सीमा प्रांत के दौरे पर महात्मा गांधी

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सीमा प्रांत के दौरे पर महात्मा गांधी

प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन 
सन 1939 में जब गांधीजी सीमा प्रांत के दौरे पर गए तो बादशाह ख़ान ने गांधीजी से कहा था : “महात्‍मा जी, हमारे सूबे में पठानों में हिंसा की जहनियत किसी भी और चीज़ से ज्‍़यादा ख़राब है, हिंसा ने हमारी मजबूती, एकता को तहस-नहस कर डाला है. दूसरे सूबों में चाहे जो हो परंतु हमारे सीमा प्रांत के बारे में मेरा पक्‍का यकीन हो गया है कि अहिंसक आंदोलन खुदा द्वारा हमें दिया गया सबसे बड़ा तोहफा है, हमारी कौम को आगे बढ़ने के लिए अहिंसा के अलावा और कोई रास्‍ता नहीं है. हमने अब तक जो बहुत मामूली तौर पर अहिंसा के उसूल पर चलने की कोशिश की उसके कारण जो करिश्‍माई बदलाव आया है उसके तजुर्बे की बिना पर मैं यह कह रहा हूँ.” 

गांधीजी ने उस मौके पर कहा कि मुझे अहिंसा का पैरोकार कहा जाता है, परंतु बादशाह खान ने जो कर दिखाया है, वह अजूबा है. मेरा अहिंसक होना बड़ी बात नहीं, मेरे पास तो लाठी, डंडा भी नहीं परंतु बादशाह के पठानों के हाथ में हमेशा बन्‍दूक का ट्रिगर रहता है इसके बावजूद वे अहिंसक बने हुए हैं, बादशाह मुझसे बड़ा अहिंसक है.   

बादशाह ख़ान खाट पर अधलेटे अखबार पढ़ते हुए 
बादशाह ख़ान के वालिद बेहराम ख़ान अपने सूबे के न केवल बड़े मालदार जमींदार थे, मॉडर्न तालीम की अहमियत को भी बखूबी समझते थे. सीमा प्रांत में अधिकतर लोग अनपढ़ थे, उन्‍होंने उस वक्‍़त अपने बड़े बेटे अब्‍दुल जबार ख़ान को लंदन भेजकर डॉक्‍टरी की सनद हासिल करवायी. बादशाह ख़ान की स्‍कूल की पढ़ाई अँग्रेज़ मिशनरी द्वारा चलाये जा रहे स्‍कूल में पूरी करवाने के बाद इनको भी लंदन में पढ़ाई करवाने का इंतज़ाम कर लिया था. परंतु बादशाह ख़ान की माँ ने इसकी इजाज़त नहीं दी क्‍योंकि उनका एक बेटा तो पहले ही विलायत चला गया था, बादशाह की स्‍कूल की पढ़ाई के बाद उच्‍च शिक्षा के लिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में भेज दिया गया. 

अपने वालिद की तरह सीमांत गांधी भी मॉडर्न एजुकेशन के पक्षधर थे. वे जान गये थे कि पठानों की तरक्‍की तब तक संभव नहीं जब तक वे तालीम हासिल न करें. 
उन्‍होंने 1910 में एक स्‍कूल की स्‍थापना कर दी. परंतु मुल्‍ला लोग मॉडर्न तालीम के खिलाफ़ थे, उन्‍हें लगता था कि यह अंग्रेजों की साजिश है, उसमें इस्‍लाम के खिलाफ़ तालीम मिलेगी, उन्‍होंने फतवा दे दिया कि जो बच्‍चा उस स्‍कूल में पढ़ने जाएगा उसकी सात पुश्‍तें दोजख में जाएंगी. 1915 में उस स्‍कूल को बंद कर दिया गया. परंतु बादशाह ख़ान कहाँ मानने वाले थे, उन्‍होंने 500 गाँवों का दौरा कर लोगों से अपील की कि वे अपने बच्‍चों की रौशन जिंदगी के लिए स्‍कूल ज़रूर भेजें. इस्‍लामिया आज़ाद स्‍कूल के नाम से उन्‍होंने 130 स्‍कूल खोल दिये. 

कथनी और करनी का कोई फ़र्क उनके कार्यों में नहीं था. जिस स्‍कूल को बादशाह ख़ान ने खोला था उसका पहला विद्यार्थी उनका अपना बेटा वली ख़ान था, दसवीं तक की उसकी तालीम गाँव के उसी स्‍कूल में हुई. बादशाह ख़ान जंगे आज़ादी में लगे हुए थे, उन्‍होंने अपने उसूलों को अमलीजामा देना अपने घर से ही शुरू किया. 
इस कारण उनके घरवालों ने कितनी तकलीफ उठायी उसका पता उनके बेटे वली ख़ान ने एक इंटरव्‍यू में बताया था कि उनके अब्‍बा द्वारा परिवार के साथ की गई नाइंसाफी पर शिकवा करने तथा साथ ही साथ सियासी शख्सियत के रूप में जबरदस्‍त फ़ख्र महसूस करने की  मार्मिक दास्‍तान सुनायी है. 
वली ख़ान बताते हैं कि उन्‍हें कौम के गरीब बच्‍चों की फ्रिक तो थी अपने बच्‍चों की नहीं. मैं पाँच वर्ष का था गाँव के स्‍कूल में पढ़ता था, वहीं रहता था क्‍योंकि वालिद जेल में थे, वालिदा थीं ही नहीं. न तो तालीम, न ही घर, न कोई ज़मीन-जायदाद मेरे बाप ने हमें दी, जो घर मेरे दादा ने बनवाया हुआ था उसको भी लड़कियों को तालीम देने के लिए उन्‍होंने स्‍कूल को दे दिया. व‍ली ख़ान बचपन की उन तकलीफों को याद करते हुए यहाँ तक कह गए कि उन्‍हें (बादशाह ख़ान को) शादी ही नहीं करनी चाहिए थी. 

वली ख़ान की बातों में एक तरफ़ जहाँ अब्‍बा के द्वारा कौम के गरीब बच्‍चों, लोगों के लिए सब कुछ देने की दास्‍तान का जिक्र है, वहीं उन्‍हें ‘दरवेश, फ़कीर’ कहते हुए उनकी आँखें नम हो जाती हैं. वली ख़ान अपने वालिद के नक्शेकदम पर चलते हुए जंगे-आज़ादी में तकलीफें उठाते, लंबी जेल यातनाओं को भोगते हैं. 

1929 में ऑल इण्डिया कांग्रेस के लाहौर में हुए इजलास में बादशाह ख़ान की रहनुमाई में 500 से अधिक पठानों के जत्‍थे ने शिरकत की. 1930 में ‘नमक कानून भंग सत्‍याग्रह’ में बादशाह ख़ान की आवाज़ पर सीमा प्रांत के पठानों ने बढ़-चढ़कर हिस्‍सा लिया. सत्‍याग्रह के दौरान निहत्‍थे पठानों पर ब्रिटिश सैनिकों की क्रूरतापूर्ण नरसंहार की कार्रवाई के कारण 250 पठान गोलियों के शिकार हुए तथा घोड़ों से कुचले गये. 

1930 में गांधीजी ने शराब की दुकानों पर धरने देने का प्रोग्राम  घोषित किया. 23 अप्रैल 1930 को पेशावर में बादशाह ख़ान की रहनुमाई में खुदाई खिदमतगारों ने जो बहादुराना कारनामा किया, वह पूरी दुनिया के अहिंसक आंदोलन के इतिहास में एक नायाब नज़ीर थी. 
अँग्रेज़ी हुकूमत ने सुबह-सुबह ही बड़ी तादाद में खुदाई खिदमतगारों को गिरफ्तार कर लिया. उसके बावजूद शराब की दुकानों के सामने धरने का प्रोग्राम शुरू हुआ. डिप्‍टी कमिश्‍नर ने इस प्रोग्राम को खत्‍म करने के लिए फौज बुला ली, इस फौजी दस्‍ते में गढ़वाली सिपाही थे जिसका नेतृत्‍व हवलदार मेजर चंद्रसिंह गढ़वाली कर रहे थे. डिप्‍टी कमिश्‍नर ने गोली चलाने का हुक्‍म दिया, हवलदार मेजर चंद्रसिंह गढ़वाली ने गोली चलाने से इनकार कर दिया तथा कहा कि हम निहत्‍थे लोगों पर गोली नहीं चलाएंगे. इसके बाद अँग्रेज़ फौज बुलायी गयी, उनकी गोलियों से सैकड़ों लोग मारे गये, सैकड़ों घायल हो गये, पेशावर शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया. 

गढ़वाली सैनिकों पर फौजी अदालत में मुकदमा चलाया गया. उनको आजीवन कै़द की सजा हो गयी. मरे हुए लोगों में से कितनों की लाशों को लश्‍करी एबुलेंस के दो ट्रकों में ठूंस-ठूंस कर जंगल में ले जाकर उन पर पेट्रोल डालकर खाक कर दिया गया. सीमा प्रांत के सभी कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और लंबी-लंबी सजा देकर जेलों में बंद कर दिया. बादशाह ख़ान को गिरफ्तार करके जेल में ठूंस दिया गया, तीन साल बाद उनकी रिहाई हुई. रिहाई के बाद उन्‍हें सीमा प्रांत से भी निकाल भी दिया गया. 

कहा जाता है कि जलियाँवाला बाग कांड के बाद यह दूसरा उतना ही भयंकर हत्‍याकांड था. पठान जैसी बहादुर लड़ाकू कौम बादशाह ख़ान के उसूलों के मुताबिक अहिंसक बने रहकर यह सब सह रही थी. 
पठान कौम दोहरी लड़ाई लड़ रही थी, अँग्रेज़ी हुकूमत से भी तथा उसके साथ जुड़ी हुई मुस्लिम लीग से भी. 93 प्रतिशत मुस्लिम अक्सिीरियत वाले सीमा प्रांत में 1937 तथा 1946 के चुनावों में भी खुदाई खिदमतगारों के कारण कांग्रेस ही चुनाव जीत गयी थी. बादशाह ख़ान के भाई डॉ. ख़ान‍साहब अब्‍दुल जब्‍बार ख़ान उसके प्रधानमंत्री बने थे. 

7-8 अगस्‍त 1942 को ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की मुनादी के बाद 27 अक्‍टूबर को बादशाह ख़ाँ खुदाई खिदमतकारों के एक दल के साथ चार चारसद्दा मर्दान की जिला अदालत के सामने धरना देने के लिए निकले. पुलिस ने इन लोगों को बड़ी बेरहमी से लाठियों से पीटना शुरू कर दिया, जिसके कारण बादशाह ख़ाँ की पसलियों की हड्डियां टूट गयीं, उनके कपड़े खून से सन गये, वहाँ से उनको पहले मर्दान जेल तथा बाद में हरिपुर जेल भेज दिया गया. 

1945 के आखि़र में सभी गिरफ्तार लोगों को छोड़ दिया गया था, लेकिन बादशाह ख़ाँ जेल में ही रहे. इस बीच अंग्रेज़ सरकार और मुस्लिम लीग ने मिलकर अनेक स्‍थानों पर हिंदू-मुस्लिम झगड़े कराने की कोशिश की, परंतु वो कामयाब नहीं हो सके क्‍योंकि जहाँ कहीं भी ऐसे झगड़े कराने की कोशिश की जाती वहाँ  खुदाई खिदमतगार पहुँचकर उसे विफल कर देते थे. 

(दूसरी क़िस्त ,जारी )

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