मनीष सिंह
काबुल यूनिवर्सिटी की वो लड़कियां साठ के दशक में अफगानिस्तान की प्रतिनिधि तस्वीर है. तब भी अफ़ग़ानिस्तान इस्लाम बहुल देश था. अफगानी भी दीगर दुनिया की तरह हंसते, खेलते, मस्तमौला लोग हुआ करते थे. दुनिया रूस और अमेरिकी खानों में बंटी थी. एशिया भर में रूस से कम्युनिज्म का निर्यात हो रहा था. पश्चिम दहला हुआ था.अफगान राजा जहीर शाह को हटाकर दाऊद खान ने सत्ता हथियाई, उनसे तराकी ने, उनसे अमीन ने. रशियन आये और अमीन को उठाकर बरबक करमाल को बिठा दिया. पपेट सरकारों का दौर शुरू हुआ.
ये सारे ग्रुप, टाई सूट वाले .. कम कम्युनिस्ट और ज्यादा कम्युनिस्ट थे. इस्लाम कोई मुद्दा नही था. लेकिन रूसीयों के कदम रखने के बाद, उनसे लड़ने के लिए अफगानो ने हथियार उठाये. सवाल आया कि रूसियों को हटाकर आखिर कैसी व्यवस्था लाई जाएगी?? रशियन इफेक्ट, याने कम्युनिस्ट व्यवस्था तो नही चाहिए थी. ऐसे में अपने यहां "राम राज्य' की तरह "आदर्श इस्लामी शासन" लाने का संकल्प हुआ.
पर अभी तक ये नार्मल वाला इस्लाम था. इंजीनियर और सुशिक्षित, अहमद शाह मसूद जैसे लोग इस सपने के साथ मुजाहिद बने. वियतनामियों के कंधे पर बन्दूक रखकर, अमेरिका को जो शिकस्त रूस ने दी थी, अब वही मौका अमेरिका को मिला. भर भर के पैसे और हथियार दिये. पाकिस्तान दलाल बना. खूब कमीशन भी काटा, और इलाके का दादा भी बना. आखिर अफगानों ने रूस को थका कर भगा दिया.
लेकिन अब तक देश मे गवर्नेस का ढांचा ध्वस्त हो चुका था. जिसकी लाठी उसकी भैस. थोड़े थोड़े इलाके अलग अलग गुट के कब्जे में थे. मिलकर सरकार तो बनाई, लेकिन आपस मे लड़ते भी रहे.
इस बीच अचानक से तालिबान उभरा, और पुराने मुजाहिदीनों को रौंदते हुए ज्यादातर अफगानिस्तान जीत लिया. तालिबान, पाक में रह रहे अफगानी शरणार्थियों को ब्रेनवाश करने, इस्लाम के अतिवादी वर्जन को सिखाने, और हथियार देकर लड़ने भेजने का प्रोजेक्ट था.
याने अफगानिस्तान में पाकिस्तान का पिट्ठू शासन. "अखण्ड पाकिस्तान" समझ लीजिए. पाकिस्तान अपनी औकात से ज्यादा बड़ा टुकड़ा चाबने चला था. और उधर तालिबान लीडर मुल्ला उमर और लादेन ने भी अपनी औकात से ज्यादा चाब लिया. ट्विन टावर पर हमला किया. इसके बाद 9/11, अमरीका का आना, तालिबान के जाना आपने देखा है.
बीस साल बाद अमेरिका घर वापसी कर चुका है. तालिबान राज भी अब काबुल वापसी की राह में है. सवाल यह है कि आगे क्या होगा?रिलिजियस फेनेटिक्स, किसी के नही होते. वे सिर्फ अपना फायदा देखते हैं, और रिलीजन की आड़ में मनमर्जी करते हैं. तालिबान को कंट्रोल करने की ताकत पाकिस्तान में नही है.
दरअसल भारत से सम्भावित मुकाबले में, अफगानिस्तान को "स्ट्रेटेजिक पिछवाड़ा" बनाने के लिए आईएसआई ने तालिबान खड़ा किया, और सत्ता दिलवाई. पर सचाई ये है कि अफगान और तालिबान ने बीस सालों से पाकिस्तान को ही अपना स्ट्रेटेजिक पिछवाड़ा बनाये रखा हैं.
तालिबान, या अफगानिस्तान में किसी भी सरकार को जरा सेटल होने दीजिए. दुआ कीजिए कि चीन सहित दुनिया के ज्यादातर देशों से उसके सम्पर्क ठीक रहें. इससे पाकिस्तान पर अफगानी निर्भरता घटेगी. और जैसे जैसे घटेगी, अफगानी डूरंड लाइन पर उसी तरह पाकिस्तान का गला दबाएंगे, जैसे मोदीराज में मोदीजी के दोस्त झिनपिंग, भारत की जमीन पर दबाए पड़े हैं.
याद रहे कि अंग्रेजो की डूरंड लाइन को किसी अफगान सरकार ने आधिकारिक सीमा नही माना. यहां तक कि तालिबान ने भी अपने पिछले शासन में इसे मान्यता नही दी. आम अफगानी में पाकिस्तान के प्रति नफरत, तब के रूसियों के प्रति नफरत से कम नही. देर सवेर पाकिस्तान, अफगानिस्तान में लूजर ही निकलेगा.
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रही अफगानिस्तान के अंदरूनी हालात की. दुनिया की ताकते अब उनके फटे में टांग अड़ाना नही चाहेंगी. अफगानों को अपनी सरकार मिलेगी. लेकिन लड़ाकों को जोड़ने वाला सूत्र " फॉरेन इन्वेजन" खत्म होगा.
अब किसी धर्म मे इतनी ताकत नही की पोलिटीकल फैक्शन्स को एक रख सके. पावर स्ट्रगल होनी तय है, देर सवेर तालिबान के अंदर भी मारकाट मचेगी. प्रो पाक- एंटी पाक फैक्शन्स लड़ेंगे. एंटी तालिबान खत्म नही हुए, वे भी लौटेंगे.
तालिब कुरान के दौर में जीना चाहते थे. कुरान में इलेक्शन का जिक्र नही. गवरनेंस का जिक्र नही. बजट, मिनिस्ट्री, फॉरेन रिलेशन डेवलपमेंट, शिक्षा, हस्पताल, रेडियो सिनेमा का जिक्र नही. मंत्री जी मंत्रालय में कम, किसी शहर को जीतने या कंट्रोल करने के लिए पहाड़ों पर बम गोली चलाते अधिक दिख सकते है.
पिछली बार इस सरकार का कोई स्ट्रक्चर नही था. कमाई का साधन अफीम की खेती, लूट एक्सटॉर्शन, अरब और ओसामा का दान था. सारा पैसा युद्ध मे खर्च होता था. सेना को तनख्वाह नही, खाना कपड़े और हथियार दिए जाते थे. मुल्ला उमर कोई बुक्स ऑफ एकॉउंट नही रखते थे, खुद ही जरूरत का कैश अपने मुबारक हाथों से बांटा करते थे.
अब तालिबान में नई लीडरशिप है, पर लड़ाको की फिलॉसफी पुरानी है. अफगानी विदेशियों से खूब लड़ चुके. सुपर पावर्स का ग्रेवयार्ड बन चुके. ग्रेवयार्ड में रहने वालों को मौत का डर नही होता. तालिबान को मोडर्नाइज, पीसफुल, एडजस्टिंग होना पड़ेगा. वे कोशिश भी करेंगे. लेकिन उनकी सोच की सीमाएं हैं, और हथियारबंद मूढमति मिलिशिया को पाबंद रखना कठिन.
उनका विरोध खड़ा होगा.
तीसरा पक्ष जनता है. अफगानिस्तान में जीतना आसान है, टिकना कठिन. तालिबान को उस जनता का सामना करना है, जो हाल ही में नार्मल जीवन देख चुकी है. उसने सड़कें, बिजली, पानी, हस्पताल और शिक्षा की झलक देखी है. इसके लिए वो जूझेगी.
जिहाद का असल मतलब बाहर किसी से नही, खुद से जूझना होता है. तो अफगानियों का असल जिहाद अब शुरू होगा. अपने देश के भीतर, अपनो से जूझेंगे. देर सवेर, तालिब हारेंगे. अफगानी इस जिहाद को जीतेंगे, खुदमुख्तार और समझदार बनेंगे. और दुनिया मे इस्लाम की बदनामी का किला ढहेगा. फोटो साभार
मनीष सिंह
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