इलाहाबाद अब उदास करता है !

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इलाहाबाद अब उदास करता है !

सतीश जायसवाल  
''गुनाहों का देवता'' में ''पैलेस सिनेमा'' का उल्लेख मिलता है. वहाँ की बालकनी की पिछली कतार की किन्ही शानदार कुर्सियों में बैठकर चन्दर और सुधा ने एक अंग्रेजी फिल्म देखी थी. उस फिल्म का नाम है ' सेलोमी, व्हेअर शी डाँस्ड.' 
पैलेस सिनेमा के बालकनी की कुर्सियां सचमुच ही शाही और आरामदेह थीं. मैंने कई बार उन कुर्सियों को पहिचाने की कोशिश की जिनमें बैठकर एक उपन्यास के नायक और नायिका ने वह फिल्म देखी थी. यह वह कैशोर्य जिज्ञासा ही थी जिस आरोप में उस समय के एक उपन्यास को ख़ारिज कर दिया गया. अब वहाँ एक बड़ा और आधुनिक ''माल'' बन गया है, जहां किन्हीं भी कोमल स्मृतियों के लिए कोई जगह नहीं हो सकती. 
लेकिन उन कोमल स्मृतियों की नायिका सुधा के साथ, बाद के दिनों में और कई निकटताओं में मेरी मुलाकातें रही हैं. अविभाजित मध्यप्रदेश के शिक्षा विभाग की एक उच्चस्तरीय समिति में उनके साथ एक सदस्य मैं भी था. लेकिन उन्होंने मुझे हर बार बरजा कि मैं उनमें सुधा को नहीं देखूं. उस एक कथा नायिका का कथात्मक अन्त हुआ. और वह दुखद था.     
सिविल लाइन्स की मशहूर चन्द्रलोक बिल्डिंग के एक विंग में ''कहानी'' का दफ्तर हम समकालीन लोगों का अड्डा हुआ करता था. वहाँ सतीश जमाली बैठा करते थे. हम लोग उनको उनकी टेबल से उठाकर नीचे चले आया करते थे. नीचे, लक्ष्मी बुक हॉउस में थोड़ी देर तक पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें देखा करते. फिर सामने, सेन्ट्रल बैंक के सामने वाले किसी ठेले पर आधी-आधी चाय पिया करते. ''कहानी'' के दफ्तर में या वहाँ, चाय के ठेले पर सरदार बलवन्त सिंह, रविन्द्र कालिया, दूधनाथ वगैरह और शायद बाद के दिनों में अब्दुल बिस्मिल्लाह से भी मिलना-जुलना हो जाया करता था.  
ज्ञान रंजन के साथ भी मेरी शुरुआती मुलाकातें सतीश जमाली के इसी समुदाय में हुआ करती रही. बाद में विद्याधर शुक्ल भी वहाँ आने लगे थे. विद्याधर आलोचना पर केंद्रित एक अनियतकालीन पत्रिका --लेखन -- का सम्पादन करते थे. अब नहीं रहे. और उनके बाद, उनके--लेखन-- का क्या हुआ ? कुछ पता नहीं. लेकिन जब तक वो रहे अपने तेज-तर्रार तेवरों के साथ रहे. और खरी-खरी कहने में किसी को भी नहीं बख्शा. 
इलाहाबाद के वो दिन और उन दिनों की यादें.बताने की भी हैं और किन्हीं सुपात्र साझेदारियों में सहेजने की भी हैं. भारतीय रेलवे  के एक अधिकारी तनवीर हसन इन दिनों मेरे संपर्क में हैं. और साहित्य में अपनी जगह तय कर रहे हैं. इस बार तनवीर मेरे साथ थे. और यह अच्छा रहा. किन्हीं पुराने दिनों में जाने के लिए अपने समय का कोई साथ मिल जाये तो उदासियों का डर कम हो जाता है. जहां ''कहानी'' का दफ्तर था, आज वह उन पुराने दिनों की एक ऐसी ही जगह है. इसलिए तनवीर को मैंने अपने साथ ले लिया. हालाँकि मैं उनको नहीं बताऊंगा कि अपने डर से बचने के लिए मैंने उनको अपने साथ लिया.   
श्रीपत राय ''कहानी'' के सम्पादक थे. लेकिन दिल्ली में रहते थे. यहाँ सतीश जमाली ही ''कहानी'' के अंकों की देख-भाल किया करते थे.  आधुनिक चित्रकला में श्रीपत राय का बड़ा नाम था. और ''कहानी'' के प्रत्येक अंक के आवरण पृष्ठ पर उनकी कोई एक चित्रकृति प्रकाशित हुआ करती थी. उनकी पेंटिंग्ज से होने वाली आमदनी का कोई हिस्सा ''कहानी'' के प्रकाशन में लग रहा था. लेकिन ''कहानी'' के उस दफ्तर में हमें सूना सन्नाटा मिला. और नीचे की तरफ लक्ष्मी बुक हॉउस में तोड़-फोड़ हो रही थी. पता नहीं क्यों ? लेकिन वह भी उदास करने वाली ही थी. कोई भी तोड़-फोड़ उदास ही करती है.  
किंग्ज मेडिकल वाली लाइन में एक ''ऑक्शन हॉउस'' था. इन्डियन कॉफी हॉउस के अलावा यह ऑक्शन हॉउस भी एक जगह थी जहाँ डॉ० फिराक गोरखपुरी आया करते थे. और बैठा करते थे. फिराक साहब चेन-स्मोकर थे. और उनका व्यक्तित्व रुतबेदार था. उनकी उँगलियों में एक जलती हुयी सिगरेट फंसी ही रहती थी. सिगरेट पीने का उनका अपना तरीका था. यह तरीका उनके रुतबे के साथ मेल खाता था. और वहाँ, लोग उनका रुतबा माना करते थे. लेकिन, वह ''ऑक्शन हॉउस'' भी शायद अब वहाँ नहीं रहा. या, शायद मैं ही नहीं ढूंढ पाया. सचाई, शायद यह है कि मैं इलाहाबाद ढूंढ रहा था और ढूंढ नहीं पा रहा था. 

''कहानी''  दफ्तर से आगे वाला वह जो चौराहा है, क्रास्थवेट रोड का चौराहा, उसकी दांयी-बांयी वाली लेनों में मेहंदी के बाड़ों और गुलाब की रंगीन क्यारियों वाली छोटी-छोटी लेकिन खूबसूरत कॉटेजें हुआ करती थीं. उन्हीं में से किसी एक में पम्मी रहती होगी जिसका भाई पागल था. और वहां पैलेस सिनेमा में यह पम्मी भी सुधा और चन्दर के साथ थी. एक बार मन किया कि उसकी कॉटेज को ढूंढूं. और वहां जाकर उसे बता दूँ कि अब सुधा नहीं रहीं. लेकिन यहाँ, इलाहाबाद में  मैं तो कुछ ढूंढ ही नहीं पा रहा हूँ. शायद अब पम्मी भी काफी बूढ़ी हो चुकी होगी. पता नहीं उन दिनों की बातें उसे याद भी होंगी या  नहीं ?  पता नहीं, अब वो भी होगी या नहीं.   
ज्ञान रंजन हमारे समय की हिंदी कहानी के एक बड़े प्रवक्ता हैं. अभी थोड़े समय पहले ही, रायपुर में उन्हें मुक्तिबोध सम्मान दिया गया. वापसी में थोड़ी देर के लिए बिलासपुर के रेलवे स्टेशन पर उनसे मुलाक़ात हुयी थी. और हमने इलाहाबाद को उन दिनों में ढूँढ़ने की कोशिश की थी जो साठोत्तरी हिन्दी कहानी का भरोसेमन्द समय था. लेकिन अब वो लोग ही वहाँ नहीं रहे जिनसे उस समय का भरोसा था. रविन्द्र कालिया अब नहीं रहे. सतीश जमाली ने इलाहाबाद छोड़ दिया. दूधनाथ दिखते नहीं. अब एक अपरिचय वहाँ बसता है. और वह उदास करता है. इलाहाबाद अब उदास करता है.अब सतीश जमाली भी नहीं रहे.  कानपुर में, जहाँ वह अपने बेटे के साथै रह रहे थे, उनका देहावसान हो गया.(दिल्ली से प्रकाशित होने वाले पाक्षिक ''शुक्रवार'' के १६-३१ जुलाई २०१६ के अंक में बदले हुए शीर्षक के साथ प्रकाशित -- इलाहाबाद : उदासियों का शहर. )

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