फ़िराक़ और प्रेमचंद की दोस्ती

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फ़िराक़ और प्रेमचंद की दोस्ती

डा शारिक़ अहमद ख़ान 
मुंशी प्रेमचंद,तांगे से हवाख़ोरी और ग़म की मूरत औरत.आज से सौ बरस पहले की बात होगी.गोरखपुर में रघुपति सहाय ' फ़िराक़ गोरखपुरी ' और मुंशी प्रेमचंद को एक दूसरे की शब-ओ-सुब्ह-ओ-शाम की क़ुर्बत हासिल थी.उस वक़्त फ़िराक़ सिर्फ़ रघुपति सहाय हुआ करते थे.आज हम फ़िराक़ साहब के निवास लक्ष्मी भवन पर प्रेमचंद,फ़िराक़ और मजनूँ गोरखपुरी की एक बैठकी का ज़िक्र करते हैं.उसके बयान से पहले फ़िराक़ और प्रेमचंद की दोस्ती पर कुछ रोशनी डालना हम मुनासिब समझते हैं.प्रेमचंद के एक यहाँ एक उर्दू की पत्रिका आया करती थी,जिसमें अक्सर लेखक नासिर अली 'फ़िराक़ ' का नाम शाया होता.रघुपति सहाय को ये नाम 'फ़िराक़' पसंद आया और उन्होंने इसे अपना तख़ल्लुस बना लिया.रघुपति सहाय अब रघुपति सहाय ' फ़िराक़ गोरखपुरी ' हो गए.शायर हो गए और धूम मचा दी.मुंशी प्रेमचंद से फ़िराक़ की दोस्ती पुरानी थी.फ़िराक़ पीसीएस में चयनित हुए फिर आईसीएस हो गए. 
फिर महात्मा गांधी की पुकार पर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया.जेल भेज दिए गए.जेल से फ़िराक़ साहब ने हिंदी अख़बारों और रिसालों में छपने के लिए अपने लेख मुंशी प्रेमचंद को भेजे.वजह कि उर्दू अख़बार और रिसाले मुआवज़ा नहीं देते थे.मुफ़्त में लेख छापा करते.मुंशी प्रेमचंद ने फ़िराक़ के लेखों को हिंदी अख़बारों और रिसालों में छपवा दिया.इन लेखों से आमदनी हुई तो फ़िराक़ जेल में सिगरेट जैसे छोटे-मोटे ख़र्च चला लिया करते थे.जब फ़िराक़ आज़ादी की जंग  लड़ने की वजह से जेल में बंद रहे तो मुंशी प्रेमचंद ने फ़िराक़ की इस तरह से मदद की.ख़ैर,अब हम सीधे फ़िराक़ के यहाँ गुज़रे मुंशी जी के एक दिन की बात करते हैं.ये क़रीब सौ बरस पहले का एक ख़ूबसूरत दिन था.फ़िराक़ साहब के यहाँ उर्दू आलोचक मजनूँ गोरखपुरी और मुंशी प्रेमचंद तशरीफ़ रखते थे.चर्चा का दौर जारी था.नोक-झोंक भी चल रही थी.सियासत पर भी चर्चा हो रही थी और ज़िक्र-ए-बदहाली-ए-हिंद भी था.ग़ुलामी की ज़जीरें कैसे तोड़ी जाएं इसके लिए किसी ख़ास दर्शन को अपनाने की बात भी हो रही थी.यूँ तो मुंशी प्रेमचंद को मज़दूरों और किसानों की शायरी में कम दिलचस्पी थी लेकिन सबकी नज़र में समाजवादी दर्शन आज़ाद हिंद के लिए जंच रहा था.प्रेमचंद को डिकेंस पसंद थे और फ़िराक़ ' अंकल टॉमस केबिन ' और हैरियट बीचर का ज़िक्र कर रहे थे.प्रेमचंद ने कहा कि डिकेंस की साहित्य में वो हैसियत है कि सूखे पेड़ को भी छू लें तो हरा हो जाता है,जंगल हो जाता है,ख़ुशरंग फलों-फूलों से लद जाता है और परिंदों का बसेरा हो जाता है.मजनूँ गोरखपुरी इकबाल की आलोचना कर रहे थे और फ़िरदौसी की बातें कर रहे थे. 
प्रेमचंद ने पूछा कि कॉक एंड बुल स्टोरी की शुरूआत कहाँ से हुई.फ़िराक़ साहब ने कहा कि बकिंघम शायर से जहाँ स्टोनी स्टेट फ़ोर्डस् हाई स्ट्रीट में काक और बुल नाम की दो पुरानी सरायें थीं.वहीं से कॉक एंड बुल स्टोरी की दागबेल पड़ी.मुंशी प्रेमचंद ने कहा कि रघुपति के पास बैठकर नायाब जानकारियाँ हासिल होती हैं.फ़िराक़ कहते कि यूँ तो मुंशी प्रेमचंद मेरे पिता की उम्र के नहीं थे लेकिन पिता के गुज़रने के बाद मुझे दिमाग़ी ख़ुराक देने में मुंशी जी का बहुत योगदान है.वो मेरे लिए फ़ादर्ली फिगर जैसे ही थे.मुझसे गीता के कई हिस्सों का अनुवाद नज़्म के तौर पर करवाया और वो भी छपवा दिया.मुझे फ़िराक़ के रूप में स्थापित करने में मुंशी प्रेमचंद का बहुत बड़ा योगदान है.लेकिन मैं उनसे कहा करता कि आपकी चेतना कुछ लिजलिजी है और आप देहाती किस्म के इंसान हैं.मुंशी प्रेमचंद बहुत ज़ोर-ज़ोर से और ठहाका मारकर हंसते.ख़ैर,अब फिर फ़िराक़ की उस बैठक में चलते हैं जहाँ प्रेमचंद -फ़िराक़ और मजनूँ की तिकड़ी जमा है. 
प्रेमचंद ने कहा कि कुछ भूख सी लग आई है.गोरखपुर में उन दिनों हालसीगंज चिड़ियों और मछली की बहुत अच्छी बाज़ार हुआ करती थी.वहीं से बटेर आई,लालसर चिड़िया लायी गई,उम्दा किस्म की मछली आई और पकाई गई.भिंडी की सब्ज़ी,कबाब ख़ुश्का चावल और पुलाव पका.केलनर के यहाँ से जिन और लेमनेड वग़ैरह आ गई.कबाब के साथ जिन पी गई और बटेर-लालसर-मछली वग़ैरह नोश फ़रमाई गई.फ़िराक़ गावतकिए के सहारे अधलेटे हुए जिन पी रहे थे और उनके पैराडॉक्सिकल बयानात जारी थे.मजनूँ को कबाब बहुत पसंद आए और प्रेमचंद तो हर चीज़ की तारीफ़ करते रहे.फ़िराक़ बाग़-बाग़ हो गए.फ़िराक़ ने मुंशी प्रेमचंद से पूछा कि आपने कभी मोहब्बत की है.प्रेमचंद  ने कहा कि एक घास काटने वाली से मोहब्बत थी लेकिन इज़हार नहीं कर पाया.वो हमारे यहाँ घास काटने आती थी.मैं उससे बस यही बता पाया कि यहाँ भी हरी घास है,वहाँ भी है.ये सुन वो हरी घास काट लेती.बहरहाल,थोड़े आराम के बाद उम्दा किस्म के जाफरान और किवाम की तंबाकू वाला हुक्का जगाया गया.फिर इलाही तांगे वाले का इक्का आया.फ़िराक़ ने इक्के पर सवार होते ही कहा कि इस घोड़ी की पीठ पर पड़ा एक भी हंटर मेरी पीठ पर पड़ा हंटर होगा.घोड़ी को चाबुक ना मारा जाए.इशारे से चलाया जाए.इलाही तांगेवाले ने कहा कि ऐसा ही होगा.तांगे पर प्रेमचंद-फ़िराक़ और मजनूँ सवार थे.सैर करते हुए एक जगह सबने देखा कि एक बेहद ख़ूबसूरत और जवान औरत एक आम के दरख़्त की डाल पकड़े खड़ी है और दुख की मूरत बनी है.ना जाने किस ख़्याल में डूबी है और ग़मज़दा मालूम देती है.फ़िराक़ ने इलाही तांगेवाले से बस इतना ही कहा कि 'भई इक्का घुमाकर वापस ले चलो'.रास्ते भर फ़िराक़-प्रेमचंद और मजनूँ ख़ामोश रहे.सबके दिलों में दर्द की हूक सी उठ रही थी.शाम गहरा गई और ग़म बढ़ता ही चला गया.सब यही सोचते रहे कि आख़िर क्या ग़म होगा उस ख़ूबसूरत औरत को.शायद ग़रीबी,या कोई मनहूस घटना,चूल्हे में आग का ना होना,शौहर की बीमारी और पैसे का ना होना,ना जाने क्या-क्या सोचते हुए सब तांगे पर हिचकोले खाते रहे.पूरा सफ़र सांय-सांय करने लगा.तभी आसमान में स्याही उभर आयी.सब तांगे से उतरे.कोई किसी से एक शब्द नहीं बोला.प्रेमचंद अपनी राह गए.मजनूँ ने अपनी राह पकड़ी.फ़िराक़ ने तांगे वाले इलाही से बस इतना कहा कि  'जाओ भई तुम भी जाओ '.फ़िराक़ लक्ष्मी भवन में वापस आ गए.जैसे त्योहार के बाद शाम सूनी और उदास होती है,वैसी कैफ़ियत माहौल पर तारी हो गई.जबकि अभी दिन में ही तो प्रेमचंद की मौजूदगी में बज़्मे-तरब की महफ़िल ने रंग जमाया था. 
लखनऊ के एक तांगे की तस्वीर मेरे कैमरे से.

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