मायावती ने मुसलमानों को ठुकराया

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मायावती ने मुसलमानों को ठुकराया

हिसाम सिद्दीकी 
लखनऊ! उत्तर प्रदेश का असम्बली एलक्शन नजदीक आया तो बीएसपी सुप्रीमो मायावती भी खुलकर अपने असल रंग में आ गयी. पहले खुद उन्होने कहा कि बीजेपी में हाशिए पर पहुंच चुके ब्राहमणों को 2007 की तरह बीएसपी के साथ आ जाना चाहिए ताकि एलक्शन के बाद उन्हें सत्ता का फायदा मिल सके. उन्होने कहा कि सत्ता में ब्राहमणों को मुनासिब हिस्सा बीएसपी में ही मिल सकता है. इसी के साथ मायावती ने एलान कर दिया कि उनकी पार्टी अयोध्या, मथुरा, बनारस और चित्रकूट में ‘ब्राहमण भाई चारा सम्मेलन’ करेगी. इसके दो-तीन दिन बाद ही तेइस जुलाई को उनके जनरल सेक्रेटरी सतीश मिश्रा अयोध्या के देवकाली के एक रिसार्ट में ‘प्रबुद्ध वर्ग विचार गोष्ठी’ नाम से ब्राहमण सम्मेलन करने पहुंच गए. इस जलसे में सतीश मिश्रा ने ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाए. बीएसपी के सत्ता में आते ही तेज रफ्तार से राम मंदिर की तामीर कराने का एलान किया और कहा कि उत्तर प्रदेश में तेइस फीसद दलित और तेरह फीसद ब्राहमण हैं. यही दोनों इकट्ठा हो जाएं तो हमें किसी और की जरूरत नहीं है हम इन्हीं दो की ताकत पर प्रदेश की सत्ता हासिल कर लेंगे. उनका मतलब साफ था कि अब मायावती को मुस्लिम वोटों की जरूरत नहीं है. दस से तेरह फीसद ब्राहमणों के लिए उन्होंने तकरीबन बाइस फीसद मुसलमानों को ठुकरा दिया है. 
मायावती और सतीश मिश्रा दोनों ही बड़ी गलतफहमी में हैं क्योकि उत्तर प्रदेश के तमाम दलित न बीएसपी के साथ हैं और न ही ब्राहमणों की आबादी तेरह फीसद है. कुछ लोगों का अंदाजा है कि उत्तर प्रदेश में ब्राहमणों की आबादी आठ से दस फीसद ही है. अगर दोनों को मिलाकर छत्तीस फीसद मान भी लिया जाए तो भी जो पार्टी छत्तीस फीसद वोटों का टारगेट लेकर एलक्शन मैदान में उतरेगी उसे बमुश्किल तेरह-चौदह फीसद वोट ही मिल सकते हैं. जहां तक दलित वोटों का सवाल है उनमें सिर्फ एक जाटव तबका मायावती के साथ है उसमें भी चन्द्रशेखर आजाद अपनी दावेदारी ठोंक रहे हैं जाटवों के अलावा पासी, धनघड़, वाल्मीकि और खटीक तबके मायावती के साथ न होकर मजबूती के साथ बीजेपी से जुड़े हुए हैं फिर मायावती किन दलितों के भरोसे ब्राहमण वोट लेना चाहती हैं. 
मायावती की सरगर्मियों से जाहिर हो रहा है कि एलक्शन में उनकी पार्टी को जो भी सीटें मिलेंगी समाजवादी पार्टी को सत्ता में आने से रोकने के लिए वह बीजेपी की मदद करेंगी. उन्हें अंदाजा है कि ब्राहमण बीजेपी से नाराज है. इसलिए वह वाया बीएसपी ब्राहमणों को बीजेपी के साथ जोड़ना चाहती हैं. हालांकि मायावती की तरह अगर कोई ब्राहमणों को बेवकूफ समझ कर सियासत करना चाहे तो यह उसकी कम अक्ली है, ब्राहमण हो या कोई दूसरा तबका वह बीएसपी के साथ तभी जा सकता है जब बीएसपी प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ अस्ल हरीफ (प्रतिद्वद्वी) की तरह दिखे और साफ तौर पर यह मैसेज हो कि बीएसपी सौ से ज्यादा सीटों पर बीजेपी को हराने की हालत में नजर आए. ऐसा कुछ तो है नहीं, अभी बीएसपी तो खत्म होती सी दिखाई दे रही है. ऐसे में भला ब्राहमण बीएसपी के साथ क्यों जाने लगा? 
जहां तक मुसलमानों का सवाल है मायावती ने मुसलमानों के वोट तो बराबर लिए पिछली लोक सभा के एलक्शन में उनकी पार्टी जिन दस सीटां पर चुनाव जीती उन सभी सीटों पर मुस्लिम आबादी, दूसरी बिरादरियों से कहीं ज्यादा है. इसके बावजूद मायावती ने मुसलमानों पर कभी भरोसा नहीं किया. आज उनकी पार्टी में एक भी ऐसा मुसलमान नहीं है जिसकी सियासी हैसियत किसी एक जिले भर की हो. 1994 में मुलायम सिंह यादव के साथ एलक्शन लड़कर प्रदेश की सत्ता हासिल करने के बाद कांशीराम देश के दौरे पर निकल गए. प्रदेश में सत्ता से तालमेल के लिए उन्होने मायावती को इंचार्ज बना दिया था. उसी दौरान बीएसपी कोटे से वजीर तालीम बने डाक्टर मसूद के साथ मायावती का जबरदस्त झगड़ा हो गया था. डाक्टर मसूद का इल्जाम था कि मायावती रोज उनसे लाखों रूपए मांगती हैं वह पैसा कहां से लाकर दें. दोनों के दरम्यान टकराव इतना तूल पकड़ गया कि मायावती ने मुलायम सिंह पर दबाव डालकर न सिर्फ डाकटर मसूद के बर्खास्त करा दिया बल्कि रातों-रात उनका सामान फेंकवा कर सरकारी मकान भी खाली करवा लिया था. इस वाक्ए के बाद से मायावती ने कभी मुसलमानों पर भरोसा नहीं किया इसके बावजूद कि 2007 में प्रदेश के मुसलमानों ने मायावती को वोट देकर बीएसपी को मुकम्मल अक्सरियत दिलाई थी. मायावती मुसलमानों के वोट तो लेती हैं लेकिन जब सत्ता में आती हैं तो उन्हें सत्ता में हिस्सेदार नहीं बनाती न उन्हें आबादी के एतबार से सत्ता में हिस्सा देती हैं. 
2007 में मायावती ने उत्तर प्रदेश असम्बली की दो सौ नौ सीटें जीती थी, उस वक्त भी उन्होने छियासी ब्राहमणों को टिकट दिए थे जिनमें आधे से कम यानी इक्तालीस ही जीत पाए थे. इस वक्त प्रदेश असम्बली में ब्राहमण मेम्बरान की तादाद छप्पन है. जिनमें से चौवालीस बीजेपी के हैं. इतनी बड़ी तादाद होने के बावजूद बीजेपी में ब्राहमणों की कोई खास सियासी हैसियत नहीं है. एक डिप्टी चीफ मिनिस्टर डाक्टर दिनेश शर्मा को बनाया गया जो एमएलसी हैं लेकिन अवाम के वोट से जीत कर आने वाले किसी ब्राहमण को वजारत में भी कोई खास अहमियत नहीं दी गई. 1989 में ब्राहमण वोटर कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में गए थे आज तक वह भटक ही रहे हैं. क्योकि 1989 के बाद से ही उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बीजेपी का कोई ब्राहमण लीडर वजीर-ए-आला नहीं बन पाया है. इसके बावजूद अभी भी बेश्तर (अधिकांश) ब्राहमण बीजेपी के साथ हैं. 
अब देखना यह है कि मायावती और सतीश मिश्रा ने बहुजन और जय भीम छोड़कर ‘सर्वजन’ और ‘जय श्रीराम’ को पकड़ा है तो असम्बली एलक्शन में मायावती की पार्टी सतीश मिश्रा को राज्य सभा पहुचाने के लिए मेम्बरान असम्बली की जितनी तादाद की जरूरत होती है उतने मेम्बर जीत कर आते भी हैं या सतीश मिश्रा की राज्य सभा की मौजूदा मेम्बरी फिलहाल आखिरी मेम्बरी साबित होती है. मायावती को यह बात जरूर याद रखनी चाहिए कि मुसलमानों को ठुकराने के बाद वह शायद ही इतने एमएलए जितवा सके जिनकी ताकत पर वह खुद या सतीश मिश्रा राज्य सभा पहुच सके.जदीद मरकज़

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