धुंध में डूबे डाक बंगले में बरसात की वह शाम !

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धुंध में डूबे डाक बंगले में बरसात की वह शाम !

अंबरीश कुमार 
गाड़ी से नीचे उतरे तो हवा की आवाज गूंज रही थी . बरसात हो चुकी थी इसलिए सामने देवदार के दरख्त से पानी की बूंदे हवा से हम तक पहुंच रही थी . हम जिस डाक बंगला परिसर में दाखिल हुए थे वह 1872 में बना था जो सामने ही लिखा भी था .पहले बांज यानी ओक के घने जंगलों को पारकर आइवीआरआई परिसर में पोस्ट ऑफिस के पास पहुंचे तो आगे देवदार के जंगल थे. दोबारा जब यहाँ आया था तो देवदार के घने दरख्तों के बीच आइवीआरआई का अतिथिगृह नजर आ रहा था तो दाहिने तरफ ब्रिटिश काल के कुछ पुराने घर. चारो ओर सन्नाटा. यहाँ आकर डाक बंगले के पास सडक़ खत्म हो जाती है क्योंकि आगे जाने का कोई रास्ता नहीं है.इसी डाक बंगले में दाखिल हुए .चौकीदार गोपाल सिंह केतली भर चाय ले आया और साथ बिस्कुट भी .चाय जरुरत से ज्यादा मीठी थी पर थकावट के चलते पी ली गई .धुंध बढती जा रही थी और ठंढ भी .चौकीदार को फायर प्लेस में लकड़ी जलाने को कह दिया गया था .आधे घंटे बाद ही कमरा गर्म हो चुका था . फिर रात के खाने के लिए पूछा क्योंकि सामान लेने उसे एक किलोमीटर दूर जाना पड़ता .बाजार भी जल्द बंद हो जाती .कौन इस बरसात में बाहर निकलता .फिर मित्र लोगों ने उसे देसी मुर्गा लाने को भी कह दिया जो गांव में ही मिलता इसलिए वह एक पुराना छाता लेकर निकल गया .हालांकि तेज हवा में यह छाता कितना काम करता पता नहीं . 
‘ब्लू हेवन’ मुक्तेश्वर के डाक बंगले के उस सूट का नाम है जिसमें मैं ठहरा हुआ हूं. बंगले के दूसरे सूट ‘पर्पल मूड’ में आशुतोष और ‘पिंक मेमोरीस’ में लेखक-पत्रकार सागर हैं. यह मुक्तेश्वर का अंग्रेजों के ज़माने का डाक बंगला है जिसमें कल अंधेरा घिरने के बाद हम सब पहुंचे तो ठंड बढ़ चुकी थी और धुंध के चलते ज्यादा दूर तक कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था. दिन भर पहाड़ी रास्तों पर फूट पड़े झरनों की फोटो खींचते रहे. झरने भी ऐसे की देखते रह जाएँ. पहाड़ के ऊपर जंगलों से लिपटती मानो कोई बरसाती नदी पूरे वेग से नीचे आ रही हो. हर मोड़ के बाद झरने का पानी नज़र आ रहा था. नैनीताल से मुक्तेश्वर की यह पहली यात्रा थी जिसमें जगह-जगह बहते झरनों का दीदार हुआ. इससे पहले शिलांग से चेरापूंजी जाते समय जो झरने देखे थे उनकी याद ताजा हो गई. पूरा पहाड़ नहाया और भीगा हुआ. मौसम इस तेजी से बदल रहा था कि कभी धूप तो कभी धुंध . यह डाक बंगला जहाँ पर है वहाँ से बीस हजार फुट पर नंदा गुंती से लेकर त्रिशूल, नंदा देवी और नंदा कोट जैसी चोटियाँ दिखाई पड़ती हैं. यह जगह समुद्र तट से साढ़े सात हजार फुट की ऊँचाई पर है यह भूल जाएँ तो डाक बंगले में एक शिला लेख याद दिला देता है. 
 यह डाक बंगला 1872 में बना था और यहाँ पहुंचने के लिए कोई सडक़ भी नहीं थी. सडक़ तो कुछ दशक पहले ही बनी है. डाक बंगले का कुछ हद तक कायाकल्प हो चुका है. ब्लू हेवन वाले सूट पूरी तरह नीले रंग में रंगे थे यहाँ तक कि चादर कंबल  और तकिए भी नीले रंग के थे. बीच का बरामदा भी बदला हुआ था. चौकीदार गोपाल सिंह खानसामा की भी जिम्मेदारी निभाता है. खाने का आर्डर पहले ही देना पड़ता है क्योंकि शाम ढलते ही करीब एक किलोमीटर दूर पर बनी कुछ दूकानें जिन्हें बाजार कह सकते हैं वह बन्द हो जाता है. गोपाल सिंह ने यह भी बताया कि मुर्गा बनवाना हो तो और पहले बताना होगा. फार्म का मुर्गा दो सौ रुपए किलो मिलेगा और देशी पाँच सौ रुपए. बनवाने का सौ रुपए अलग से. बाकी सामान्य खाना अस्सी रुपए हर एक के हिसाब से. यहाँ रुकने के लिए नैनीताल के कलेक्टर ऑफिस से बुकिंग करानी पड़ती है. डाक बंगले के सामने बड़ा बगीचा है जहाँ रात में एक तरफ अल्मोड़ा तो दूसरी तरफ रानीखेत के पहाडिय़ों की रोशनी नजर आती है. बगीचे से लगे देवदार के दर$ख्त पहाड़ के नीचे दूर तक जाते दिखते है. शाम ढलते ही ठंड बढ़ जाती है और सन्नाटा छा जाता है. नैनीताल से जो सैलानी आते हैं वे लौट जाते है और सामने पर्यटन विभाग में ठहरे सैलानी अपने कमरों में कैद हो जाते हैं. डाक बंगले के भीतर की ढकी हुई बालकनी बैठने के लिए बेहतर जगह है जहाँ से बाहर का सारा दृश्य दिखता है और ठंडी हवा से भी बचे रहते हैं. शाम के कार्यक्रम के लिहाज से यह बहुत अच्छी जगह है. दाहिने से एक पगडंडी जंगलों के बीच जाती दिखती है जो आगे चल कर एक पहाड़ी घर पर रुक जाती है. यह घर भी अब चार कमरों के होटल में बदल चुका है. जिस पगडंडी से यहाँ तक आए वह और संकरी होकर जंगल के बीच से चढ़ती हुई पहाड़ पर चली जाती है. सर्दियों में यहाँ काफी बर्फ गिरती है इसलिए तब पूरे इन्तजाम के साथ आना बेहतर होता होता है, मैं एक बार फँस चुका हँू. पर सबसे बेहतर समय मानसून का होता है जब धुंध और बादलों के बीच यह डाक बंगला काफी रहस्यमय सा नजर आता है. मानसून के समय सत्बुंगा से मुक्तेश्वर तक सुर्ख सेब से लदे पेड़ों को देख कोई भी सम्मोहित हो सकता है. इसके अलावा जमकर बारिश होती है और आसमान साफ होते ही एक तरफ बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियाँ सामने होती है तो दूसरी तरफ नहाए हुए बागान और जंगल. लगता है किसी चित्रकला के बीच खड़े हो. इससे पहले सत्बुंगा से गुजरे तो ड्राइवर ने पाइनियर अखबार के संपादक चंदन मित्र का सडक़ के किनारे बन रहा घर दिखाया जहाँ पाइनियर का बोर्ड भी लगा था.  महादेवी वर्मा और रविन्द्रनाथ टैगोर के यहाँ रहने की वजह जो प्राकृतिक खूबसूरती थी वह अभी भी काफी हद तक बची हुई है.  
सुबह कमरे के सामने की खिडक़ी का पर्दा खोला तो धुंध से कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था. आशुतोष कमरे में आए तो खिडक़ी भी खोल दी. फिर बाहर से बादल भाप की तरह भीतर आने लगा. कमरे में बिजली की केतली में चाय का पानी खौल रहा था और भाप उड़ रही थी. बाहर और भीतर की भाप में कोई फर्क नहीं था. तभी लैपटॉप में मेल चेक करने बैठा तो इंदु  का कमेंट मिला जो मानसून की पोस्ट पर था. अन्त में उन्होंने शाल की जगह साल लिखने की तरफ ध्यान खींचा. मैं गूगल से मँगल में एक उंगली से कम्पोज करता हूं जिससे कई बार गलती छूट जाती है इसे माफ कर देना चाहिए. मुक्तेश्वर के इस डाक बंगले के पीछे ही उत्तराखंड सरकार का पर्यटक आवास गृह है जिसमें रात में खाना खाने का मन था पर उनके यहाँ सैलानियों की भीड़ के चलते मैनेजर ने मना कर दिया. फिर डाक बंगले के चौकीदार से पूछा तो उसने कहा सामान लेने दूर जाना पड़ेगा और बरसात के साथ अँधेरा भी गहरा हो गया था. मुक्तेश्वर में आईवीआरआई परिसर में कोई बाजार नहीं है सिर्फ देवदार और ओक आदि के घने जंगल में ब्रिटिश कालीन पुराने बंगले जरूर नज़र आते हैं. अन्त में ड्राइवर अरविन्द को साथ भेज कर रात के खाने का इन्तजाम किया गया. इससे पहले रामगढ़ के अपने राइटर्स कॉटेज से शाम पाँच बजे चले तो डर लग रहा था कि कही तेज बरसात से रास्ता न बन्द हो जाए. एक दिन पहले ही राइटर्स कॉटेज में देर रात बैठकी चली थी. कमरे के सामने का देवदार का दरख्त जब बरसाती हवाओं से लहराने लगा तो मित्र लोग ग्लास के साथ बाहर ही सेब के पेड़ के नीचे बैठ गए. 
बरसात ज्यादा तेज नहीं थी. कुछ देर बैठे तो रहा नहीं गया और छाता मँगवा लिया. रात के दस बज चुके थे और खुले में माहौल ज्यादा देर तक नहीं चल पाया. बूंदे भारी होने लगी तो भीतर जाना पड़ा. इस बीच खाना बनाने का काम भी शुरू हो गया. आशुतोष अच्छे खानसामा भी हैं यह उनके बनाए अफगानी चिकन टिक्का से पता चला. भवाली से चलते समय देसी मुर्गे दिखे तो सुझाव आया कि यही से ले लिया जाए पर तय हुआ की रामगढ़ से लिया जाएगा. पर रामगढ़ से डाक बंगला रोड के मोड़ पर मुर्गे के दड़बे जब खाली नज़र आए तो दूकान वाले से पूछा गया. जवाब मिला आज गाड़ी नहीं आई इसलिए कुछ नहीं मिल पाएगा.  
रामगढ़ से लेकर मुक्तेश्वर तक के रास्ते में कहीं-कहीं सेब मिले तो बगीचे वालों ने उसकी पूरी कीमत भी वसूली. पेड़ से तोड़ कर सेब खाने की कीमत मात्र सौ रुपए किलो थी सो जाते मौसम के सेब का भी स्वाद लिया गया. एक जोड़ा जो दिन में सिड़ार लाज में खाना खाते मिला था वह भी पहुंच गया. साथ आए पत्रकारों ने उन मोहतरमा को भी काफी आग्रह के साथ सेब खिलाया. उन लोगों ने भी सेब के पेड़ के इधर-उधर खड़े होकर फोटो भी खिंचवाई. पर पिछले महीने जिस तरह सुर्ख सेब दिखे थे वह नज़र नहीं आए.  
कई साल के संकट के बाद पहाड़ पर मानसून कुछ ज्यादा ही मेहरबान है. हर पहाड़ भीगा हुआ, चट्टानों से रिसता पानी, पेड़ों की पत्तियों से टपकता पानी और दूसरे या तीसरे मोड़ पर झरनों की अलग अलग ढंग की गूंजती आवाज. यह आवाज घने जंगलों में संगीत में भी बदल जाती है. झरने भी अलग-अलग आकार और ऊँचाई के. किसी का एक छोर दिख जाता तो ज्यादातर जंगल से निकलते और सडक़ से होकर आगे चले जाते. झरनों की आवाजें रात में दूर तक गूंजती. पानी के जो स्रोत गर्मियों में सूख गए थे वे सभी रिचार्ज हो गए हैं. इससे लगता इस बार गर्मियों में पानी का वैसा संकट नहीं होगा जैसा पिछले कुछ सालों में हुआ था.  
पहली फोटो में सर्किट हाउस यानी डाक बंगला का बदला हुआ रूप है  
 

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