चंचल
एक टुकड़ा हकीकत खोजने के के लिए झूठ का पूरा पहाड़ रहता था , इस पहाड़ के सफर में जगह जगह ठहाकों की आंधी उठती , और हम अपने अपने अभाव को इस आंधी में उड़ा कर हल्का हो जाया करते थे .तब हमारे पास वक्त ही वक्त रहता था ,क्यों कि जिंदगी में इतनी तेज गति नही थी ,नही आपाधापी था .जाही विधि राखे नाथ , ताही विधि रहने की अव्यक्त स्थायी सोच थी .शिकायत नही थी , उपाय का सामूहिक फलक था .पिछले कल की दिक्कत , तकलीफ , अभाव को आज की सांझ मिल बांट कर आपस मे तकसीम कर लिया करते थे .इसी तकसीम से हंसी उठती थी .
- सुनो ! तुम तुम हो , त्रिलोचन नही हो असल विषय पर रहा करो , सु को समझाने के लिए सुरहुरपुर की गली झंकाते हो , तकसीम करो , गर उस तकसीम से हंसी आये तो , वरना चुपय रहो , रोने - रुलाने के लिए मोदी कम है ? कब का वाकया है ?
- गुजिस्ता खुशबुओं के दिन थे .दिल्ली दरख्तों के साये में सांस लेती थी , ऑक्सीजन भरपूर था , सड़कें दुबली पतली थी लेकिन वाहन मोटे चौड़े बड़े थे , लोग खड़े खड़े सफर कर लेते थे लेकिन ऊंघते तक नही थे , इमारतों का कद इंसान से ऊंचा नही था , लोग सवाल पूछना जानते थे , कोई किसी का खुदा नही था , खुदमुख्तारी का आलम था . देश के प्रधान मंत्री की क्या औकात , बेगूसराय वाला दिल्ली कमाने आया छोटू बात बात में क्लिंटन की ऐसी की तैसी कर देता था - हो हिम्मत तो आये 'गुरवा चोख' बतिया ले लालू भइया से , चले हैं .
- अबे !इतना तो समझ मे आ गया कि बात दिल्ली की हो रही है लेकिन किस दिल्ली की बात है , दिल्ली अब तो बढ़ कर दर्जन भे हो गयी है ? किस मोहल्ले की बात है ?
- चलो एक त्रिकोण बनाओ .बहादुरशाह जफर मार्ग , दस दरिया गंज और जमुनापार . वक्त का खेल देखो बात तब की है जब 'जफर शाह ' आईटीओ पर था , और आईटीओ रंगून से बहुत दूर था , दस दरिया गंज ब आवाजे बुलंद दिल्ली में हांका लगाता था और जमुनापार पर दुखियारों ने कब्जा जमामा शुरू कर दिया था .( मशहूर कथाकार गुलशेर खान शानी जी का हलफिया बयान है अक्स नवभारत टाइम्स में मिल जाएगा - सारे दुखिया जमुना पार ) यह दास्तां है उन दरवेशों का जो इस क़िस्साख्वानी बाजार में आ बैठे थे और अपने अपने कमाई के किस्सों को मनमर्जी हथहो देकर सुनाते रहते थे .गरज यह कि हर किस्सा मजाक लगता गोकि उसके तासीर अलग अलग रंग लिए होते .
- मसलन ?
- मसलन क्या ? एक दो हो तो नाम भी चले , कम्बखत हर शख्स के खीसे में कोई न कोई किस्सा लटका रहता .और तो और , मुंतजवा की बकरी तक गाहे बगाहे बयान देती .जब भी मिमियाती उसकी बात ज्ञान शिवपुरी मरहूम ब कायदे शांत चित्त सुनते और बकरी के मालिक मुमताज को बुला के बताते - मुमताज भाई ! अपनी इस बकरी को बकरे से मिलवाईये , जुबान तो समझा करो .
मुमताज और मुमताज की बकरी के बीच दुभाषिया बने ज्ञान शिवपुरी इस बकरी की दास्तां को मयूर विहार से सटे गांव से उठाते 118 नम्बर की बस पर लाद कर आईटीओ उतर जाते . वहां से टहलते टहलते मंडी हाउस पहुंचते .( ज्ञान शिवपुरी को जान लीजिये - ज्ञान
रंगमंच के मझे हुए कलाकार थे , बाद में फिल्मों में चले गए लेकिन जाने के पहले दिल्ली में कई चर्चित नाटक किये , आज फिल्मों में धूम मचाने वाली अदाकारा हिमानी को हिमानी शिवपुरी बना कर बम्बई गए , असमय इस दुनिया को अलविदा कह गए .)
ये किस्से इकट्ठा होते थे लालता पानवाले के पास जिसका एक खोखा भाई अवध नारायण मुद्गल और भाभी चित्रा मुद्गल के घर के ठीक नीचे था .
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