सांप्रदायिकता घर उजाड़ती है मजहब इंसान बनाता है - दिलीप कुमार

गोवा की आजादी में लोहिया का योगदान पत्रकारों पर हमले के खिलाफ पटना में नागरिक प्रतिवाद सीएम के पीछे सीबीआई ठाकुर का कुआं'पर बवाल रूकने का नाम नहीं ले रहा भाजपा ने बिधूड़ी का कद और बढ़ाया आखिर मोदी है, तो मुमकिन है बिधूड़ी की सदस्य्ता रद्द करने की मांग रमेश बिधूडी तो मोहरा है आरएसएस ने महिला आरक्षण विधेयक का दबाव डाला और रविशंकर , हर्षवर्धन हंस रहे थे संजय गांधी अस्पताल के चार सौ कर्मचारी बेरोजगार महिला आरक्षण को तत्काल लागू करने से कौन रोक रहा है? स्मृति ईरानी और सोनिया गांधी आमने-सामने देवभूमि में समाजवादी शंखनाद भाजपाई तो उत्पात की तैयारी में हैं . दीपंकर भट्टाचार्य घोषी का उद्घोष , न रहे कोई मदहोश! भाजपा हटाओ-देश बचाओ अभियान की गई समीक्षा आचार्य विनोबा भावे को याद किया स्कीम वर्करों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न क्या सोच रहे हैं मोदी ?

सांप्रदायिकता घर उजाड़ती है मजहब इंसान बनाता है - दिलीप कुमार

फजल इमाम मल्लिक 
अमिताभ बच्चन ने कभी दिलीप कुमार के बारे में कहा था कि वे महान कलाकार हैं. कोई भी कलाकार जो यह कहता है कि वह उनसे प्रभावित नहीं है. झूठ बोलता है. लेकिन मेरा मानना है कि दिलपी कुमार एक अच्छे इंसान पहले हैं और कोई  भी उनसे मिल कर प्रभावित नहीं होता है तो वह झूठ बोलता है. उनसे मिलना, बातें करना और उन्हें सुनना अपने आप में एक अमुभव से गुजरने जैसा है. आबशारों सी गुनगुनाती उनकी बात करने की शैली किसी को भी अपने सम्मोहन में जकड़ सकती है. बीच-बीच में हौले से मुस्कुराना. फिर बुजुर्गों के अंदाज में किसी खास बिंदू को समझाना, उनकी शख्सियत को और भी विस्तार देती है. 16 फरवरी, 1993. स्थान ताज बंगाल होटल, कलकत्ता. करीब आठ घंटे की कोशिश के बाद उनसे मुलाकात हुई. 17 फरवरी को उन्हें कोलकाता (तब के कलकत्ता) में एक जलसे में हिस्सा लेना था. वे एक दिन पहले कलकत्ता आए. सुबह लगभग नौ बजे फोन किया, उनके साथ आए उनके सचिव जॉन ने फोन पर बताया कि दिलीप साहब आराम कर रहे हैं. मेरा परिचय जानने के बाद उनसे यह वादा जरूर किया कि दिलीप साहेब से वह मेरी बातचीत जरूर कराएंगे. उन्होने मेरा टेलीफोन नंबर लिया (तब मोबाइल नहीं था. धर्मतल्ला में जनसत्ता का एक कार्यालय था. मैं वहीं जमा रहा. उसी आफिस का नंबर दिया था). बीच में एक-दो बार और फोन किया तो जॉन का जवाब वही था कि वे आराम कर रहे हैं और आप निश्चित रहें, मैं आपकी उनसे बातचीत जरूर कराऊंगा. पर मुझे यकीन नहीं था, कि मेरी उनसे मुलाकात होगी. लेकिन करीब चार बजे जॉन का फोन आया. फौरन आ जाएं. साहेब जाग गए हैं और वे आपसे बात करने के लिए तैयार हैं. 

सचमुच मुझे यकीन नहीं आया था. पर मैंने होटल पहुंचने में देर नहीं की. जीते जी किदवंदती बन चुके दिलीप कुमार से मिलने का जुनून मुझे नर्वस किए दे रहा था. क्या बात कर पाऊंगा मैं? उन्हीं सवालों के बीच जब उनके कमरे में दाखिल हुआ तो होंठो पर खेलती मुस्कुराहट से उन्होंने मुझे खुशआमदीद कहा. उनके लबो-लहजे से थोड़ा मैं आशवस्त हुआ. सफेद प्रिंस सूट में वे खूब जंच रहे थे. कहिए क्या पूछना है? 

मैं कुछ पूछता इससे पहले ही वे सवाल जड़ देते हैं. तब पूरा देश 6, दिसंबर 1992 की घटना के बाद जल रहा था और मुंबई भी उस आग में जली थी. जाहिर है फिल्म के अलावा उनसे उन मुद्दों पर ही पहले बातचीत हुई जिससे पूरा देश जूझ रहा था. जनसत्ता के कोलकाता संस्करण में दंगों को लेकर विशेष कवरेज की योजना बनी थी. क्योंकि दंगों की आंच ने कोलकाता के भी कुछ हिस्सों को झुलसाया था. दिलीप साहेब से अयोध्या और दंगा भी बातचीत का विषय रहा और ‘कलिंगा’ के निर्देशन की बातचीत भी हुई. बातचीत जो करीब दो घंटे तक चली. हालांकि इस यादगार इंटरव्यू के बाद आज भी एक बात मुझे कचोटती रहती है कि उनसे साथ मैं फोटो नहीं खिँचवा सका. हालांकि फिल्म वालों के साथ फोटो खिंचवाने का खब्त मुझे कभी नहीं रहा है. पर दिलपी साहब के साथ फोटो न खिंचवाने का अफसोस आज भी है. हां अपनी बेटी सुंबुल के लिए उनका ऑटोग्राफ जरूर लिया. दिलपी कुमार ने उर्दू में यह ऑटोग्राफ दिया था. उन्होंने लिखा था- सुंबुल, दुआओं के साथ और अंग्रेजी में उन्होंने दस्तखत किए थे. पेश है उनसे हुई बातचीत: 

दिलीप कुमार से फ़ज़ल इमाम मल्लिक की बातचीत के कुछ हिस्से .स्थान ताज बंगाल होटल, अब कोलकाता. 

मज़हब को अब किस रूप में देखते हैं? व्यक्तिगत आस्था या फिर सार्वजनिक प्रदर्शन के रूप में? 
देखो भाई. मज़हब तो काफ़ी सीधी-साधी चीज़ है. इंसान और जानवरों की अलग करने की प्रक्रिया का नाम मज़हब है. मज़हब इंसान को इंसानियत का पैग़ाम देता है. सारे मज़हब, वह चाहे इसलाम हो, हिंदू धर्म हो, पारसी, ईसाई या फिर सिख हो, यही बात सिखते हैं. मज़हब दरअसल ‘सोशियो मारल डिसिपलीन’ का सबक़ देता है. मज़हब का एक मुख़्तसर मायने यह है कि ज़ुल्म न करो, किसी का हक़ न मारो, दूसरों से मोहब्बत करो, हो सके तो किसी की मदद करो. न कर सको तो किसी को नुकसान न पहुँचाओ. इसके कुछ इंसानी कोड ऑफ कंडक्ट हैं. मज़हब से लोग एक दूसरे तक पहुँचते हैं. मज़हब दिखावा की इज़ाज़त ही कहाँ देता है. 

धर्म निरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव की मूल भावना एक है या दोनों अलग-अलग? 
सेक्युलिरिज्म का अर्थ डिक्शनरी के हिसाब से तो यह है कि ख़ुदा को मानना ही नहीं. लेकिन लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्ष का अर्थ बदल जाता है. पर आज इसके नाम पर जो हो रहा है, वह अलग क़िस्म की ही चीज़ है. मज़हबी बातों को लोग अब एक अलग तरह का मेयार बना लेते हैं. सोसायटी से ऐसे लोगों को निकाल बाहर करना चाहिए. लोग आज मज़हब को अपनी सुविधा के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं और उसे अपने-अपने तरीक़े से अपने-अपने पैमाने में ढाल रहे हैं. मज़हब के उसूलों को तोड़-मरोड़ कर लोगों के सामने रखा जा रहा है और अब यही सब लोगों के भीतर घर कर गया है. मज़हब के नाम पर आज जो कुछ भी हो रहा है वह ढकोसला है, मज़हब नहीं. इसे दूसरे अर्थों में यूं कहें कि आज जो कुछ भी हम देख रहे हैं वह मज़हब का मज़ाक़ उड़ाना है. 

आज के माहौल में मज़हब व सियासत का रिश्ता फिर कैसा होना चाहिए? 
जैसा कि मैंने कहा कि मज़हब आज सिर्फ़ मज़ाक़ बन कर रह गया है. तो ऐसे में मेरा मानना है कि इस पर सिरे से रोक लगा देनी चाहिए. वैसे मज़हब का सियासत से कोई बैर नहीं है. मज़हब ज़िंदगी के कामों में रूहानी अमल की तरह जुड़ा है. दुनियावी निज़ाम काफ़ी जटिल है. अपने समाज व मुल्क को बचाने के लिए हमें एक सोच की ज़रूरत होती है. ख़ास कर साइंस व तकनीकी प्रक्रियाओं की जटिलताओं से निकलने के लिए, हमें एक राह चुननी होती है. मज़हब इस राह पर चलने में मदद देता है. 

मज़हब और फ़िरक़ापरस्ती एक दूसरे से काफ़ी नज़दीक है? 
नहीं, बिल्कुल नहीं. दोनों नज़दीक हो ही नहीं सकते. मज़हब तो शुद्ध व पवित्र होता है. पर फ़िरक़ापरस्ती सत्ता हासिल करने के लिए है. मज़हब लोगों के अंदर अपने आप अपना राग सुनाता है. मज़हब तो सरल होता है. चाहे हिंदू, मसुलमान हों, सिख हों या फिर दूसरे धर्म के मानने वाले. सब अपने-अपने तरीक़ों से इबादत करते हैं. मज़हब इंसान को इंसान बनाता है, लेकनि फ़िरक़ापरस्ती घर उजाड़ती है, लोगों की जान लेती है. फ़िरक़ापरस्ती जुर्म करने को उकसाती है, क़ानून तोड़ती है. फ़िरक़ापरस्तीको जड़ से उखाड़ फेंकने की ज़रूरत है. इसे क़ानून की मदद से ख़त्म करना होगा, क्योंकि फ़िरक़ापरस्ती न सिर्फ़ यह कि क़ानून को तहस-नहस कर रही है, बल्कि इंसान व इंसानियत को नुकसान पहुँचा रही है. 

मुंबई के दंगों को आप किस नज़र से देखते हैं? 
मुंबई में हुआ सांप्रदायिक दंगा मज़हबी तो था ही नहीं. लेकिन इसे मज़हबी रंग दिया गया, मुसलिम और अल्पसंख्यकों के नाम पर. अयोध्या में छह दिसंबर, 1992 की घटना के बाद देश में फ़साद इसी नाम पर हुए. लेनिक यह दंगे मज़हबी कम, सियासी ज़्यादा थे. इसे आप यूं कहें कि अपने-अपने सियासी फ़ायदे के लिए लोगों का गला काटा गया और फिर उसे सांप्रदायिक दंगे में बदल दिया गया. 

* बस! एक सवाल और. यूसुफ़ ख़ान दिलीप कुमार को किस तरह से देखते हैं ? 
-दोनों में बहुत अच्छी दोस्ती है. दोनों एक दूसरे को पसंद करते हैं और एक-दूसरी की ख़्वाहिशों का सम्मान करते हैं. (यह कह कर वे उठते हैं और होंठों पर मुस्कुराहट बिखेर कर कहते हैं, अब चाय पी लें). 

  • |

Comments

Subscribe

Receive updates and latest news direct from our team. Simply enter your email below :