शम्भुनाथ शुक्ल
(मशहूर पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल के पत्रकारिता के संस्मरण जनादेश पर भी हर हफ्ते पढ़ें )
आज सुबह वाकिंग ट्रैक के छह राउंड लेकर (इसका एक राउंड 750 मीटर का है) मैं एक बेंच में सुस्ताने के लिए बैठ गया. थोड़ी देर बाद वहां एक अधबूढ़ी स्त्री भी आकर बैठ गई. सीधे पल्ले में वह छापेदार सूती धोती पहने थी. दोनों पांवों में ठोस चांदी के कड़े थे, जो आधा सेर से कम के नहीं होंगे. मुझे लग गया, कि हो न हो यह स्त्री जमनापारी (बुन्देलखंडी) है. मैंने पूछा, कि ‘का महोबे की हौ बहिनी?’ दिल्ली-एनसीआर की कौरवी बोली के बीच अपनी बोली सुनकर वह विह्वल हो गयी. बोली- ‘हाँ, भैया, महोबा के पास लौंडी की हौं!’ यह लौंडी महोबा से खजुराहो के बीच है. और संभवतः मध्य प्रदेश में है, जबकि महोबा उत्तर प्रदेश में. वह यहाँ अपने बेटे के पास आई है, जो ठेकेदारी करता है. उस स्त्री ने बताया कि वह शुगर से परेशान है.
दिल्ली की डेमोग्राफी कितनी तेज़ी से बदली है, मैं सोचने लगा. साल 1983 में मैं जब जनसत्ता के सारे रिटेन टेस्ट और इंटरव्यू क्वालीफाई करके पहले ही बैच में सेलेक्ट हो गया, तो मुझे प्रभाष जी ने तीन इन्क्रीमेंट के साथ उपसंपादक के पद पर रखा. उस समय जनसत्ता के लोगों को वही वेतनमान मिलता था, जो इंडियन एक्सप्रेस के बंदों को, यानी ‘पालेकर-वन ए’. तब मुझे 1463 रूपये तथा 78 पैसे मिलते थे. यह भी शर्त थी कि जब तक कन्फर्म नहीं हुए, तब तक कोई पीएल (प्रिविलेज लीव) या एमएल (मेडिकल लीव) नहीं मिलेगी. केवल सीएल मिल सकती हैं, वह भी 21 दिन के काम के बाद ही. हमारी जॉयनिंग 20 जुलाई को हुई, किन्तु अखबार निकला 17 नवंबर को. तब तक संपादक प्रभाष जोशी जी हमें शीघ्र निकलने वाले जनसत्ता अखबार की भाषा कैसी होगी, यही समझाते रहे. यह निहायत बोरिंग सीख थी. पहले बैच में कानपुर से आए दो बंदे (मैं और राजीव शुक्ला) सेलेक्ट हुए. कुछ दिनों बाद दूसरे चयन में एसपी त्रिपाठी भी आ गए. हम तीनों उस समय उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े अखबार दैनिक जागरण छोड़ कर आए थे, और फिर शहर कानपुर की बोली का अपना मिजाज़. हमें प्रभाष जी की भाषा की क्लास अटपटी लगती, क्योंकि वे हम को ‘अपन’ बोलते और चौधरी को चोदरी. इसलिए हम तीनों ही हर शनिवार को कानपुर भाग जाते और सोमवार को लौट आते. यदा-कदा छुट्टी लेते तो पैसा कटता. राजीव ने अपने संबंधों से लोदी कालोनी में एक डी-वन फ़्लैट का जुगाड़ कर लिया. उसमें तीन कमरे थे. एक कुमार आनंद ने लिया, एक राजीव ने और एक मैंने. उसमें एक बड़ी-सी लॉबी थी और पीछे छोटा-सा किचेन गार्डन. हम लोग ग्राउंड फ्लोर के उस फ़्लैट पर कभी ताला नहीं लगाते थे. जिसकी जो ड्यूटी हो, उस हिसाब से आए-जाए. कुमार आनंद की और मेरी शादी हो चुकी थी, बल्कि मेरे तो बच्चे भी थे. हम अपनी पत्नियों को भी ले आए. इसके बाद कानपुर की नियमित आवा-जाही का सिलसिला कुछ थम गया. एक दिन मेरी पत्नी ने शाम को मेरे लौटते ही पूछा, कि गेरया का मतलब क्या है? जारी
Copyright @ 2019 All Right Reserved | Powred by eMag Technologies Pvt. Ltd.
Comments