एक पत्रकार की डायरी

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एक पत्रकार की डायरी

दिल्ली में अरहर की दाल

शंभूनाथ शुक्ल 

एक दिन मेरी पत्नी ने शाम को मेरे लौटते ही पूछा, कि गेरया का मतलब क्या है? मैंने कहा, कि क्या मामला है? उन्होंने बताया, कि आज कूड़े वाली स्त्री ने उनसे कहा, कि ‘बीवी जी! उत्थे कूड़ा न गेरया करो, चलान हो जाएगा!’ मैंने उनको समझाया कि पंजाबी में “गेरया” यानी गिराना, फेकना. और चलान अर्थात चालान. पंजाबी में दीर्घ स्वर को हल्का कर देते हैं. उनके यहाँ संयुक्ताक्षर नहीं है. वे सदैव सिल्क को ‘सिलक’ और तिलक को ‘तिल्क’ बोलेंगे. स्कूल या स्टूल में हम पहले ‘इ’ लगाते हैं, पर वे सकूल या सटूल ही बोलेंगे. उसी वर्ष खिचड़ी का त्यौहार पड़ा. हमारे यहाँ इस दिन उड़द की हरी दाल और चावल से खिचड़ी बनती है. पर दिल्ली में कहीं भी उड़द की हरी दाल नहीं मिली. पता चला, कि यहाँ हरी दाल मूंग की होती है, और उड़द की काले छिलकों वाली. अरहर के नाम पर यहाँ तब धुली मूंग देते थे अथवा मसूर, जिसे वे पीली दाल बोलते थे. खारी बावली में जरूर अरहर की दाल कानपुरी दाल के नाम पर मिलती थी. पर वह बहुत महंगी होती, और उसे खाने वाले और भी कम. तब दिल्ली में ‘सत्तू’ माँगना अपनी हँसी उड़वाना होता. दूकानदार फ़ौरन कहता, कि ‘बिहारी’ हो! और बिहारी का मतलब तब पंजाबी अच्छा नहीं समझते थे. उस समय दिल्ली पर पंजाबियों का राज था, और उनका ही लोकाचार यहाँ मान्य था. ‘बस रुकती है, को ‘खड़ती’ है जैसे वाक्य सुनकर लगता, कि दिल्ली छोड़ दूं. तब यहाँ शायद ही कोई कानपुर का मिलता, और मिलता भी तो उखड़ा-उखड़ा, जो हर दिवाली या होली अथवा रक्षाबंधन को गोमती पकड़ कर चला जाता. 

लेकिन 1990 के बाद दिल्ली की जनसंख्या में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ. मंडल के बाद हज़ारों की संख्या में बिहार की क्रीम आबादी दिल्ली आने लगी. ये कोई यहाँ रोटी की तलाश में मजदूरी करने नहीं आए थे, ये आए थे यहाँ क्रीमी मौकों की तलाश में. इन्होंने मकान खरीदे, और हर जगह अपना शेयर माँगा, जो इन्हें मिला भी. दस साल के भीतर ही दिल्ली से पंजाबियों का दबदबा और लोकाचार समाप्त हो गया. बिहार के बाबू साहब और मंडल से उभरे दिल्ली और उसके आसपास के गुर्जर एवं जाट उन पदों पर आ गए, जिन पर अब तक पंजाबियों का कब्ज़ा था. नौकरशाही, राजनीति और विश्विद्यालयों के अहम् पदों पर. यहाँ तक कि छात्र राजनीति में भी. साल 2010-11 में बुंदेलखंड से लोगों का पलायन शुरू हुआ. उस समय हर तीसरा रिक्शा खींच रहा व्यक्ति झाँसी, हमीरपुर, बाँदा, महोबा आदि का होता. उनकी औरतें घरों में काम करतीं. उनमें से अधिकतर ब्राह्मण या ठाकुर जाति के होते. इन दोनों जातियों को वहां से भागना पड़ा, मंडल के कारण उभरे नए दादुओं की वज़ह से. धीरे-धीरे वहां के लोग भी दिल्ली की हवा में रच-बस गए, और दिल्ली की डेमोग्राफी बदल गयी. यह महोबे की स्त्री इसी समीकरण से उभरी. 

अब दिल्ली की आबादी का रेशियो फिर बदल रहा है. इसे बदला, ओला और उबर जैसी सेवाओं ने. इनके ड्राइवरों में ज्यादातर एटा. इटावा, मैनपुरी, बदायूं और अलीगढ़ के लोग मिलते हैं और उनमें सबसे अधिक यादव फिर राजपूत, ब्राह्मण तथा दलित. मुसलमान भी खूब मिलते हैं, पर वे ज्यादातर हापुड़ और बुलंदशहर के हैं, जो किसी वज़ह से खाड़ी के देशों में नहीं खप सके. किसी ने कितना अच्छा कहा है, कि दिल्ली दिलवालों की है. यह किसी की नहीं हुई, और कोई इसका नहीं हुआ. पांडवों से लेकर क्षत्रियों, राजपूतों, तुर्कों, मुगलों, मराठों तक और फिर अंग्रेजों एवं पंजाबियों तक का दबदबा यहाँ रहा जरूर पर कील (खूँटा) ठोंक कर कोई नहीं कह सका, कि वह दिल्ली वाला है, और किसी का भी लोकाचार यहाँ स्थायी नहीं रहा.

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