का छोटा बोर्ड नजर आया आगे गेट बंद था .इस बीच चाय आ गई .जो खाना ले आये थे वह गर्म कर एक घंटे बाद लाने को कह दिया .सामने सपरार बांध था और पानी के किनारे किसी जल महल सा यह डाक बंगला .बिजली आई तो कुछ देर के लिए बाहर बरामदे में निकले .सामने की पहाड़ी नजर आ रही थी .
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