मायावती की मजबूरी को भी समझें !

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मायावती की मजबूरी को भी समझें !

अंबरीश कुमार

लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद बहुजन समाज पार्टी की मुखिया ने अपनी भावी राजनीति का रास्ता तय कर लिया. वे कुछ समय पहले तक समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में थीं. लेकिन, आज वे कई मुद्दों पर केंद्र की भाजपा सरकार के साथ खड़ी नजर आ रही हैं. इन मुद्दों में मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां तथा कश्मीर नीति एवं अनुच्छेद 370 शामिल है.

मायावती उत्तर प्रदेश की राजनीति में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं और अस्तित्व के इस संघर्ष में बीजेपी के साथ दोस्ताना संबंध रखना उनकी मौजूदा रणनीति का हिस्सा है. उनका फौरी राजनैतिक लक्ष्य यूपी में नंबर दो यानी प्रमुख विपक्षी दल बनना है. ये काम सपा और कांग्रेस को कमजोर करके ही हो सकता है. यानी मौजूदा समय में बीएसपी के राजनीतिक हमलों की धार सपा और कांग्रेस के खिलाफ ही रहने वाली है.2019 के लोकसभा चुनाव में समूची हिंदी पट्टी में अगर ब्रांड मोदी को कहीं झटका लगा है तो वह उत्तर प्रदेश ही है, जहां बीजेपी को 9 सीटों का नुकसान हुआ. 2014 में यूपी में बीजेपी को 71 सीटें मिली थीं. इस बार उसकी जीती हुई सीटों की संख्या घटकर 62 रह गई. वह भी तब जबकि 2017 में यूपी में बीजेपी की सरकार बन चुकी थी. ऐसा सिर्फ इसलिए संभव हुआ क्योंकि सपा-बसपा का गठबंधन था.

इसके बावजूद बसपा की मुखिया मायावती ने न सिर्फ समाजवादी पार्टी का साथ छोड़ा बल्कि कई मुद्दों पर वे भाजपा के समर्थन में दिखी. ताजा मामला कश्मीर में विपक्षी दलों के दौरे का है, जिसे लेकर मायावती खुलकर भाजपा के साथ खड़ी हो गई हैं. कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने का समर्थन करते हुए उन्होंने बाबा साहब भीमराव आंबेडकर का भी हवाला दे दिया. वे यहीं तक नहीं रुकीं बल्कि भाजपा से ज्यादा कड़ा हमला विपक्षी नेताओं पर किया. मायावती ने कश्मीर की उस जनता के पक्ष में कुछ नहीं कहा जो पिछले तीन हफ्ते से घाटी में कैद है.

दरअसल, कांशीराम ने दलित आंदोलन से ताकत जुटाकर 1984 में बहुजन समाज पार्टी बनाई थी. इस पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग सबसे अलग रहती थी. दलित-पिछड़ों की विभिन्न जातियों को सत्ता में वाजिब प्रतिनिधित्व मिले, इसका उनके दौर में बीएसपी में बहुत ध्यान भी रखा जाता था. कांशीराम के समय तक यह सब ठीक से चला भी, पर मायावती ने सर्वजन का नारा देते हुए अगड़ी और संपन्न जातियों को भी सत्ता में हिस्सेदारी देना शुरू किया. पार्टी नेतृत्व में उनका दबदबा बढ़ता चला गया.



उसके पीछे दो वजह बताई जाती रही हैं. एक, दलितों के साथ अगड़ी जातियों के उम्मीदवार को टिकट देने से जीत की संभावना काफी बढ़ जाती है. करीब बीस फीसदी वोट उत्तर प्रदेश में बसपा के साथ टिका रहा है. इसमें अगड़ी जाति खासकर ब्राह्मण/राजपूत उम्मीदवार आठ-दस फीसदी वोट जोड़कर जीत का समीकरण बना देते रहे हैं. अगड़ी जातियों के उम्मीदवार पार्टी कोष में बड़ा योगदान भी दे देते रहे हैं. बसपा को कारपोरेट चंदा बहुत कम मिलता है, इसलिए इस तरह आए धन का महत्व समझा जा सकता है.

मायावती के लिए संकट की दो मुख्य वजहें हैं. एक तो सर्वजन के चक्कर में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को पार्टी संरचना और सत्ता में जो हिस्सेदारी मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिली. भाजपा ने इसे लेकर जमीनी स्तर पर ज्यादा ठोस काम किया. उसने न सिर्फ दलितों, पिछड़ों और अति पिछड़ों को अपने पाले में किया, बल्कि उनका हिंदुत्वकरण भी ठीक से कर डाला. कश्मीर मुद्दे पर अगड़ी जाति के एक सामान्य आदमी की जो सोच है, वही सोच दलितों-पिछड़ों की भी बन गई है. दलित पिछड़ों के इस हिंदुत्वकरण के चलते मायावती भी ऐसा कोई कदम नहीं उठा सकती हैं, जिससे उनका वोट बैंक और छिटक जाए.


दूसरे, उत्तर प्रदेश में उनके सामने बड़ी चुनौती समाजवादी पार्टी है, जो मुख्य विपक्षी दल की दावेदार है. मायावती का सारा प्रयास यह है कि सपा को मुख्य विपक्षी दल की भूमिका से बाहर कर उस जगह को वे खुद हासिल कर लें. इस खेल में भले भाजपा का फायदा हो जाए, पर सपा का नुकसान जरूर हो, यह उनकी रणनीति है. यही वजह है कि कभी उपचुनाव न लड़ने वाली बसपा ने इस बार के उपचुनाव में तेरह में से बारह उम्मीदवारों के नाम घोषित कर दिए हैं. एक उम्मीदवार का नाम घोषित होना है. गौरतलब है कि यूपी में जब सपा ने गोरखपुर और फूलपुर का लोकसभा उपचुनाव लड़ा था तो बीएसपी ने सपा का समर्थन किया था. उसी तरह कैराना में भी आरएलडी उम्मीदवार को सपा और बसपा दोनों के वोट मिले थे. इन्हीं उपचुनावों से यूपी में सपा-बसपा-आरएलडी के गठबंधन का आधार बना था. ये तीनों उपचुनाव बीजेपी हारी थी.

लोकसभा चुनाव से पहले हुए तीन राज्यों छतीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में मायावती की भूमिका को लेकर सवाल उठे थे. उसी समय ये आरोप लगा था कि बीएसपी इन राज्यों में कांग्रेस को हराने के लिए चुनाव लड़ रही है. बसपा ने जिस तरह से टिकट बांटे, उससे कांग्रेस को नुकसान और भाजपा को लाभ मिलना तय था. यह हुआ भी. दरअसल मायावती पर केंद्र का दबाव कम नहीं है. उनके भाई की आर्थिक मामलों में घेरेबंदी हो चुकी है. इनकम टैक्स डिपार्टमेंट उनके पीछे है. मायावती अगर भाजपा से ज्यादा विरोध करने लगीं तो सरकार सख्ती कर सकती हैं. लालू यादव के बाद चिदम्बरम उनके सामने दूसरा उदाहरण हैं.

इसी वजह से मायावती बहुत फूंक-फूंक कर कदम रख रही हैं. लोकसभा चुनाव में उनके मूल वोट बैंक का बड़ा हिस्सा भाजपा की तरफ जा चुका है. मुस्लिम उनके साथ पूरी ताकत से इसलिए भी था क्योंकि वे सपा के साथ गठबंधन में थी. अब गठबंधन टूटने के बाद मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी की तरफ गया तो बसपा के लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा. इसलिए उनके सामने बड़ी चुनौती आने वाले उपचुनाव में समाजवादी पार्टी को किसी भी तरह शिकस्त देना है.


दरअसल उत्तर प्रदेश में लड़ाई नंबर दो की ज्यादा है. उत्तर प्रदेश में अगले विधानसभा चुनाव में राजनैतिक-सामाजिक समीकरण कौन बेहतर ढंग से बना सकता है, इस पर भी बहुत कुछ निर्भर होगा. बसपा को भाजपा से समर्थन लेने में कोई दिक्कत भी नहीं आनी है. जबकि समाजवादी पार्टी के सामने यह विकल्प नहीं है. इसलिए उत्तर प्रदेश में बड़ी राजनैतिक लड़ाई फिलहाल सपा और बसपा के ही बीच होनी है.

अगर मायावती विधानसभा के उप-चुनाव में पूरी ताकत झोंकने जा रही हैं तो हैरान नहीं होना चाहिए. उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार कई मोर्चों पर घिरी हुई है. ऐसे में ये उपचुनाव उसके लिए भी प्रतिष्ठा का सवाल बन गए हैं. पर अगर भाजपा किसी विधानसभा क्षेत्र में खुद को कमजोर स्थिति में पायेगी तो बसपा को जरूर फायदा पहुंचाने का प्रयास कर सकती है. इसलिए मायावती ने अगर कश्मीर पर केंद्र सरकार के फैसले का समर्थन किया है तो यह अनायास नहीं है. मायावती इस समय भाजपा की मदद कर कांग्रेस पर हमला बोल रही हैं, तो भाजपा भी उनका ध्यान क्यों न रखे? द प्रिंट

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