अंबरीश कुमार
सुमेर ने अचानक नदी के हरे और पारदर्शी पानी में एक लोटा डाला और भरकर पीने लगा. हम उसे हैरानी से देख रहे थे. पानी पीने के बाद उसने एक लंबी सांस ली और हमें अपनी तरफ घूरता पाया. फिर खुद ही बोला ,साहब यह गेरुआ नदी का पानी है जो पेट के लिए बहुत फायदेमंद है. हम एक बंद मोटर बोट पर सवार थे, जो हमें सामने के जंगल के बीच बैक वाटर की तरफ ले जा रही थी. अचानक किनारे आराम करता एक मगरमच्छ दिख गया तो मोटर बोट उसके कुछ पास तक ले जायी गयी, ताकि हम उसके दर्शन कर सकें. हालांकि इससे पहले इस नदी के बीच कई टापू ऐसे मिले थे, जिसपर बड़ी संख्या में घड़ियाल आराम कर रहे थे. वर्ष 2015 का यह अंतिम हफ्ता था, जिसमे कड़ाके की ठंड पड़ रही थी.
हम कतर्नियाघाट वन्य जीव अभ्यारण्य के बीच से गुजरने वाली गेरुआ नदी में जंगलात विभाग के एक मोटर बोट पर सवार थे. गेरुआ नदी जिसे सरकारी हिंदी में गिरवा लिखा जाता है उसका पानी हरा और पारदर्शी नजर आ रहा था. यह पहली नदी देखी जिसका पानी कोई सीधे पी रहा था. नेपाल से आने वाली यही नदी आगे बढ़ कर कौडियाला नदी से मिलकर दो प्रमुख नदियों को जन्म देती है. इस जंगल से ही दो धारा बंट जाती है जिसमें एक सरयू कहलाती है, तो दूसरी घाघरा. सरयू को तो अपने गांव में बचपन से देखता रहा हूं, जो हर साल किसी एक तरफ की जमीन डूबोती है तो दूसरी तरफ ऊपजाऊ जमीन तैयार कर देती है. हम जा रहे थे बेंत के जंगल के बीच जहां सुर्खाब से लेकर कई परिंदे मंडरा रहे थे. नदी के सामने भी जंगल तो नदी के पीछे भी जंगल. इस जंगल को यह गेरुआ नदी बांट देती है. पर जानवरों को नहीं बांट पाती. जंगली हाथियों का झुंड भी तैरकर उसपार से इस पार आ जाता है तो बाघ भी तैर कर इसे पार करते रहते है. घड़ियाल और मगरमच्छ तो दोनों किनारों को जोड़ते ही रहते हैं. इस नदी पर कोई पुल नहीं है इसलिए गांव के लोग नाव और मोटर बोट से इसे पार करते है. पीपे वाला पुल भी बीच बीच में लगाया जाता है. पर बरसात से पहले ही वह नाकाम हो जाता है. यह भारत नेपाल सीमा का वह इलाका है जहां दोनों देशों के नागरिक और जानवर बेरोक टोक आते जाते हैं. नदी पार कुछ दूर तक भारत की सीमा है तो उसके बाद नेपाल का बर्दिया जिला लग जाता है. यह नेपाल से आने वाले जंगली हाथियों और गैंडों का जंगल का प्राकृतिक गलियारा भी है जो आगे दुधवा तक चला जाता है. साथ चल रहे जंगलात विभाग के गार्ड ने बताया कि जंगली हाथियों का झुंड उस पार ज्यादा रहता है. बीच-बीच में वह एक दो दिन के लिए इधर आता है पर फिर उत्पात मचाकर लौट जाता है. यह देश के उन जंगलों में से एक है जहां बीते तीन चार साल में बाघ की संख्या करीब दोगुनी हो गयी है. इन्ही बाघों में से करीब दर्जन भर बाघों ने दूसरे किनारे को अपना ठिकाना बना रखा है जिस तरफ हम जा रहे थे. बेंत के हरे भरे जंगल बहुत खूबसूरत लग रहे थे. अचानक कुछ जल मुर्गाबी दिखी जो डुबकी लगा रही थी. किनारे पर जब एक मगरमच्छ दिखाया तो लगा कोई लकड़ी का टुकड़ा पड़ा है, जो ध्यान से देखने पर मगरमच्छ में बदला. ये किनारे पर शिकार की तलाश में पड़े रहते है खासकर हिरण और जंगली सूअर के इंतजार में जो इधर पानी के लिए आते है. जबकि नदी के बीच कई टापुओं पर पड़े घड़ियाल मछली के भरोसे रहते है. मोटर बोट का ड्राइवर जंगलात विभाग का बहुत पुराना कर्मचारी था जिसने बताया कि सत्तर के दशक के अंतिम दौर में घड़ियाल के करीब अस्सी अंडे जंगलात विभाग के एक रेंजर के नेतृत्व में गयी टीम नेपाल की तरफ से एक बक्से में ले आयी थी. उस टीम में यह ड्राइवर भी था. आज इस नदी में सैकड़ों की संख्या में जो घड़ियाल है वह उन्ही अंडों के वंशज है. इस नदी का पानी इतना साफ़ है कि आसपास गांव के लोग इसे सीधे पीते है. यहीं पर सुर्खाब के झुंड भी नजर आते है तो डाल्फिन भी. अन्य परिंदे तो है ही. साफ़ है कि यह अभी एक जिंदा नदी है. इसमें मछली मारने पर प्रतिबंध भी है. कही कोई नाला इस नदी में नहीं गिरता और न ही किसी तरह का कचरा बहाया जाता है. जंगल के बीच बहती यह नदी आज भी जीवन देती है. नीचे में देखने पर जमीन तक दिख जाती है और मछलियां भी. करीब घंटे भर में कई जलचर और नभचर यहां दिख गये. सुबह जब जंगल के पास बने अतिथि गृह से चले तो नहर के किनारे भारी धुंध के चलते एक नहीं कई बार रास्ता भटक गये. अचानक एक लकडबग्घा दिखा जो कैमरा देखते ही गाड़ी के पीछे छुप गया. पर तब तक एक फोटो ले ली थी. जंगल में दूसरे दिन की शुरुआत धुंध से हुई. पहले दिन खुली धूप के चलते बहुत कुछ देख लिया गया था. तब दिन में भी कई जानवर दिखे तो शाम के अंधेरे में सड़क पार करते जंगली मुर्गे लगता था कि गाड़ी के नीचे न आ जायें. औरय्या ताल पर पनडुब्बी जल मुर्गाबी समेत कई तरह के परिंदे नजर आये तो आगे बढ़ने पर हिरण के झुंड और बया के घोसले देखने वाले थे.
कतर्नियाघाट वन्य जीव अभ्यारण्य अब बहुत बदल गया है. उत्तर प्रदेश में पर्यटन को लेकर कई बड़ी और नयी पहल हुई है. इस जंगल में भी जिसे पर्यावरण के लिहाज से एक अच्छे सैरगाह के रूप में विकसित कर दिया गया है. इस तरह की व्यवस्था पहले राजस्थान और गुजरात में दिखती थी. आप वेबसाइट पर जाकर जंगल में घूमने का पैकेज ले सकते है. जबकि पहले यह जगह सिर्फ नेताओं अफसरों आदि के लिए थी जो जंगलात विभाग के डाक बंगले में अपने रहने और खानपान की व्यवस्था कर लेते थे. अब आम लोगों के लिए भी यह उपलब्ध है. उत्तर प्रदेश सरकार ने बहुत कुछ बदल दिया है. गेरुआ नदी के किनारे पेड़ पर बना काटेज अद्भुत है जिसपर रुक कर आप जंगली जानवरों को आसानी से देख सकते है. इस प्रकार के ट्री हट आंध प्रदेश से लेकर हिमाचल और मध्य प्रदेश के कुछ जगहों पर नजर आते है. अब इस जंगल के शुरू में ही ककरहा रेंज में सैलानियों के लिए अच्छी व्यवस्था की गयी है. इसी से करीब बारह किलोमीटर दूर जंगल में निशानगाड़ा का वह मशहूर शिकारगाह है जिसे मुग़ल दौर में बनाया गया. इस शिकारगाह में रुकना भी अद्भुत अनुभव देने वाला है. यह बाघ का इलाका है जिसे लेकर चौकीदार ने पहले ही आगाह कर दिया था .दो मंजिला इस भवन में हम उपरी मंजिल पर रुके और रात में कई बार जानवरों की आवाज सुनाई पड़ी. सुबह करीब चार बजे से तरह तरह के परिंदों की आवाज ने सोने नहीं दिया. यह वाकई जंगल है.
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