चाय के साथ चुटकी भर रूमान

गोवा की आजादी में लोहिया का योगदान पत्रकारों पर हमले के खिलाफ पटना में नागरिक प्रतिवाद सीएम के पीछे सीबीआई ठाकुर का कुआं'पर बवाल रूकने का नाम नहीं ले रहा भाजपा ने बिधूड़ी का कद और बढ़ाया आखिर मोदी है, तो मुमकिन है बिधूड़ी की सदस्य्ता रद्द करने की मांग रमेश बिधूडी तो मोहरा है आरएसएस ने महिला आरक्षण विधेयक का दबाव डाला और रविशंकर , हर्षवर्धन हंस रहे थे संजय गांधी अस्पताल के चार सौ कर्मचारी बेरोजगार महिला आरक्षण को तत्काल लागू करने से कौन रोक रहा है? स्मृति ईरानी और सोनिया गांधी आमने-सामने देवभूमि में समाजवादी शंखनाद भाजपाई तो उत्पात की तैयारी में हैं . दीपंकर भट्टाचार्य घोषी का उद्घोष , न रहे कोई मदहोश! भाजपा हटाओ-देश बचाओ अभियान की गई समीक्षा आचार्य विनोबा भावे को याद किया स्कीम वर्करों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न क्या सोच रहे हैं मोदी ?

चाय के साथ चुटकी भर रूमान

सतीश जायसवाल 

चाय को हमारी आदतों का हिस्सा हुए बहुत दिन नहीं हुए.वह हमारे अपने बचपन के दिनों की बात है और हमारी याददाश्त के भीतर है.यही कोई ६०-७० बरस की बात.इससे अधिक पुरानी नहीं.स्कूल से घर लौटते हुए मैंने वह देखा है.चाय कम्पनी के लोग चाय के प्रचार प्रसार के लिए निकलते थे.और चौक-चौराहों-नुक्कड़ों पर गुमटियां और ठेले लगाकर चाय पिलाते थे, जिसका कोई दाम नहीं लेते थे.उसे मुफ्त कहना थोड़ा हल्का लगता है.लेकिन मुफ्त की वह लत ऐसी  लगी कि अब चाय के बिना सुबह नहीं होती.कुछ के तो बिस्तरे ही नहीं छूटते.वह बिस्तरे वाली चाय हुयी - बेड टी.साहबों और रईसजादों की चाय, जिनके घर नौकर-चाकर से भरपूर होते हैं.या फिर शानदार होटलों और आलीशान गेस्टहाउसों की विलसिताएं .

अब चाय बाजार का अपना आरएन्डडी है, अर्थात रिसर्च एन्ड डेवलपमेंट जो कहता है--पानी के बाद चाय ही दुनिया में सबसे अधिक पी जाने वाली चीज़ है.हमारी आदतों का हिस्सा हुये चाय को चाहे जितने भी दिन हुए,लेकिन उसका इतिहास पुराना है.बताया जाता है कि चाय की खोज सबसे पहले चीन में हुयी.ईसा पूर्व २७०० के आसपास.फिर बौद्ध भिक्षुओं के साथ चलकर वह जापान पहुंची.जापान एक पारंपरिक देश है.उनके यहां चाय पीने का तरीका भी पारम्परिक होता है.वो लोग वज्रासन में बैठकर चाय पीना पसन्द करते  हैं.उनकी चाय हमारे यहां से अलग होती है.और उनकी चाय के कप-केटली भी कुछ अलग.

तरह-तरह के हमारे शौकों में एक दौर 'पेनफ्रेंडशिप'का भी रहा है, जो देश-दुनिया के युवाओं को एक-दूसरे से जोड़ता था .मेरी भी एक जापानी पत्र-मित्र थी --एमिको इनोयू.उसने मुझे अपने यहां की चाय पत्ती, कप और केटली उपहार में भेजी थी.वह हरी पत्तियों वाली चाय थी और उसका अर्क सुनहरा पीला था.उन कपों को पकड़ने के लिए, हमारे यहाँ की तरह कोई हैण्डल भी नहीं था.उसने पत्र लिखकर मुझे बताया था कि वहाँ ऐसे ही कप होते हैं.वो लोग इन कपों को अपनी हथेलियों में दबाकर धीरे-धीरे और देर तक चाय की चुस्कियां लेते रहते हैं।

हमारे यहाँ के मणिपुर से होकर म्यांमार के लिए एक रास्ता  है.इस रास्ते से होकर जाने पर उधर का पहला शहर -- तामू है.मैं वहाँ गया हूँ.वहाँ पहुँचकर मन किया कि किसी होटल में बैठकर एक-एक कप चाय पी जाए.वह एक अनुभव होगा.उसमें म्यांमार का स्पर्श होगा.वहाँ ड्रैगन वाली चीनी सजावट थी.और चीन में होने की तरह ही कुछ लग रहा था.चाय के पहले उन लोगों ने एक जग में गरम पानी लाकर हमारी टेबल पर रख दिया.उसका रंग पीला था.और उसमें कोई स्वाद भी नहीं था.फिर भी वहाँ के लोग स्वाद लेकर वह पी रहे थे.मुझे लगा कि शायद यही यहां की चाय होगी.इस पर मुझे हैरानी भी हुयी.लेकिन वह चाय नहीं थी.चाय तो उसके बाद आयी.तब समझ में आया कि यहाँ चाय पीने का यही तरीका है।

xxxxx

हमारे यहां चाय की खेती और उसके स्थानीय बाजार में पहुँचने के बीच काफी फासला रहा है.चाय पर ब्रिटिश कंपनियों का अधिपत्य था.उन कंपनियों ने हमारे यहां की चाय को पहले बाहर भेजा.स्थानीय बाजार बाद में खोला.और घरोँ ने तो डरते-झिझकते हुए ही चाय के लिए अपने दरवाज़े खोले.शुरुआती दिनों की चाय में चाय कहाँ होती थी ? दूध होता था.उसमें कुछ बूँदें चाय की पड़ जाती थीं.वह भी डरते-डरते ही.दूध का रंग थोड़ा सा बदल गया और बस हुआ.इस पर एक अंग्रेज़ शिक्षक,डेविड हॉर्सबर्ग कहा करते थे --  बिल्लियां दूध पीती हैं.

डेविड हॉर्सबर्ग ऋषिवैली में एक अंग्रेज़ शिक्षक थे.कुछ दिनों के लिए हमारे यहां आये थे.हमारे मेहमान थे.वह खादी के कपडे पहिनते थे.और उन्होंने हिन्दी भी सीख ली थी.लेकिन मुझे सेटिश कहकर ही बुलाते थे.उन्होंने भारतीय नागरिकता ले ली थी.लेकिन चाय की उनकी आदत अंग्रेजी की अंग्रेजी ही बनी रही.बिना दूध वाली चाय पीते थे.

xxxxx


चाय एक बार हमारी आदत में शामिल हुयी तो फिर चाय को कहानी-कविता में भी जगहें मिलीं.और चाय पीने के तौर-तरीकों के किस्से भी चलने लगे.चाय के साथ मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की नफासत पसन्दगी ऐसी ही थी.किसी किस्से के तरह की ही.उन्होंने तो चाय पीने के सलीके पर सलीके से लिखा भी था.वैसे सलीके के साथ चाय पीने वालों में उनकी पीढी के दो लोगों के नाम भारतीय राजनीति के किस्सागो किस्म के लोगों के पास अब दस्तावेज़ी हो चुके हैं.ओडिशा के मुख्यमंत्री रहे बीजू पटनायक और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे पण्डित श्यामाचरण शुक्ल.चाय पीने के इनके सलीके किसी अँगरेज़ से कम नहीं थे.

अब तो खैर शराब भी वैसे सलीके से नहीं पी जाती.बस,बेवज़ह की बदनामी ही ग़ालिब के नाम के साथ जुड़ गयी.अलबत्ता,यह जरूर  हुआ कि ग़ालिब की नामावरी ने या इस बेवज़ह की बदनामी ने हिन्दी फिल्मों में शराब के लिए एक ख़ास मुकाम तय कर दिया.लेकिन चाय को हिन्दी फिल्मों में वह जगह कभी हासिल नहीं हुयी जो शराब की रही है.शरत चन्द्र चट्टोपाद्याय के उपन्यास पर बनी फिल्म ''देवदास'' ने तो शराब को ट्रेजेडी नायकों की एक पहिचान ही बना दी थी.लेकिन राजकपूर ने इसके बर-अक्स चाय का एक ऐसा रूमान  रचा जिसकी छुअन अभी तक बनी हुयी है.उनकी फिल्म ''श्री ४२०'' में चाय का वह कोमल प्रसंग ! किसी पुल के कोने पर दुअन्नी वाली चाय की अपनी केतली और सिगड़ी लेकर बैठा हुआ वह, मूछों वाला भैय्या.और उस बरस रही बारिश में नरगिस-राजकपूर के बीच एक छाते की साझेदारी में कितना कुछ पनप गया --प्यार हुआ, इकरार हुआ...

एक छाते की वह भीगती हुयी साझेदारी पीढ़ियों का सपना रचने लगी -- मैं ना रहूंगी, तुम ना रहोगे: फिर भी रहेंगी निशानियां..." मुझे जब भी मुम्बई की कोई बरसात मिलती है, मैं दादर के उस रेल-पुल तक जरूर जाता हूँ, जो दादर ईस्ट और वेस्ट को जोड़ता है.शायद मैं दुअन्नी की चाय वाले उस भैय्या को वहाँ ढूंढता हूँ, पुल के इस या उस कोने में बैठा हुआ मिल जाए.जारी 

  • |

Comments

Subscribe

Receive updates and latest news direct from our team. Simply enter your email below :