टोक्यो ओलंपिक में गूंजी प्रतिरोध की आवाज

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टोक्यो ओलंपिक में गूंजी प्रतिरोध की आवाज

फ़ज़ल इमाम मल्लिक 
पीवी सिंधू और लवलीन बोरगोहाईं के ओलंपिक में पदक जीतने के बाद भारत में जिस वक्त गुगुल पर उनकी जाति तलाशी जा रही थी, तो ठीक उसी समय टोक्यो ओलंपिक में नस्लीय भेदभाव के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज गूंजी. इस आवाज ने ओलंपिक आयोजन समिति के आयोजकों को सकते में डाल दिया. प्रतिरोध की आवाज शॉटपुट की खिलाड़ी रेवेन सॉन्डर्ज ने उठाई. उन्होंने आवाज उठाने के लिए नायाब तरीका ढूंढा. रेवेन की उम्र महज 25 साल की है. ओलंपिक में उन्होंने रजत पदक जीता था. पोडियम पर वे पदक लेने के लिए खड़ी हुईं. उन्हें मानो इसी पल का इंतजार था. आवाज उठाने का इससे बेहतर मौका उन्हें नहीं मिलता और फिर उन्होंने वह किया जिसकी उम्मीद न तो ओलंपिक समिति को थी न ही उनके देश को. वे पदक लेने पोडियम पर आईं. अपनी दोनों बाहें ऊपर उठाईं और कलाइयों को जोड़कर हवा में एक निशान बनाया. यह प्रतीक था नस्लीय भेदभाव के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज का. हालांकि उन्हें इसकी सजा मिल सकती है. 

ओलंपिक में पहली अगस्त को शाटपुट का मुकाबला था. रेवेन ने रजत पदक जीता था. पदक लेने के लिए रेवेन पहुंचीं. पद लिया और फिर पोडियम पर खड़े-खड़े रेवेन ने अपने दोनों हाथ हवा में उठाए और कलाइयों को जोड़कर क्रॉस का निशान बनाया. और इस तरह रेवेन ओलिंपिक में पोडियम प्रोटेस्ट करने वाली पहली खिलाड़ी बन गईं. 

सवाल यह है कि रेवेन ने यह प्रतीकात्मक विरोध क्यों किया. रेवेन अमेरिकी हैं. अश्वेत हैं. समलैंगिक हैं. अश्वेत और समलैंगिक, दोनों ही सताए हुए वर्ग हैं. रेवेन कहती हैं कि उन्होंने जो क्रॉस बनाया वह एक इंटरसेक्शन है. एक ऐसा चौराहा, जहां दबे-कुचले और उपेक्षित लोग एक-दूसरे से मिलते हैं. 

वैसे यह पहला मौका नहीं है जब रेवेन की चर्चा हो रही है.  दरअसल रेवेन हल्क के चेहरे वाला एक ख़ास तरह का मास्क पहनने की वजह से भी खासा चर्चित हैं. इसके अलावा रेवेन अपने हेयर स्टाइल के लिए भी जानी जातीं हैं. उनके आधे बाल हरे और आधे बैंगनी रंग के हैं. वे कहती हैं कि ये चीजें मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा हैं और मैं इसके जरिये खुद को अभिव्यक्त करती हूं. अपनी अश्वेत और समलैंगिक पहचान को इस तरह से वे जग-जाहिर करती हैं और लुत्फ लेती हैं. 

वे मानसिक स्वास्थ्य पर लोगों को जागरूक भी करती हैं. उनका मानना है कि खिलाड़ियों से अच्छे प्रदर्शन व पदक जीतने की उम्मीद होती हैं. कई बार अपेक्षाओं का बोझ मानसिक तौर पर इंसान को पस्त कर देता है. उसे अवसाद से भर देता है. रेवेन कहती हैं कि 2018 में वे इतने अवसाद में थीं कि आत्महत्या करने की सोचती थीं. लेकिन फिर उन्होंने थेरेपिस्ट की मदद ली. इससे उन्हें अपनी पहचान को स्थापित करने और अपने जीवन को देखने के नजरिया में बदलाव में मदद मिली. इसीलिए रेवेन अब मेंटल हेल्थ पर खूब जोर देती हैं. 

इन्हीं मुद्दों पर अपना रुख साफ करते हुए रेवेन ने पोडियम पर क्रॉस बनाया. इस क्रॉस का मकसद बताते हुए उन्होंने कहा कि यह अश्वेत व समलैंगिक समुदाय के लिए है. रेवेन ने कहा कि वे लोगों में उम्मीद बांटना चाहती हैं. गरीबी और कई तरह के उतार-चढ़ाव के बाद उन्होंने ओलिंपिक में पदक जीता है. यहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने कइयों से प्रेरणा ली. वे चाहती हैं कि कोई उनकी यात्रा से भी प्रेरणा ले. रेवेन ने कहा कि मैं जानती हूं कि मैं कई लोगों को प्रेरित कर सकती हूं. छोटी बच्चियों, लड़कियों, लड़कों, समलैंगिक लोगों, आत्महत्या और अवसाद से जूझ रहे लोगों में से बहुतों को मैं प्रेरित कर सकती हूं. रेवेन की बातें गलत नहीं हैं. उन्होंने बेहद ज़रूरी मुद्दे उठाए हैं. लेकिन इसके बावजूद उनके खिलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई हो सकती है. उन्हें सज़ा दी जा सकती है. क्योंकि ओलंपिक के नियमों के मुताबिक इस तरह का प्रतिरोध अपराध है. ओलिंपिक समिति का कहना है कि वह एक गैरराजनैतिक संस्था हैं. उसका काम है, दुनिया के देशों को एक-दूसरे के साथ लाना. खेल और खेल भावना का जश्न मनाना. इसी आधार पर आईओसी चार्टर की नियम संख्या 50 में प्रोपैगंडा पर प्रतिबंध की बात कही गई है. ओलिंपिक की साइटों, आयोजन स्थलों या ओलोंपिक आयोजन से जुड़ी किसी जगह पर किसी भी तरह के प्रदर्शन की अनुमति नहीं है. इस नियम के आधार पर ओलिंपिक समिति आयोजन स्थलों पर किसी भी तरह के प्रतिरोध की इजाज़त नहीं देती.  

हालांकि बहुत सारे लोग इससे सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि कोई खिलाड़ी ओलंपिक में किसी अन्याय या कुप्रथा का सांकेतिक विरोध शांतिपूर्ण तरीके से दुनिया के सामने रखना चाहे, तो इसमें कोई बुराई नहीं है. खास कर काले-गोरों के भेदभाव को लेकर तो आवाज उठनी ही चाहिए. नस्लीय भेदभाव का विरोध, लैंगिक समानता का समर्थन और समलैंगिक अधिकारों के प्रति एकजुटता जैसे ज़रूरी मुद्दों के सामने रखे जाने में आपत्ति कैसी, जब दुनिया का एक बड़ा तबका आज भी इस भेदभाव का शिकार है. कोई एथलीट सबसे बड़े अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजन के पटल से इन मुद्दों के प्रति जागरूकता फैलाना चाहता हो, तो आईओसी को इसकी इजाजत देनी चाहिए. 

कई खिलाड़ियों ने कई बार इन नियमों को तोड़ा भी है. यह नियम और भी कई मुकाबलों में लागू है. लेकिन बीते कुछ सालों में इस नियम की सार्थकता पर सवाल उठ रहे हैं. दो साल पहले 2019 के पैन-अमेरिकन खेलों में अमेरिकी खिलाड़ी ग्वैन बैरी ने इस नियम की अनदेखी करते हुए प्रतिरोध में मुट्ठी भींची और हवा में उठाई. कुछ और खिलाड़ी अश्वेत अधिकारों के समर्थन में घुटने के बल बैठ गए. अमेरिकी ओलिंपिक ऐंड पैरालिंपिक कमिटी ने इन खिलाड़ियों को सजा दी और इन पर साल भर के लिए खेलने पर पाबंदी लगा दी. लेकिन 2020 में अमेरिका में जॉर्ज फ्लॉइड की हत्या हुई. इस घटना ने अश्वेत अधिकारों को आंदोलन में बदल डाला. अश्वेतों के साथ होने वाले भेदभाव और हिंसा के खिलाफ़ आवाज़ उठाना ज़रूरत बन गई. इन हालात में खेल आयोजनों में खिलाड़ियों के किए जाने वाले प्रतिरोध पर भी राय बदली. 

अमेरिकी ओलिंपिक ऐंड पैरालिंपिक कमिटी ने कहा कि वह अब प्रतिरोध करने वाले एथलीटों पर कार्रवाई नहीं करेगी. इसके बाद ओलंपिक समिति पर भी नियम 50 को खत्म करने का दबाव बना. ओलंपिक समिति ने इसके लिए एक सर्वे करवाया. सर्वे के दौरान 3,547 ओलिंपियनों और खिलाड़ियों से उनकी राय पूछी गई थी. इनमें 67 फीसद लोगों ने कहा कि पोडियम किसी भी तरह के विरोध प्रदर्शन के लिए उपयुक्त जगह नहीं है. इसी सर्वे के आधार पर ओलंपिक समिति ने अपने नियम को बनाए रखा. हालांकि इस सर्वे पर भी बहुत सवाल उठे. आलोचकों के मुताबिक सर्वे में चौदह फीसद लोग तो चीन के थे. चीन तो कतई नहीं चाहेगा कि इस तरह के अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में किसी तरह का प्रतिरोध हो. क्योंकि उसके खिलाफ़ विरोध करने की तो कई वजहें हैं.  

यूरोपियन यूनियन के एथलीटों ने भी आईओसी के इस सर्वे की आलोचना की. उनका कहना था कि अभिव्यक्ति की आज़ादी मानवाधिकार का मसला है और एथलीटों से प्रतिरोध का अधिकार छीन कर आईओसी मानवाधिकार का उल्लंघन कर रहा है. लेकिन ओलंपिक समिति ने इन आलोचनाओं को तवज्जो नहीं दी लेकिन उसने यह फैसला ज़रूर किया कि प्रतियोगिता की शुरुआत के पहले खिलाड़ी थोड़ा-बहुत प्रतिरोध कर सकते हैं. समिति ने यह भी कहा कि खिलाड़ी चाहें, तो प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपनी बात, अपना नज़रिया सामने रख सकते हैं. लेकिन पोडियम पर किसी भी तरह के प्रतिरोध की इजाजत नहीं दी गई. 

समिति के नियम काफी पुराने हैं और उनसे भी पुराना है प्रतिरोध का इतिहास. एथेंस में हुए 1906 के पहले ओलिंपिक में हिस्सा ले रहे आयरिश एथलीट पीटर ओकॉनर को ब्रिटिश झंडे तले भागीदारी करनी पड़ी थी. तब आयरलैंड के ब्रिटेन से आज़ाद होने की मुहिम शुरू हो चुकी थी. तब पीटर ने अपने देश के प्रति अपना समर्थन दिखाया था. पीटर ने ओलंपिक में फ्लैग पोस्ट पर चढ़ कर आयरलैंड का झंडा लहराया था. फिर ओलंपिक में टॉमी स्मिथ और जॉन कार्लोस के प्रतिरोध की कहानी तो हर एथलीट जानता है. ओलंपिक समिति अब नियमों का हवाला देकर रेवेन सॉन्डर्ज़ पर कार्रवाई कर सकता है. कार्रवाई क्या और कैसी होगी इसे लेकर एथलीटों में चर्चा है लेकिन रेवेन को कोई अफसोस नहीं है. उन्हें दुनिया भर में अपनी बात पहुंचानी थी और उन्होंने ऐसा कर दिखाया. 
 

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