बरसात में उडुपी के रास्ते पर

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बरसात में उडुपी के रास्ते पर

शंभूनाथ शुक्ल 

यह अकेला हिंदुस्तान ही है, जहां ट्रेन के सफ़र में हम एक-दूसरे के इतना करीब आ जाते हैं, कि संकोच-संकोच में ही अगले के बारे में सब कुछ जान जाते हैं. दो जुलाई को जब हम त्रिवेंद्रम राजधानी से उडुपी जा रहे थे, तब हमारे केबिन में एक मुस्लिम जोड़ा आ गया. वे लोग सउदी अरब से आ रहे थे. पति दुबला-पतला और उसके चेहरे पर दाढ़ी थी. जबकि बीवी ख़ूब खाते-पीते घर की लग रही थी, पर उसने अपने बदन पर बुरक़ा इस तरह से लपेट रखा था, कि बस उसकी दो सजल आँखें ही दिख रही थीं. उनका दो बर्थ वाला कूपा दूसरा था, लेकिन वहाँ कोई और सवारी सो रही थी, अत: वे हमारे चार बर्थ वाले कूपे में आ गए. हमारे यहाँ दो बर्थ ख़ाली थीं. उस बुरक़े वाली स्त्री ने बताया कि उसके अपने कूपे में लेटे मियाँ-बीवी ने कहा है, कि वे लोग कोटा उतर जाएँगे, इसलिए वह इधर आ गई. वह स्त्री मेरी बर्थ पर मेरे बग़ल में बैठी थी, पति हमारे मित्र अनिल माहेश्वरी की बर्थ पर. स्त्री की गोद में एक साल का प्यारा-सा बच्चा था. कुछ देर की हिचक के बाद उन्होंने हमसे पूछा, कि कहाँ जा रहे हैं? हमारे उडुपी बताने पर वे ख़ुश हुए और कहा कि हम उडुपी के अगले स्टेशन मंगलौर उतरेंगे. मैने पूछा कहाँ के रहने वाले हैं? बीवी ने बताया कि मैं मंगलोरियन हूँ और ये चेन्नई के. फिर तो उसने बातचीत का ज़रिया ही खोल दिया. बताने लगी, कि मेरी तीन बहनें हैं. जबकि ये दो भाई. जेठ सरकारी नौकरी में हैं और जेठानी कॉलेज में पढ़ाती है. वे सब चेन्नई में रहते हैं. अपने बारे में बताया कि हम उडुपी के करीब कुंडापुर के हैं. उसने भले बुरक़ा पहन रखा हो पर मुझसे बात करने में उसे झिझक नहीं थी. उसके अंदर आत्म विश्वास भी ख़ूब था. उसकी हिंदी बोली में दक्षिणात्य पुट था और वह ख़ूब बातूनी थी. जबकि पति चुप्पा और घुन्ना-सा लगा. मैने पूछा कि तुम कितने साल से सऊदी में हो? बोली- तीन साल से. तुम्हें तो सऊदी बोली यानि कि अरबी आती होगी? मैने अगला सवाल किया. उसने कहा कि थोड़ी-थोड़ी समझ लेती हूँ. फिर सीखी क्यों नहीं? मैने पूछा, तो उसका जवाब था कि मुझे हिंदुस्तानी बोली और हिंदुस्तान पसंद है. मैं अरबी सीखूँगी भी नहीं. उसने बताया कि सऊदी में बुरक़ा अनिवार्य है और वहाँ औरतें अकेले घर से नहीं निकल सकतीं. मैने कहा कि इस तरह का बुरक़ा पहनना वहीं सीखा? बोली नहीं, हमारे अब्बू बुरक़े के पाबंद हैं. जबकि ससुराल में न सास पहने न जेठानी. इतना कहते हुए उसने चेहरे से नक़ाब उतार दिया. गेहुँआ रंग और सुतवाँ नाक. वह सुंदर महिला थी.

नक़ाब उतारने के बाद उसने बताया कि उसका नाम रूबीन है. पति का नाम अब्दुल्लाह. जो एक साल का बच्चा उसकी गोद में था, उसका नाम उसके पति ने फ़ातिमा रखा है, लेकिन रूबीन ने उसमें अयान और जोड़ा है. रूबीन ने बताया कि आगे चलकर बच्ची जब माँ से पूछेगी, कि ममा तुमने मेरा यह कितना पिछड़ा नाम ‘फातिमा’ क्यों रखा है? तो वह क्या जवाब देगी? इसीलिए उसने यह आधुनिक नाम अयान रखा है. यह नाम पढ़े-लिखे मुस्लिम भी रखते हैं, हिंदू भी और ईसाई भी. फिर उसने पूछा, कि आप लोगों के नाम क्या हैं? मेरा नाम सुनकर वह बोली, कि हमारी तरफ़ जो शिनॉय होते हैं, वही यूपी में शुक्ला हो गए! उसकी यह व्याख्या अच्छी लगी. 

“आप लोग अपनी बीवियों को लेकर क्यों नहीं आए?” उसने धमाकेदार सवाल किया. उसे यह समझाने में काफी दिक्कत हुई, कि हम लोग अपनी बीवियों को लेकर क्यों नहीं आए. उसने यह भी पूछा कि हमारे कितने बच्चे हैं? मैने बताया कि तीन बेटियाँ हैं. और उनके भी बच्चे हैं. बड़ी बेटी के एक बेटा और एक बेटी तथा छोटी के भी बेटी-बेटा. मंझली के एक बेटा है. कितने में पढ़ते हैं, कैसे लगते हैं? क्या फोटो लाए हैं? आदि तमाम जिज्ञासाएँ उसने जताईं. अनिल जी से भी उसने यही सब सवाल किए. उसके पास बातों की कमी नहीं थी. तब तक कोटा आ गया और वे दोनों पति-पत्नी अपने ‘जी’ केबिन में चले गए और ‘एफ’ में हम अकेले रह गए. लेकिन जाते-जाते वह कह गई, कि जब भी आप लोग बोर हों, हमारे केबिन में आ जाइएगा. और मैं बोर हुई तो आप लोगों के पास आ जाऊँगी.

शाम को वह बच्ची को लेकर आई. अब वह बुरक़ा नहीं पहने थी. उसने साड़ी पहन रखी थी, एकदम कर्नाटकी अंदाज में. बोली- पसंद तो मुझे साड़ी ही है. लेकिन बुरक़ा पहनना ही पड़ता है. उसने कहा कि आप लोगों की तरफ़ अच्छा है. वहाँ मुसलमान औरतों पर बुरक़े की पाबंदी नहीं है. जो मन आए पहनो. मगर हमारे साउथ में इतना खुलापन नहीं है. मैने कहा कि नार्थ इंडिया में 99 प्रतिशत मुसलमान पहले हिंदू थे, बाद में वे कन्वर्ट होकर मुसलमान बने हैं. इसलिए पहरावे, रीति-रिवाज और जाति-बिरादरी में वे हिंदू जैसे ही हैं. मैने उसे बताया कि नार्थ में मुस्लिम परिवार शादी के पहले बिरादरी देखते हैं, फिर कुछ तो कुंडली मिलान भी करते हैं. तो उसने कहा, कि वे इस्लाम के सच्चे बंदे नहीं हो सकते. फिर वह चली गई.

कोटा के बाद हमारी त्रिवेन्द्रम एक्सप्रेस ट्रेन वडोदरा आकर रुकी. रात पौने 11 बज़ रहे थे, लेकिन फेसबुक की दोस्ती ज्यादा दमदार होती है. वडोदरा स्टेशन पर श्री अनिल तिवारी हमारा इंतज़ार कर रहे थे. जैसे ही हमारी ट्रेन रुकी, वे कई पैकेट गुजराती नमकीन के तथा खूब घोंटे गए खोये के पेड़े लेकर हमारे केबिन में आ गए. ट्रेन दस मिनट तक वहाँ रुकती है, तब तक वे हमारे साथ ही रहे. अगले रोज़ सुबह नाश्ते के बाद रूबीन अपनी बच्ची फातिमा अयान को लेकर हमारे केबिन में आई. आज उसने बुरका तो पहन रखा था, लेकिन चेहरा और सिर खुला हुआ था. उसने बताया, कि उसके कूपे में चूंकि हम दो लोग ही हैं, इसलिए यह भी कब तक अपनी ममा और डैडी का चेहरा देखे! इसलिए रात भर ये रोती रही. मैं इसके डैडी के पाँव दबाने लगी, तो इसने रोना शुरू कर दिया. हमने बच्ची को पेड़े खिलाए और उसे भी दिए. पेड़े खाकर बच्ची भी हमसे परक गई. और वह हमारी गोद में आ गई. रूबीन को भी पेड़े खूब स्वादिष्ट लगे, और दो पेड़े वह अपने पति के लिए भी ले गई. वह सऊदी अरब के बारे में चाव से बताती रही. उसने हमसे कहा, कि आप लोग वहाँ आइएगा, लेकिन बिजिनेस वीज़ा लेकर ही. क्योंकि वहाँ टूरिस्ट वीज़ा बहुत मुश्किल से मिलता है. वहाँ तो सिर्फ हज करने वाले जा सकते हैं. 

मैंने पूछा कि यह बच्ची तो सऊदी में पैदा हुई होगी? बोली- नहीं, जब यह होने वाली थी, तब मैं हिंदुस्तान आ गई थी. डिलीवरी मायके में हुई. यूं भी मैं नहीं चाहती कि हमारी बेटी सऊदी की औलाद कहलाए. उसने यह भी बताया कि वैसे वहाँ पर अगर हम करीब एक करोड़ रूपये दे दें तो हमें सऊदी का ग्रीन कार्ड मिल सकता है. पर हम लेंगे नहीं, क्योंकि इतना रुपया दें, फिर वहाँ की नागरिक सुविधाएं हम हासिल नहीं कर सकते. सऊदी कोई अच्छा मुल्क नहीं है. बहुत भेद-भाव होता है, हमारे साथ. मगर पेट के वास्ते वहाँ पड़े हैं. जहां न तो लोग अपने, न धरती अपनी और न ही समान व्यवहार. अलबत्ता पाकिस्तानियों की बात अलग है, उनके मुल्क में कोई काम नहीं है, इसलिए वे किसी भी हालत में रह लेते हैं. वहाँ औरतें अकेले घर से निकाल नहीं सकतीं. जो औरतें नौकरी करती हैं, उन्हें कंपनी की कैब में ही जाना होता है. अब हमारी ट्रेन कोंकण रेलवे के रूट पर चल रही थी. ट्रेन रत्नागिरि पार कर चुकी थी. दोनों तरफ सह्याद्रि की पहाड़ियाँ, जंगल, झरने और उफनाती नदियां थीं. इनको निहारते हुए रूबीन बोली- सऊदी में हम इस हरियाली को तरस जाते हैं. उसकी आँखों में अपनी धरती और अपने लोगों के लिए प्यार उमड़ता स्पष्ट दीख रहा था. रूबीन इस्लाम पंथ की अनुयाई थी, लेकिन कट्टरता उसमें नहीं थी. उसे हरीतिमा से प्यार था, उसे संगीत से प्यार था और गाने-बजाने से भी. उसे हिंदुस्तान से प्यार था और हिन्दू धार्मिक रीति-रिवाजों से भी. उसने हमसे बार-बार कहा, कि आप जब अगुम्बे जाएँ तो शृंगेरी स्थित शारदा पीठ पर जाएँ और शंकराचार्य से भी मिलें. उसने बताया, कि यह मठ आदि शंकराचार्य ने ही बनवाया था, इसलिए आप लोग जरूर जाएँ. फिर वह चली गई. 

शाम को रूबीन फिर आई, और उसने बताया, कि वे लोग भी उडुपी ही उतर रहे हैं. क्योंकि ट्रेन बहुत लेट हो चुकी है. उसने कुंडापुर से अपने मायके वालों को बुलवा लिया है. वह अपने साथ खजूर के बिस्किट्स लाई थी. उसने कहा, कि ये खाएं. सऊदी के हैं. बिस्किट्स स्वादिष्ट थे. उसने हमसे कहा, कि रात हो रही है. आप लोग उडुपी ही रुक जाएँ, क्योंकि अगुम्बे का रास्ता घाट (चढ़ाव-उतराव) का है. ऊपर से कोबरा और लीच (जोकों) से भरा जंगल. हमने हामी भरी. रात करीब आठ बजे उसने हमारे केबिन का दरवाजा खोलते हुए कहा- जल्दी सामान पैक करिए, ट्रेन यहाँ कुल दो मिनट रुकेगी. अब तक ट्रेन में सफर करते हुए 33 घंटे हो चुके थे. हमने सामान बटोरा और अटेंडेंट को बुलाकर सामान उतरवाया. नीचे दो-तीन खातूनें बुरके में खड़ी थीं, और एक दाढ़ी वाले बुजुर्गवार भी. एक लड़का भी उनके साथ था. मैंने अनिल जी कहा, कि अभी रुकें. कम से कम रूबीन और उसकी बेटी फातिमा अयान से बॉय-बॉय तो कर लें. फिर से पूर्ववत पूरे शरीर को बुरके से ढके रूबीन उतरी. अब उसके बुरके से बस दो आँखें ही चमक रही थीं. वह अयान को गोद में लिए थी. हमने अयान को बॉय कहा, तो रूबीन बोली- “अल्लाह-हाफ़िज़!” और उन बुजुर्गवार, जो उसके पिता थे, से मिलवाया. लेकिन परदेश से आए अपने दामाद की खातिर-तवज्जो में लगे उन बुजुर्गवार ने हमारे “ख़ुदा-हाफ़िज़!” कहने पर बस हाथ हिला दिया.


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