मिष्ठान्न महाराज यानी बचानू हलवाई

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मिष्ठान्न महाराज यानी बचानू हलवाई

हेमंत शर्मा  
बना रहे रस यानि बनारस. एक ऐसा शहर जिसका रस अनादि काल से बना हुआ है. ये रस इस शहर की जिह्वा से टपकता है. इसकी सांसों में भटकता है.इसकी चाल में छलकता है.इस रिसते हुए रस से ही इस शहर की पहचान है. इस रस का कोई एक रूप नही है.कोई एक रंग नही है. ये सहस्रधारा की तरह फूटता है.कभी मस्ती, कभी आस्था, कभी विश्वास, कभी सद्भाव, कभी बेपरवाही, कभी ख़ान-पान तो कभी छानने-फूंकने की शक्ल में उभरता है ये रस.इतने रसों की अजस्र धारा जहां से फूटती हो, वही बनारस है. और बचानू साव बनारस के इसी रस की साक्षात अभिव्यक्ति थे.  

बचानू साव यानी बचानू हलवाई. बनारसी मिठाइयों के रस और उसकी तासीर के प्रतिनिधि चरित्र.बचानू बनारसी मिठाइयों के ‘आर्कमडीज’ थे.मधुरता और रस निष्पत्ति में कुछ नया प्रयोग, कुछ नई खोज में वे हमेशा लगे रहते.उन्हें आप बनारस का ‘मिष्ठान पुरुष’ भी कह सकते हैं. बचानू मेरे अंतरंग दोस्त थे.संवेदनशील इतने कि मिलते ही भावाद्रेक में रोने लगते.गौरांग वर्ण, चुनटदार आस्तीन वाला झक्क सफेद कुर्ता, मसलीन की धोती, मुंह में केसर वाला पान.मिलने वालो के लिए वे केसर की एक चांदी की डिबिया अलग से रखते .मौसम के हिसाब से उनके खलीते में इत्र होता ,जिसे हर मिलने वाले की कलाई पर वे रगड देते.हाथ में एक झोला, उसमें कुछ चुनिंदा मिठाइयां और नमकीन. बचानू कहीं से भी हलवाई नहीं लगते थे. संगीत साहित्य और धर्म पर बातचीत की उन्हें महारत थी. जब भी बनारस में कोई राष्ट्राध्यक्ष या प्रधानमंत्री आता तो उनके खान-पान का जिम्मा बचानू के पास ही रहता. यानि एक मायने में बचानू ‘राजकीय रसोइया’भी थे. मिठाई तो मिठाई, उनका हाथ लगते ही सब्जियों और रोटी से भी ‘स्वाद’बहता था. 

बचानू पढ़े लिखे नहीं थे. पर हर साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक जमावड़े में हाज़िर रहते थे. किसी भी समारोह में वे उल्कापिंड की तरह गिरते और आकर्षण का केन्द्र बन जाते. बचानू तत्वज्ञानी थे, गहरी बातें करते थे. लोक में भले यह प्रचलित हो कि हलवा बनाने वाले ही हलवाई हुए, पर बचानू इसे नहीं मानते थे. उनकी दलील थी कि हलवा तो मुगलों के साथ भारत आया और हलवाई वैदिक काल से थे. इसलिए वे हलवाई को हलवाही (हल चलाने वालों) से जोड़ते. वे उन्हें हल चलाकर अन्न पैदा करने और अन्न से पकवान बनाने वाला कहते थे. हलवा वैदिक काल में भी था. उसे ‘संयाव’ कहा जाता था. वह जौ या चावल के आटे और गुड़ से बनता था क्योंकि तब गेहूं हमारे यहां नहीं होता था. गेहूं इस देश में बाबर के साथ ‘गेन्दुम’ के तौर पर ईरान से आया. इसीलिए हमारी किसी पूजा पद्धति में कहीं गेंहू का कोई स्थान नहीं है. हर कहीं जौ और चावल ही है. यही हमारे प्राचीन अन्न थे. एक बार मुझे बचानू ‘अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा’ भदोही ले गए. वहां हलवाइयों का जो इतिहास लिखा था, उसके मुताबिक हलवाही कर अन्न उगाना और उसका मोदक सहित दूसरे मिष्ठान बनाने के कारण यह समूह ‘हलवाई’ हुआ, जिसे कहीं कहीं ‘मोदनवाल’ भी कहते हैं.  

बनारस में जितनी विविध, प्रयोगधर्मी और औषधीय गुणों से लैस नाना रुपी मिठाइयां बनती हैं, उतनी दुनिया के किसी कोने में नहीं बनती. बचानू की यह उक्ति कहीं से प्रमाणित नहीं थी, पर वे अकसर कहते थे कि वेजिटेरियन, नॉनवेजिटेरियन के साथ ही एक ‘हिंदूटेरियन’ भी होता है. यानी जो हिन्दू देवताओं को प्रिय हो, उन्हें भोग लगाया जाए वह ‘हिन्दूटेरियन’. इस श्रेणी में बचानू पुआ, हलवा, लड्डू और दूसरी देशी मिठाइयों को गिनते थे. उनका दावा था कि देवताओं के ‘छप्पन भोग’ ‘हिन्दूटेरियन’ ही हैं. हलवाइयों की समृद्ध परम्परा को बताते-बताते बचानू आत्मगौरव से भर जाते. उनके मुताबिक़  उन्हें हलवाई नहीं वैद्य या ‘हकीम हलवाई’ कहना चाहिए क्योंकि वे मेवे और घी के औषधीय गुणों को ध्यान में रख कर ही मिठाई बनाते थे. अपनी महान परम्परा को याद करते करते वे यहां तक कहते थे कि महाराज मोदनसेन, यज्ञसेन, गणीनाथ, महान भक्त पलटुदास और छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद सब हलवाई ही तो थे.  

बचानू साव से मेरी दोस्ती की एक वजह थी. मेरा अराजक किस्म का मिष्ठान प्रेमी होना.आखिर क्यों न होंऊ? हेमचन्द ने चिन्तामणि में लिखा है, "काम्यं कम्र कमनीयं सौम्यञ्च मधुरं प्रियम्, ब्राह्मणम मधुरम प्रियम." अब ब्राह्मण हूं तो मिठाई तो प्रिय होगी ही. इसलिए आज भी हर दूसरे-तीसरे रोज बनारस से मिठाइयां जहाज और रेल के जरिए हमारे नोएडा के घर में आती रहती हैं. बनारस, बीकानेर और इन्दौर के अलावा कहीं की मिठाइयां मुझे सोहाती नहीं. बचानू साव की मिठास परम्परा लम्बी थी. वे 150 साल पुरानी बनारस की ‘राजबन्धु’ मिठाई के दुकान के मालिक थे. बचानू बिरले इसलिए थे कि मेरे जैसे सैकड़ों लोगों में मिठाई खाने-खिलाने की समझ और संस्कार उन्हीं ने बनाए थे. इसलिए बचानू साव मेरे लिए खास थे. वे जब भी दिल्ली आते, हमारे घर आ रसोई में जाकर कुछ न कुछ विशेष ज़रूर बनाते. सरकार के अभिलेखों में उनका नाम राज किशोर गुप्त दर्ज था, पर बनारसी उन्हें बचानू  साव के नाम से ही जानता था. वे बनारस की रईस परंपरा के हलवाई थे. सारे रईसों के समारोहों के भोजन व्यवस्थापक वही होते थे. मिठाई में शोध, प्रयोग और पौष्टिकता बढ़ाने के उपायों में उनका कोई सानी नहीं था. उनकी कोशिश होती थी कि मिठाइयों को कैसे सेहतमंद बनाया जाए. वे बनारस की विभूति थे. महात्मा गांधी हों या पंडित नेहरू, मार्शल टीटो हों या इंदिरा गांधी या फिर सिरीमावो भंडारनायके, दलाई लामा, पंडित रविशंकर या एमएस सुब्बलक्ष्मी, बचानू सबको खुद पकाकर भोजन करा चुके थे. इससे नीचे वे किसी और को कुछ समझते नहीं थे. ऐसा हलवाई आपको देश में दूसरा नहीं मिलेगा जिसने इतनी विभूतियों को अपने हाथों खाना खिलाया हो. 

अब बचानू के ताव का एक उदाहरण. बात सन 1999 की होगी. मेरे पुत्र पुरू पंडित का जन्म हुआ था. उनके जन्म के एवज में मित्रों की पार्टी थी.बचानू उसके इन्तजामकार थे. या यों कहें बचानू के दबाव में ही वो पार्टी रखी गयी थी. वे बनारस से मय कारीगर और सामान के लखनऊ आए.तब कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे. पार्टी में कल्याण सिंह और उनके कुछ मंत्रिमंडलीय साथी आए. पार्टी चल रही थी, तभी किसी अफ़सर ने बचानू को महज़ हलवाई समझ कुछ सवाल जवाब कर मुख्यमंत्री के लिए कुछ लाने का आदेश दिया. बचानू बिफर गए, उन्हें ताव आ गया.  "कौन मुख्यमंत्री? हमारे लिए सब बराबर हैं. हमें फ़र्क़ नहीं पड़ता. बहुत बड़ा बड़ा अदमी के खाना खिया चुकल हई. नेहरू ,शास्त्री, इन्दिरा ,मार्शल टीटो, कोई आकर्षण नाहीं हौअ. बहुत मुख्यमंत्री देखलीं. आपन काम करा." मैंने बचानू को समझाया कि वो अफ़सर हैं, उन्हें आपके बारे में क्या पता. बचानू शान्त हुए पर मुख्यमंत्री से मिलने नहीं गए. 

बनारसी हलवाइयों की कोई दो सौ बरस की एक समृद्ध और सुस्वादु परम्परा रही है. बिहारी साव, हरखू साव, मथुरा साव, केदार साव और बैजू साव. इन सबका केन्द्र बनारस का ठठेरी बाज़ार था. पिछली शताब्दी में बिहारी साव का राज था. मिठाई बनाने का अन्दाज़ और प्रयोगधर्मिता उनकी श्रेष्ठ थी. चौखम्भा में उनकी दुकान ‘दी राम भंडार’ को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति मिली. भारतेन्दु बाबू के घर के पास होने के कारण इस दुकान को उनका संरक्षण था. इसकी शाखाएं अब पूरे शहर में है.पर आज ‘राम भण्डार’ के मूल सज्जन कचौड़ी, जलेबी, छोला समोसा ही बना रहे है. दीपक टाकीज पर बैजू साव का काला छोला, समोसा और दही बूंदिया जगत प्रसिद्ध थी. ब्रह्मनाल का शिव भण्डार मधुरता का काशी में दूसरा केन्द्र था. हिन्दी के महान आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र की यहां बैठकी होती थी. आगे चल कर इसी की एक शाखा केदार साव की ‘मधुर जलपान’ के नाम से ख्यात हुई. इस दुकान पर महान साहित्यकार जयशंकर प्रसाद रोज़ अड़ी लगाते थे. डॉ. सम्पूर्णानन्द और पंडित कमलापति त्रिपाठी भी यहॉं के बैठकबाजो में थे.उनकी फ़ोटो आज भी दुकान पर टंगी है.महाकवि जयशंकर प्रसाद भी हलवाई थे और केदार साव के रिश्ते में भी थे. प्रसाद जी के कारण यह दुकान साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र बनी.बाद में केदार साव के बेटे घनश्याम गुप्त ने यह सिलसिला जारी रखा. वे ‘ठलुआ क्लब’के पदाधिकारी भी थे. घनश्याम ‘घमोच कवि’ के नाम पर कविता भी करते थे. अक्सर उनकी कवि गोष्ठी रामापुरा में उनके घर की छत पर होती जहां ‘मधुर जलपान’ के पेटभरूआ नाश्ते का चौचक इंतजाम रहता. एक दो बार उनकी छत पर होने वाली कवि गोष्ठी में मैं भी पिता जी के साथ गया हूं. भैयाजी बनारसी, बेधड़क बनारसी, कांतानाथ पांडेय 'चोंच',धर्मशील चतुर्वेदी, चंद्रशेखर मिश्र के साथ कई बड़े कवि उसमें शामिल होते थे. 

मथुरा साव बिहारी साव के ही समकक्ष थे. ठठेरी बाज़ार में उनकी भी दुकान बिहारी साव के रामभण्डार के सामने ही थी. मिठाई में दूध खोवे के अलावा सब्ज़ी और अन्न को लेकर उन्होंने बेहतरीन प्रयोग किए, पर भाग्य उनके साथ नहीं था. आज़ादी की लड़ाई में केसर, काजू और  पिश्ते की तीन परत से तिरंगी बर्फ़ी उन्होंने ही बनाई. पर दुकान बिहारी साव की चलती थी इसलिए लोक स्मृति में वह मिठाई बिहारी साव यानी ‘राम भंडार’ के खाते में चली गयी. मथुरा साव की गाड़ी तब पटरी पर आई जब उनके बेटे बचानू साव ने ‘राजबन्धु’ की ज़िम्मेदारी सम्भाली. फिर क्या था, बचानू ने करिश्मा कर दिया. अपने स्वभाव, लटके बाज़ी और विनम्रता में पगे मिजाज से उन्होंने इस कारोबार में अभेद्य लकीर खींच दी. फिर तो धीरे-धीरे बनारसी पाकशास्त्र का दूसरा नाम ही ‘बचानू’ बन गए. 

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब तिरंगा फहराना जुर्म था और तिरंगा देखकर फिरंगी शासन भड़कता था, तब बनारस में बचानू साव के पिता ने तिरंगी बरफी का ईजाद किया था. लेकिन मिठाइयों में रंग डालकर नहीं. काजू से सफेद, केसर से केसरिया और पिस्ते की हरी परत से तिरंगी बरफी बनाई. बाद में यह राष्ट्रीय आंदोलन की मिठाई बन गई. स्वतंत्रता संग्राम में एक हलवाई का इससे बेहतर योगदान क्या हो सकता है! बचानू साव सिर्फ मिठाइयों की पौष्टिकता ही नहीं, उसके अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र का भी खयाल रखते थे. अगर काजू का मगदल गरीब आदमी की पहुंच से बाहर है, तो वे काजू हटाकर बाजरे का मगदल बनाते थे. उसकी तासीर और स्वाद वैसे ही रख उसे सामान्य आदमी की पहुँच में ला देते थे. मगदल एक ऐसी मिठाई होती है, जो उड़द दाल, काजू, जायफल, जावित्री, घी और केसर से बनती है. यह स्मृति और पौरुष बढ़ाने वाली मिठाई होती है. आयुर्वेद और यूनानी ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है. आपको कब्ज है तो काजू की मिठाई से रोग और बढ़ सकता है. पर अगर उसके साथ अंजीर मिलाकर बरफी बने तो यह दवा बनेगी, जो कब्ज के लिए फायदेमंद होगी. बचानू के पास ऐसे कुछ अमोघ फॉर्मूले थे. 

कब, कौन सी और कैसी मिठाई खानी चाहिए, इसका ज्ञान मुझे उन्हीं से हुआ था. ठंड में वातनाशक, वसंत में कफनाशक और गरमियों में पित्तनाशक मिठाइयॉं होनी चाहिए. वात, पित्त और कफ. आयुर्वेद का पूरा चिकित्सा विज्ञान इसी में संतुलन बिठाता है. बादाम सोचने-समझने की ताकत बढ़ाता है, पर उसका पेस्ट कब्ज बना सकता है. बादाम के दो भागों के बीच अनान्नास का पल्प डाल उन्होंने एक मिठाई बनाई ‘रस माधुरी’. इसमें फाइबर भी था और यह ‘एंटी ऑक्सीडेंट’ भी. नागरमोथ, सोंठ, भुने-चने के बेसन और ताजा हल्दी से वे एक लड्डू बनाते थे, ‘प्रेम वल्लभ’ जो कफनाशक था. स्वाद में बेजोड़. मिष्ठान्न निर्माण में वे सिर्फ ऋतुओं का ही ध्यान नहीं रखते थे बल्कि उसके डिटेल में भी जाते थे. सूर्य के उत्तरायण और दक्षिणायण होने से उनकी मिठाइयों की तासीर और तत्त्व बदल जाते.  

बचानू सोंठ और गोंद का एक लड्डू बनाते जो वास्तव में ‘पौरुषवर्धक’ होता. उनके ही चलते मुझे खान पान की तासीर को लेकर नई नई जानकारी रखने का शौक चढ़ा. ‘भावप्रकाश निघंटू’ और ‘इंडियन मेटेरिया मेडिका’ वनस्पतियों, मसालों, वृक्षों और उनकी पत्तियों की तासीर बताने वाली किताब है जो हमारे खान-पान में विशेष काम आती है. इस परंपरा का भी एक इतिहास है. अवध के नवाबों के दौर में खाना बनाने वाले बावर्चियों को हकीम बावर्ची कहते थे. वे सिर्फ रसोइए नहीं होते थे. वे खानपान के अवयव में पौष्टिकता और उद्दीपन के तत्व समझकर फिर खाना बनाते थे. इसीलिए उन्हें ‘हकीम बावर्ची’ कहते थे. बचानू भी मिठाइयों का सेहत के साथ ऐसा ही संतुलन बनाते थे.  

मिठाइयों को दूध बेसन के तत्वों से हटाकर उसमें सब्ज़ी और वनस्पतियों का प्रयोगधर्मी इस्तेमाल बचानू ने पहले पहल किया था. सोंठ, मकरध्वज, शिलाजीत, अम्बर, शतावर, गोरखमुडीं को मिलाकर, वे एक लड्डू बनाते थे. सोंठ का मतलब सूखी अदरक से होता है. यह अदरक का ही शोधित रूप है. अदरक की तासीर गर्म होती है, रक्तचाप बढ़ाती है. मकरध्वज शिलाजीत का दूसरा नाम है. इसे ‘आइरन स्फेद’ कहते हैं. आप इसे पहाड़ का पसीना भी कह सकते हैं. कस्तूरी और अंबर दोनों ही आयुर्वेद की प्रतिबंधित औषधि हैं. कस्तूरी मृग की नाभि से प्राप्त होती है. अंबर व्हेल मछली के मुंह से निकली गाज है. शतावर बाजीकरण की वनस्पति है. गोरखमुंडी को वनस्पति विज्ञान में ‘सेटेंस इंडिकास’ कहते हैं. यह एक जंगली फूल है जिसे डेजी भी कहते हैं. कायकाज फर्न परिवार की एक वनस्पति है. इसे ‘हेलयिन्थोस्टलेज जिलोरिया’ कहते हैं. यह दक्षिण पूर्व एशिया से भारत आया. यूनानी ग्रंथों में इसे पुष्टिवर्धक कहते हैं. इन सभी मसालों को तिब्बत में भी टॉनिक की श्रेणी में रखते हैं. बचानू सबके जानकार थे. यहां जो ज्ञान मैं उड़ेल रहा हूं वह उन्हीं का दिया हुआ है.बस गड़बड़ यह थी कि बचानू दूसरे मिज़ाज के आदमी थे.   

बचानू साव के बहाने मुझे भारत में मिष्ठान्न का समृद्ध इतिहास जानने को मिला.  मिठाइयां तो वैदिक काल में भी थी. पर उस वक्त मिठाई के नाम पर गुलगुला या पूआ ही बनता था. गुलगुले को आटे और शक्कर या गुड़ के घोल से बनाया जाता है. इसमें स्वाद और खुशबू के लिए थोड़ी सी कुटी इलायची और सौंफ भी डाली जाती है. पुऐ और गुलगुले में गुण और स्वाद में कोई फ़र्क़ नहीं है. केवल आकार का फ़र्क़ है. वैदिक साहित्य में पुए को ‘अपूप’ कहा गया है. ऋग्वेद में, पतंजलि में, महाभारत के अनुशासन पर्व में और सुश्रुत एवं चरक संहिता में भी ‘अपूप’ का ज़िक्र है. ऋग्वेद में घृतवंत अपूपों का वर्णन है. गन्ने के रस से बनी शक्कर और विभिन्न प्रकार के मिष्ठान्न: ऋग्वेद में उल्लिखित है कि आर्यों का मिष्ठान्न ‘अपूप’ था. ऋग्वेद (3.52.7) में इसे अपूप (पुआ) कहा गया. ऋषि इन्द्र को न्योता देते हैं, “मरुतों के साथ आओ, अपूप खाओ.” 

पूषण्वते ते चकृमा करम्भं हरिवते हर्यश्वाय धाना:. 
अपूपमध्दि सगणो मरुद्भि: सोमं पिब वृत्रहा शूर विद्वान्.. 

अथर्ववेद (18.4.16) में भी 'अपूप' का उल्लेख है. यह उस समय का मालपुआ है. इसे घी मिलाकर बनाया जाता था.  

अ॑पू॒पवा॑न्क्षी॒रवां॑श्च॒रुरेह सी॑दतु. लो॑क॒कृतः॑ 
पथि॒कृतो॑ यजामहे॒ येदे॒वानां॑ हु॒तभा॑गा इ॒ह स्थ॥ 

बचानु साव जिस परंपरा के प्रतिनिधि थे, उसकी जड़ें बेहद गहरी हैं. पाणिनी ने तक्षशिला और कंधार से लेकर कामरूप और विन्ध्याचल से ऊपर के भारत का पैदल भ्रमण किया था और उस वक्त प्रचलित शब्दों को इकट्ठा किया. बाद में इन शब्दों का वर्गीकरण कर उन्होंने एक मानक कोश की रचना की. उनकी यह ‘अष्टाध्यायी’ केवल एक व्याकरण ग्रंथ ही नहीं है, उसमें तत्कालीन भारतीय समाज के लोकाचार के अनेक वर्णन हैं. पाणि‍नी द्वारा ‘अष्‍टाध्‍यायी’में पकवानों के साथ-साथ कुछ मिष्ठानों का भी वर्णन किया गया है.आज से ढाई हज़ार साल पहले इस देश में कौन कौन से मिष्ठान बनाए जाते थे, भोजन-प्रबंध की क्या रीति थी,पर्व, उत्सव,सत्कार के क्या व्यंजन थे, इस सबका रसवंत ब्यौरा इस किताब में है. 

पाणिनी के वक्त भी हलवे को "संयाव" कहा जाता था. महाभारत में भी अनेक विशिष्ट व्यंजनों का उल्लेख मिलता है. ये व्यंजन प्राय दूध, घी, दही शहद आदि के बने होते थे. इनमें कृसर, पायस, अपूप, संयाव, घृतमिश्रित खीर, नवनीतमिश्रित व्यंजन  ख़ास  हैं. आर्यों का सर्वाधिक प्रिय पेय था दूध. अथर्ववेद में दूध से बने खाद्य पदार्थ 'खीरवान' कहे गए हैं. दही से बने खाद्य पदार्थ दधिवान, अन्न से बने अन्नवान, रस से बने रसवान, शहद या अन्य मधुपदार्थों से बने मधुमान बताए गए हैं. वैदिक कालीन समाज में दूध में पके हुए चावल को क्षीर पकोदनम (खीर) कहा जाता था. 

मिठाइयों के विस्तृत विवरण और उन्हें तैयार करने के तरीके के साथ एक प्रामाणिक ग्रंथ है ‘मानसोल्लास’. मानसोल्लास (मानस+उल्लास= मन का उल्लास) 12वीं शती का महत्वपूर्ण संस्कृत ग्रन्थ है जिसके रचयिता चालुक्यवंश के राजा सोमेश्वर तृतीय हैं. इसे 'अभिलाषितार्थचिन्तामणि' भी कहते हैं. भोजन, संगीत और दूसरी भारतीय कलाओं के इस प्राचीन विश्वकोश को 'अभिलाषितार्थचिन्तामणि' के रूप में भी जाना जाता है. मानसोल्लास में एक मिष्ठान का वर्णन है पायसम (संस्कृत: पायसं) जिसे ‘खीर’ भी कहा जाता है. पायसम विभिन्न प्रकार के होते हैं जैसे सेंवई, साबूदाना, दाल, गेहूं के दाने, खसखस आदि से बने. मानसोल्लास में सात प्रकार के चावल का उल्लेख है. पायसम चावल, विभिन्न प्रकार नट्स और अन्य सूखे मेवे और चीनी के साथ धीमी आंच पर पकाया जाता है. हालांकि कभी-कभी गुड़ और नारियल के दूध का भी उपयोग किया जाता था. 

इसी तरह अमरकोष में जिक्र है कि दूध और चावल को एक साथ पकाकर खीर बनाई जाती थी. यह बहुत पौष्टिक एवं स्वादिष्ट होती थी. अग्निपुराण के अनुसार लोग दूध को मीठा करके पीते थे. पुराणों मे एक राजा है रंतिदेव. बहुत दानवीर और आतिथि परायण. ज़िक्र आता है अतिथि के सत्कार के लिए इनके यहॉं दो लाख हलवाई थे. सोचिए कितने लोगों को रोज खिलाते होंगे. इनका अपने महामना मालवीय से क्या संबंध था, यह फिर कभी बताऊंगा,अभी विषयांतर होगा.  

बचानू साव मेरे लिए इसी महान परंपरा की जीवंत कड़ी थे जिनसे मैने बहुत कुछ सीखा.हलवाई जाति का प्रादुर्भाव और इतिहास पुराना है. वैदिककाल से  वर्तमान काल खण्डों तक यानी यजुर्वेद (अध्याय-32 सुक्ति-12),अथर्ववेद (अध्याय 44 क-18), वराहपुराण, मनुस्मृति, गर्ग संहिता (खण्ड-7 अध्याय-8), वर्णविवेक चन्द्रिका, वर्ण विवेकसार जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों में ये हर कहीं दर्ज है. हलवाइयों के आदि पुरुष मोदनसेन महाराज की वंशावली के अनुसार हलवाई वैश्यों की 352 उपजातियां हैं. पाकिस्तान और बांग्लादेश में मुस्लिम हलुवाई को ‘बसोवास’कहते हैं . 

मैने पहले ही लिखा है कि बचानू से मुझे अक्सर ही कुछ नया जानने को मिलता. बचानु संत पलटूदास के कुछ दोहे और कुंडलियां भी सुनाते थे. पलटूदास फैजाबाद के थे.वे संत भीखादास के शिष्य थे.हलवाई थे.सो बचानू उनके हवाले से सुनाते थे. 

लस्सी बूंदी रसमलाई, ख़ास सो स्वामी होय, 
कहा सुनी की है नहीं ख़ास पिए की बात 

कोई मिठाई न दे सकी रसमलाई को मात 
लस्सी से शक्ति भक्ति बूंदी से मिले मिठास 

रसमलाई पलक में ब्रह्म का हो आभास 
पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी धन्य हैं सोहन माई 
लस्सी बूंदी सब फीकी हुई खाई जो रस मलाई. 

बचानू का मिठाइयों से ऐसा गहरा नाता था कि वे मिठाई के साथ ही दुनिया छोड़ना चाहते थे. दिल्ली के एक बड़े अस्पताल मैक्स में उनके दिल का ऑपरेशन था. ऑपरेशन से पहले एक रोज वे डॉक्टर से उलझ पड़े. बचानू ने अपने कमरे में मिठाइयों के ढेर सारे पैकेट रखे थे. उन्हें देखने आने वालों को खिलाने के लिए. लेकिन डॉक्टर को गलतफहमी हुई. उन लोगों ने समझा कि हृदय की धमनियां बंद हैं, इतनी मिठाई कहीं वे खुद तो नहीं खा रहे हैं? डॉक्टर ने आदेश दिया कि मिठाइयों को कमरे से तुरंत हटाएं. मामला बिगड़ गया. डॉक्टर नाराज, बचानू उनका कहा नहीं मान रहे थे. दूसरे रोज ऑपरेशन होना था. वे अस्पताल के अपने कमरे से मिठाई हटाने को तैयार नहीं थे. अस्पताल में भर्ती मैने कराया था, सो पंचायत करने भी मुझे ही जाना पड़ा. बचानू मुझे देखते ही कहने लगे , “जान भले चली जाए, पर मिठाई को मैं अपने से दूर नहीं करूँगा.” मैंने डॉक्टर से कहा, “वे खाते नहीं हैं, सिर्फ देखते हैं. मिठाई की गंध उनकी प्राणवायु है. मिठाइयों से उनका गहरा नाता है. मिठाई के बिना उनकी जिजीविषा कम हो सकती है. इसलिए मिठाइयों को उनके कमरे में ही रहने दें. वे खाएंगे नहीं. मिठाइयों के बीच खुद को पाकर, वे अपनी मीठी दुनिया से जुड़े रहते हैं.” मेरे अटपटे तर्क से किसी तरह डॉक्टर माने. बचानू साव का ऑपरेशन हुआ. वे ठीक होकर बनारस लौट गए. पर कुछ ही दिन बाद वे हमारी ज़िन्दगी में मिठास छोड़ खुद अनंत की ओर चले गए.  

बचानू ‘सेमी-लिटरेट’ थे. पर धर्म, दर्शन, साहित्य और संगीत पर वे हर बनारसी की तरह बहस कर सकते थे. काशी विश्वनाथ मंदिर से तड़के जो ‘सुप्रभातम्’ गत पचास वर्षों से प्रसारित हो रहा है, वह इन्हीं की देन है. पूरे देश के संगीतकारों-गायकों को मिठाई खिलाकर उन्होंने उनसे सुप्रभातम् मुफ्त में गवा लिया. ‘सुप्रभातम्’ गाने के एवज में जब वे एम.एस. सुबुलक्ष्मी के पास पत्रं पुष्पम् का चेक लेकर पहुंचे तो सुबुलक्ष्मी ने चेक लौटा दिया और कहा इसे आप अपने ट्रस्ट में लगाएं. दिन के हिसाब से यह प्रसारण हर रोज बदलता है. ऐसा कोई बड़ा गायक, वादक या संगीतकार नहीं है, जिसने इस ‘सुप्रभातम्’ में न गाया हो. आज भी ‘सुबहे बनारस’ की शुरुआत बचानू के ‘सुप्रभातम्’ से होती है. बचानू इलाहाबाद के कुंभ में पूरे डेढ़ महीने एक टेंट में कल्पवास सिर्फ इसलिए करते थे कि वे सार्वजनिक उद्दघोषणा प्रणाली के जरिए हर रोज सुबह पांच बजे से सात बजे तक अपना ‘सुप्रभातम्’ प्रसारित करवा सकें. वे वहीं रुककर कुंभ के दौरान मेला क्षेत्र में भजन का रस घोलते. इसके लिए वे सरकार से लेकर मेला अधिकारी तक हर दरवाजे का चक्कर लगाते और आखिरकार प्रसारण करवा लेते.   

वे बनारस के सांस्कृतिक रत्न थे. हर साल ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को देश की सभी नदियों से जल लाकर वे काशी विश्वनाथ का अभिषेक करवाते थे. अभिषेक में प्रमुख जल बारी-बारी से बारह ज्योतिर्लिंगों में से किसी एक ज्योतिर्लिंग से आता था और उसी ज्योतिर्लिंग के पुजारी काशी विश्वनाथ का अभिषेक करते थे. देश की सांस्कृतिक एकता को मजबूत करने का उनका यह अनूठा प्रयास था. जो संस्कृति हमारे बाहर-भीतर हर जगह समाप्त हो रही है, बचानू उसे पुनर्जीवित करना चाहते थे. मिठाइयों के एवज में हम उन्हें लिफाफा देते, जिसमें कुछ शब्द होते, अर्थ नहीं. वे कहते थे कि शब्द में भी तो अर्थ ही होता है. बचानू साव अब नहीं हैं, पर उनकी मिठास आज भी कायम है. उनका घोला रस उन्हें जानने वालों के ज़ेहन में आज भी प्रवाहित हो रहा है. ‘रस सिद्धांत’ को दुनिया के सामने लाने वाले भरतमुनि थे. पर बनारसी मधुरता के रस निष्पादक तो ‘बचानू साव’ ही थे. वाह रजा बचानू! जब तक समाज में मिठास रही तूं याद आवत रहबअ.साभार  
रेखांकन-माधव जोशी

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