अब लोग शौक से पखाल खाने लगे हैं !

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अब लोग शौक से पखाल खाने लगे हैं !

सुशील महापात्र   
क्या ओडिशा के पखाल के बारे में आप जानते हैं ?पखाल को ओडिशा में गरीबों का खाना कहा जाता है लेकिन यही पखाल अब अंतराष्ट्रीय स्तर पर नाम कमाने लगा है. ऑस्ट्रेलिया में हुए मास्टर-शेफ़ की फाइनल में एक कंटेस्टंट ने पखाल पेश किया है. सिर्फ इतना नहीं भुवनेश्वर की AIIMS ने अपने रिसर्च में पाया है कि पखाल खाने से रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ता है.दोनो बात पखाल जुड़ी हुई है जो बड़ी बात है. पखाल की कुछ और फायदा भी है. गर्मी की दिनों में लोग पखाल खाते हैं क्यों कि पेट ठंडा रहता है. जब किसी की पेट खराब होता है तब भी लोग पखाल खाते हैं.    
ओडिशा के पखाल के साथ गरीबी ही जुड़ी हुई है. रसोईघर में मिटी हांडी में रखा हुआ पखाल ही एक इंसान की आर्थिक स्थिति जानते के लिए काफी है.आजकल बड़े बड़े होटल में भी पखाल परोसा जाने लगा है. पखाल का आधुनिककरण होने लगा है. पखाल एक बिज़नेस बन गया है. पखाल की हाल भी फटी हुई जीन्स की तरह हो गया है जैसे कोई गरीब पहने तो उसकी गरीबी दिखता है कोई आमिर पहने तो फैशन है. बड़े बड़े होटल में बनने वाला पखाल ओरिजिनल पखाल नहीं है, गरीबों की पखाल नहीं है. अपने बिज़नेस के लिए होटल वाले तो पखाल की खाल निकाल लिए हैं.  
पखाल को गरीबों की खाना क्यों कहा जाता है ? पखाल में ज्यादा खर्चा नहीं है. पखाल के साथ कोई सब्जी की जरूरत भी नहीं है. अगर सब्जी है तो ठीक है अगर नहीं है तो कोई बात नहीं.  जब कोई गरम भात खाता है उस के साथ सब्जी या दाल की जरूरत पड़ती है लेकिन पखाल में न तो दाल चाहिए न सब्जी.लोग अचार और मिर्ची के साथ पखाल खा लेते हैं. साग बना लेते हैं. गांव में साग खरीदने की जरूरत नहीं है. अलग अलग साग कहीं भी मिल जाते हैं. आप लोगों ने सहजन साग नहीं खाये होंगे लेकिन ओडिशा में पखाल और यह साग बहुत खाया जाता है. ओडिशा में सहजन को सजना बोलते हैं.  पखाल गरीबों के लिए ब्रेकफास्ट,लंच और डिनर में भी काम आता है. पखाल कैसे बनता है ? ओरिजिनल पखाल तो मिटी हांडी में बनता है. लोग मिटी हांडी में गरम भात बनाते हैं, भात ठंडा हो जाने के बाद उस में पानी मिला देते हैं. करीब 12-14 घंटो के बाद वो पखाल बन जाता है. ज्यादातर लोग तो रात को ही पखाल बनाना शुरू कर देते हैं ताकि अगले दिन खा सके. एक बार पखाल बन जाने के बाद लोग कई दिनों तक भी खाते हैं. कुछ लोगों यह अजीब लग रहा होगा लेकिन यही सच्चाई है. लोग शौक से नहीं करते हैं. गरीबी उंन्हे ऐसे करने में मजबूर करता है. बार बार भात बनाएंगे तो लकड़ी का भी ज्यादा खर्चा होगा. खर्चा बढ़ेगा. 
एक तो गरीब मजबूरी से पखाल खाता है लेकिन अब लोग शौक से पखाल खाने लगे हैं. होटल में बनने वाला पखाल मिटी हांडी का पखाल नहीं है. होटल वाला पखाल बनने के लिए समय भी नहीं लगता है. गरम चावल को पानी से तुरंत ठंडा कर दिया जाता है,उस में दही डाल दिया जाता है ताकि खट्टा लगे लेकिन गरीबों की पखाल में दही की जरूरत नहीं पड़ती है. ऐसे ही मिटी हांडी में बनी पखाल कुछ घंटों के बाद खट्टा हो जाता है. पखाल की पानी को ओड़िया में तोराणी बोलते हैं. इस तोराणी से कांजी बनाता है जिसे हिंदी में कड़ी बोलते हैं.. कड़ी चावल तो आप लोगों ने खाया ही होगा. आजकल होटल में बने पखाल के साथ कई सब्जी परोसा जाता है. गरीब बिना सब्जी के साथ पखाल खाता है तो होटल में कई सब्जी के साथ पखाल परोसा जाता है. एक अच्छा होटल में पखाल की कीमत 400-500 रुपये से कम नहीं होगी लेकिन एक गरीबी के लिए 500 रुपये में पूरे महीने का पखाल बन जाता है. पिछले कई सालों से पखाल दिवस भी मनाया जाने लगा है. मनाने वाले भी वही लोग हैं जो होटल में पखाल खाते हैं या फिर घर में 8-10 आइटम के साथ पखाल खाते हैं. गरीब के लिए हर दिन पखाल दिवस है. रोज पखाल से ही वो अपना पेट का भूख मिटाता है. 
 

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