रीता तिवारी
कोलकाता.एक मछली के पूरे तालाब को गंदा करने वाली कहावत तो बहुत पुरानी है. लेकिन एक मछली ऐसी भी है जो एक पूरी कौम के सामाजिक ताने-बाने और संस्कृति में काफी गहरे रची-बसी है, भले ही वह कौम दो देशों की सीमाओं में क्यों न बंटी हो. इस मछली को आम बोलचाल में हिल्सा और बांग्ला में इलिस कहा जाता है. यूं तो यह ओडीशा और आंध्र प्रदेश में भी बड़े चाव से खाई जाती है, लेकिन पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और असम की बराक घाटी में बसे बंगालियों के लिए यह महज एक मछली नहीं, बल्कि इस कौम की सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान है.यानी मछली वाली कहावत को अगर हिल्सा के संदर्भ में कहना हो तो कहना पड़ेगा कि एक मछली सिर्फ दिलों ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय सीमा की दूरियों को भी मिटा सकती है. वैसे तो यह पड़ोसी बांग्लदेश की राष्ट्रीय मछली है. लेकिन इसके मूल में बंगाली ही हैं. यानी हिल्सा से बंगालियों का रिश्ता जन्म-जन्मांतर का है. माछ-भात यानी मछली-बात का जिक्र होते ही मन में बंगाल और बंगालियों की तस्वीर उभरती है.यह वही मछली है जिसके बेमिसाल स्वाद के लिए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह शाकाहार छोड़ने तक को तैयार हो गए थे.
मूल रूप से बंगालियों के लिए एक स्टेटस सिंबल का दर्जा हासिल कर चुकी इस मछली का पश्चिम बंगाल में सेवन देश की आजादी के बाद बढ़ा. इसकी वजह थे तत्कालीन पूर्वी बंगाल से यहां पहुंचने वाली बंगाली शरणार्थी. तीन साल पहले तक तो सबकुछ ठीक-ठाक चला. लेकिन वर्ष 2012 में बांग्लादेश ने जब से हिल्सा के निर्यात पर पाबंदी लगा दी तब से एक आम बंगाली की दिनचर्या और खानपान की आदतें भी बदल गई हैं.
वैसे तो हिल्सा का सेवन ओडीशा, त्रिपुरा, असम, आंध्र प्रदेश और मिजोरम में भी होता है, लेकिन जो बात बंगाल में है वह कहीं और नहीं है. शंकर छद्मनाम से लिखने वाले बांग्ला उपन्यसाकार मणि शंकर मुखर्जी बताते हैं कि पहले आम बंगाली परिवार में हिल्सा खाना और घर आने वाले अतिथियों को खिलाना शान की बात समझी जाती थी. लेकिन अब दूसरों को खिलाना महंगा सौदा हो गया है. वे बताते हैं कि डेढ़ से दो किलो वजन वाली हिल्सा सबसे अच्छी होती है. लेकिन इनकी कीमत एक हजार रुपए किलो से भी ज्यादा होती है और आपको इसके लिए पहले से विक्रेताओं को आर्डर देना होता है.
बंगाली हिंदू परिवारों में हिल्सा के बिना कोई भी शुभ काम पूरा नहीं होता. वह चाहे शादी-विवाह का मौका हो या फिर किसी पूजा या त्योहार का. बंगाली परिवार तो अपने बांग्ला नववर्ष पोयला बैशाख की सुबह की शुरूआत ही हिल्सा और पांता भात यानी रात भर पानी में भिगो कर रखे गए भात के साथ शुरू करता है. शादी के मौके पर वर पक्ष की ओर से वधू पक्ष को इलिस का जोड़ा उपहार दिए बिना बात ही नहीं बनती. हालांकि महंगाई की मार से अब इसकी जगह रोहू मछली ले रही है. हिल्सा वैसे तो बंगाल की खाड़ी में भी पाई जाती है. लेकिन समुद्री हिल्सा उतनी स्वादिष्ट नहीं होती जितनी नदी वाली हिल्सा. यहां गंगा में भी हिल्सा मिलती है. लेकिन बांग्लादेश स्थित पद्मा नदी की हिल्सा का स्वाद सबसे बेजोड़ होता है. हिल्सा की एक खासियत यह भी है कि यह रहे भले समुद्र के खारे पानी में, लेकिन अंडे नदी के मीठे पानी में ही देती है. अंडे देने के बाद अपने बच्चों के साथ यह फिर समुद्र की गहराइयों में लौट जाती है. हिल्सा की कीमत उसके साइज से तय होती है. जितनी बड़ी मछली, उतनी ही ज्यादा कीमत.
हिल्सा एक तैलीय मछली है. इसमें ओमेगा 3 फैटी एसिड भरपूर मात्रा में होता है. बंगाली लोग इस मछली को पचास से भी ज्यादा तरीकों से पका सकते हैं और हर व्यंजन का स्वाद एक से बढ़ कर एक होता है. कोलकाता के विभिन्न होटलों और रेस्तरां में बांग्ला नववर्ष और दुर्गापूजा के मौके पर आयोजित हिल्सा महोत्सवों में उमड़ने वाली भीड़ से इसकी लोकप्रियता का अंदाजा मिलता है.
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