अंबरीश कुमार
मैदान में लोग चटनी के शौकीन हो न हो पहाड़ पर भांग की चटनी का शौक तो है ही .यह सिल बट्टे पर ज्यादा बनाई जाती है .नमी की वजह से अपनी जब तीन मिक्सी ख़राब हो गई तो सिल बट्टा आया .लखनऊ में भी है .सिर्फ सिल बट्टा ही नहीं पत्थर का इमाम दस्ता यानी कूटने वाला .खरल भी कहते हैं इसे.मसालों को भून कर इसमें कूट कर अगर सब्जी ,कोरमा ,दो प्याजा में डालें तो स्वाद बढ़ जाता है .अपने लखनऊ में टुंडे हों या फिर रहीम या इदरीस .इनके मुगलई व्यंजन बहुत मशहूर हैं .चौक में लल्ला की बिरयानी हो या शखावत का कबाब .इनमें बहुत से कारीगर आज भी इन पुराने तौर तरीकों का इस्तेमाल करते हैं .मुझे पत्थर का कूटने वाला मिक्सी से ज्यादा आसान लगता हैं .सिल बट्टा जिन घरों में है भी वहां काम करने वाली इनपर चटनी या मसाला पीसती हैं .मुझे याद है अपने ननिहाल में जो गोरखपुर के बडहल गंज से कोस भर की दूरी पर था .वहां आम और पुदीने की चटनी रोज बनती थी .काफी ज्यादा मात्रा में .इसे सोमारी फ़ूआ बनाती थी जो घर का बाकी काम भी देखती थी .इसमें कुएं से पानी लाना भी एक काम होता तो चौके में खिड़की से अरहर की टहनियां लाना भी जिसे चूल्हे में जलाया जाता .नानी या किसी मामी को चटनी पीसते नहीं देखा .शायद जरुरत भी न पड़ी हो .खैर अब तो ज्यादातर घरों में मिक्सी ही है .
भट की दाल भी पहाड़ पर भीगने के बाद सिल बट्टे पर कुछ दरदरा पीस कर बनाई जाती है .यह सबके बस का नहीं है .यह सही है .पर पहाड़ पर गाँवों में अभी यह कुछ हद तक बचा हुआ है .अपने यहाँ भी काम करने वाली जो अपने घर में भी सिल बट्टे पर भट पीसी हुई दाल बनाती है वह अपने यहां भी बना देती है .पर शहर में यह संभव नहीं है .पर खरल यानी पत्थर का इमाम दस्ता तो आसान है इस्तेमाल करना .इसमें दरदरी चटनी बन सकती है .पर मुझे खड़े मसालों को भून कर इसमें कूटना ठीक लगता है .यह जो काले पत्थर का खरल है यह बहुत दूर से लाया गया है .एक नहीं दो बार .चेन्नई से करीब पचास किलोमीटर दूर महाबलीपुरम से .वहां पत्थरों का काम बहुत पुराना है .कई तरह के खरल मिलते हैं .दो बार ले आया हूं .सत्तर रूपये का मिलता है यह .एक बार एयरपोर्ट पर सामान भरा बैग इसी वजह से खुलवा लिया गया क्योंकि एक्सरे में कुछ समझ न आया .इसलिए समुद्र किनारे से पहाड़ तक इसे बड़ी मशक्कत से लाया गया .अमूमन रोज इस्तेमाल होता है .
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