ठंडी हवाएं लहरा के आयें...

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वीर विनोद छाबड़ा

उसने विद्रोह कर दिया.भाईयों ने बहुत समझाया फिल्मी दुनिया बहुत बुरी जगह है.यहां इसंान का नैतिक पतन होता है...यह जगह हमारे जैसे शरीफ़ खानदान के लोगों के लिए नहीं.बदनामी ही बदनामी है यहां बच्चों की शादी में अड़चन अलग से छोटे भाई-बहन हैं. अपना नहीं तो उनका ख्याल करो.’लेकिन वो अड़ी रहती है. उदाहरण देती है, अपनी मौसेरी बहन शोभना समर्थ (सुप्रसिद्ध अभिनेत्री नूतन और तनूजा की मां) का. लेकिन उससे कहा जाता है 'उनसे तुलना मत कर. वो लोग ऐसे-वैसे हैं.’ वो तब भी अडिग रहती है. उसकी बुरी तरह पटाई हुई. बाप ने पीटा और फिर भाईयों ने. मगर ये सब जुल्म-ओ-सितम उसका फ़ौलादी इरादा नहीं बदल सके. परिवार समाज की परवाह न करते हुए उसने बाबुल का आंगन छोड़ दिया. जहां उसके नसीब में खुशियां न हों वहां क्यों रहूं? वो अपने लिये जीती थी. उसके अपने सपने थे. दूसरों के सपने पूरे करने के लिये अपनी कुर्बानी क्यूं? उसे इमोशनल अपील से बेवकूफ नहीं बनाया जा सका. इसका नाम था नलिनी, नलिनी जयवंत. जन्म 18 फरवरी 1926 को बंबई में. 

नलिनी की पहली फिल्म ‘बहन’ (1941) थी. भाई का बहन के प्रति अगाध प्रेम. उसे सफलता मिली. पहली ही फिल्म से पहचान बन गयी. बड़ी बात थी. लेकिन उस वक़्त उम्र बहुत कम थी. बामुश्किल 15 साल. परिपक्व भूमिकाओं के लिये अभी वक़्त नहीं आया था. वो 1948 में एक बार फिर से रोशनी में आयी. हालांकि तब तक आंख मिचौली, आदाब अर्ज सहित पांच फिल्में कर चुकी थी. लेकिन ‘अनोखा प्यार’ में दिलीप कुमार और नरगिस के साथ उसने तहलका मचाया. प्रेम त्रिकोण की इस फिल्म में कुर्बानी का हिस्सा नलिनी के नसीब में आया. उस युग में त्रासदी फिल्म के अंत में दर्शकों के आंसूओं और तालियों का सबसे ज्यादा हिस्सा त्रासदी के शिकार को ही मिलता था. ‘अनोखा प्यार’ ने यह तथ्य पुख्ता किया था कि नलिनी फिल्मों में लंबे अरसे के लिये ठहरने जा रही है. इस बीच 1946 में नलिनी ने सामाजिक सुरक्षा के मद्देनज़र प्रोड्यूसर वीरेंद्र देसाई से शादी कर चुकी थी. मगर उनका दांपत्य जीवन सुखी नहीं था. इसके साथ ही नलिनी त्रासदी का पर्याय बनने की राह पर चल पड़ी. 

दिलीप कुमार के साथ नलिनी ने रमेश सहगल की ’शिकस्त’ (1953) की. इसमें नलिनी कुंठित और बददिमाग विधवा है जो सारा दिन इधर-उधर लोगों से बेवजह उलझती फिरती है. उसे समाज सुधारक दिलीप कुमार इंसान बनाने का बीड़ा उठाया और इधर नलिनी उनके प्यार में दीवानी हो गई. ये बेहद कामयाब फिल्म थी. अशोक कुमार के साथ ‘समाधी’ (1953) ने नलिनी के कैरीयर में नई उछाल दी. स्वतंत्रता आंदोलन में नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनकी इंडियन आर्मी के योगदान पर आधारित थी यह फिल्म. नलिनी इस फिल्म में अशोक कुमार की जासूसी करती थी. लेकिन वो स्वंय ही उनकी मोहब्बत की गिरफ़्त में आ गयी. नलिनी ने उसी साल ‘संग्राम’ में एंटी हीरो अशोक कुमार को सुधारने का बीड़ा उठाया. इस फिल्म की कामयाबी से नलिनी अशोक कुमार की जोड़ी बनी. कहा जाता है कि ‘समाधी’ के दौरान ही नलिनी और अशोक कुमार काफी करीब आये थे. और यह करीबी रिश्ता अगले दस साल तक चला. लेकिन अशोक कुमार से नलिनी को वो सहारा नही मिला जो कुमार सेन से शादी के बावजूद नूतन और तनूजा की मां शोभना समर्थ को मोती लाल से मिला था. अशोक कुमार के साथ होते हुए भी नलिनी तन्हा रही.

नलिनी ने निर्माता-निदेशक प्रभु दयाल से शादी करके एक नया रिश्ता बनाया इस उम्मीद में कि यह आखिरी और स्थायी ठौर होगा. लेकिन यह शादी भी बर्बादियों की सौगात लाई. प्रभुदयाल की फिल्में फ्लाप हो रही थीं. वो गहरे अवसाद में चले गये. बोतल का दामन थाम लिया. नलिनी के हिस्से में फिर तन्हाईयां आयीं, सिर्फ़ तन्हाईयां. नलिनी का जादू पांच के दशक में सर चढ़ कर खूब बोला. नलिनी अपने व्यक्तित्व और आला दरजे की परफारमेंस के दम पर इंडस्ट्री में आला मुकाम बनाने वाली मीना कुमारी, नरगिस, नूतन, मधुबाला, वहीदा व वैजयंतीमाला सरीखी नायिकाओं के समकक्ष अदाकारा थी. ‘जादू’ (1951) में वो एक जिप्सी लड़की थी जो एक पुलिसवाले से प्यार कर बैठी थी. आखिर में त्रासदी पर खत्म हुई थी यह फिल्म. इसका यह गाना हिट हुआ करता था - जब नैन मिले नैनों से. एक और कामयाब फिल्म ‘नौजवान’ (1951) थी जिसका यह गाना हर खासो आम की जुबान था- ठंडी हवाएं लहरा के आयें... ‘नास्तिक’ (1954) का हीरो अजीत था. उसे ईश्वर के अस्तित्व पर यकीन नहीं था. उसके दिल में प्यार का दीप जलाने का जिम्मा नलिनी को सौंपा गया. जो इंसान से प्यार करता है वो भगवान से दूर नहीं रह सकता. बरसों बाद 1985 में जब ‘नास्तिक’ का रीमेक बना तो नलिनी की याद आयी. हालांकि तब तक वो पचास की हो चुकी थी. इसमें वो अमिताभ बच्चन की खोई हुई अंधी मां थी.

फिल्मिस्तान की ‘मुनीमजी’ (1955) में नलिनी की देवानंद के साथ जोड़ी खूब फबी. इसका यह सुपर हिट गाना आज भी जु़बां पर है- जीवन के सफ़र में राही मिलते हैं बिछुड़ जाने को.. इसे जीवन दर्शन के रूप में देखा गया और आज तक जीवन की असलियत टटोलने वाले इस गाने में झांकते हैं. देवानंद के साथ नलिनी की एक और यादगार फिल्म थी - राज खोसला निर्देशित ‘कालापानी’ (1956). इसमें नायिका पत्रकार मधुबाला थी और नलिनी सेकेंड लीड में तवायफ़ किशोरी थी, जिसके सीने में प्यार के लिये तड़पता हुआ धड़कता दिल था. इस निगेटिव विद् पाजा़ेटिव टच की भूमिका में उसने फिल्म लूट ली. उसी की नेकी कि कारण हीरो ने हत्या के जुर्म में काला पानी की सजा भुगत रहे अपने पिता को बेगुनाह साबित किया था. इसका यह गाना आज भी गुनगुनाया जाता है - नज़र लागी राजा तोहे बंगले पे.. इस फिल्म के लिये देवानंद को सर्वश्रष्ठ अभिनेता का और नलिनी को सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरुस्कार मिला थी. रमेश सहगल की ‘रेलवे प्लेटफार्म’ (1955) एक और यादगार फिल्म है. इसका यह गाना आज भी सुना जाता है- बस्ती बस्ती, परबत परबत गाता जाये बंजारा, लेकर दिल का इक तारा. यह सुनील दत्त की पहली फिल्म थी. शम्मीकपूर के साथ फिल्मिस्तान की ‘हम सब चोर हैं’ (1956) मजे़दार जबरदस्त हिट थी. नलिनी ने एक डाक्यूमेंटरी फिल्म ‘हमारा हिंदुस्तान’ (1950) भी बनायी थी. 

नलिनी के फिल्मी जीवन की पहली पारी 1941 से लेकर 1965 तक रही. इस दौरान उसके हिस्से में महज़ 53 फिल्में आईं. मगर निजी जीवन की उथल-पुथल ने उसकी परफारमेंस पर कोई प्रभाव नहीं डाला. यकीनन वो बहुत प्रतिभाशाली थी. अशोक कुमार, दिलीप कुमार, देवानंद, अजीत, शम्मीकपूर आदि उस दौर के तमाम बड़े नायकों के साथ उसकी जोड़ी बनी. लेकिन किसी भी फिल्म में वो सिर्फ चेहरा दिखाने वाली नायिका नहीं रही. कहानी का अहम हिस्सा रही. उसकी भूमिकाओं में परफार्म करने का भरपूर स्कोप रहा जिसका उसने पूरा-पूरा दोहन किया. उसकी मौजूदगी फिल्म को लिफ्ट करने में भी कामयाब रही. 

नलिनी की आखिरी कुछ फिल्मों में एक थी- अमर रहे ये प्यार. यह पति प्रभुदयाल ने निर्देशित की थी. निर्माता थे मशहूर कामेडियन- राधा किशन. भारत-पाकिस्तान के विभाजन की पृष्ठभूमि में बनी यह बहुत अच्छी फिल्म थी. राजेंद्र कुमार के साथ नंदा थी. लेकिन बाज़ी नलिनी के हाथ रही. सेंसर बोर्ड की संकीर्ण मनोवृति के कारण फिल्म झमेले में फंसी रही. और जब विलंब से रिलीज़ हुई तो बाक्स आफिस पर औंधे मुंह गिर पड़ी. अग्रतर त्रासदी यह रही कि निर्माता राधा किशन ने आत्महत्या कर ली और निर्देशक पति प्रभुदयाल एक बार फिर बोतल में घुस गये. नलिनी कुछ नहीं कर सकी. 

नलिनी की बतौर नायिका आखिरी फिल्म ‘बांबे रेस कोर्स’ थी. लोग नलिनी को भूलने लगे. लेकिन न जाने कैसे भूले-भटके एक हमदर्द को उसकी याद आयी और तन्हा जीवन में खुद को गर्क चुकी नलिनी राजेश खन्ना की ‘बंदिश’ में दिखी. और फिर 1954 की अपनी ही नाम वाली ‘नास्तिक’ (1985) में दिखी. लगा जैसे नलिनी वाकई लौट आयी है. मगर जाने क्या हुआ, किस मोड़ पर ग़लत हुआ. वो लौट गयी अपनी तन्हा जिंदगी के अंधेरे में. पचास और साठ के दशक में नलिनी की कुछ अन्य लाजवाब फिल्में थीं - आंखें, मकद्दर, एक नज़र, नौजवान, काफ़िला, जलपरी, दोराहा, बाप-बेटी, कवि, आन-बान, फिफ़्टी-फिफ़्टी, दुर्गेश नंदिनी, कितना बदल गया इंसान, मिस बांबे, मिस्टर एक्स, मिलन, सेनापति, जिं़दगी और हम, गल्र्स हास्टल और तूफान में प्यार कहां. 

छोटे कद व गठीले बदन की नलिनी की बड़ी-बड़ी आंखें, आमंत्रित करते होंट और चेहरे पर टपकता चुलबुलापन बरबस ही किसी का भी ध्यान आकर्षित कर लेता था. वो एक जगह टिक कर बैठ नहीं सकती थी. सेट पर भी इधर से उधर डोला करती थी. मगर अंदर ही अंदर उसे अकेलेपन का गम खाता रहा. उसका कोई स्थायी साथी नहीं था जो उसके मन को पढ़ सके, उसके दुख और अकेेलेपन को शेयर कर सके. मां-बाप, भाई-बहन और परिवार, दोस्तों सभी ने ठुकराया. पहले पति वीरेंद्र देसाई से पटी नहीं. दूसरा पति प्रभुदयाल अपने ही ग़म से खाली नहीं था. साठ के दशक के मध्य तक नलिनी एक्टिव रही. फिर नई नायिकाओं की आमद, बदलते सामाजिक मूल्य और नये आसमान. नलिनी का वक़्त खत्म हो चुका था. उसने अकेलेपन के अंधेरे को अपना साथी बना लिया. उसने मान लिया कि उसका अपना कोई नहीं. यहां आदमी सिर्फ खुद से प्यार करता और जीता है. अस्सी के दशक में ‘बंदिश’ और ‘नास्तिक’ को छोड़ कर नलिनी ने कभी बाहर की दुनिया नहीं देखी. उनके कुछ ही नाते रिश्तेदार थे. कुछ मित्रगण उनसे मिलने आते थे. लेकिन उनकी मौजूदगी नलिनी को अच्छी नहीं लगती थी. वो चुपचाप बैठी रहती. फिर यह जान कर कि नलिनी अपनी तनहाईयों से खुद ही बाहर नहीं आना चाहती तो उन्होंने भी किनारा कर लिया. 

नलिनी के एक मित्र का कहना था कि वो असुरक्षा की भावना से पीड़ित थी. आस-पास रहने वालों से यदा-कदा ही कभी बात हुई हो. सच तो यह था कि उनमें से अधिकतर को नहीं मालूम था कि उनके पड़ोस में कभी लाखों दिलों पर राज करने वाली बीते दिनों की शोख हसीना रहती है. उसने दो कुत्ते पाल रखे थे. वही उसके अभिन्न साथी थे. उन्हीं से वो बात करती थी. उसे डर लगता था कि उन्हें कुछ हो न जाये. इसीलिए वो उनकी सेहत का बहुत ध्यान रखती. उनको बढ़िया खाना देती. उन्हें कभी तन्हा नहीं रहने देती. उनके एक पड़ोसी ने बताया था कि कुछ दिन पहले उसने नलिनी को लंगाड़ते हुए देखा था. पैर में चोट लगी थी. उसने चिंतित होकर डाक्टर की मदद का प्रस्ताव दिया. मगर नलिनी ने मना कर दिया. 

22 दिसंबर 2010 को चेंबूर के अपने बड़े से बंगले में पुलिस और एंबुलेंस की मौजूदगी को देख कर अड़ोस-पड़ोस में रहने वाले चैंके. पता चला कि नलिनी की दो दिन पहले मृत्यु हो चुकी है. वो उस वक्त तन्हा थी. उसे दिल का दौरा पड़ा था. वो किसी को बता भी नहीं सकी. उसके कुत्ते इधर-उधर भटक रहे थे. कुछ लोगों को यह जान कर ताज्जुब हुआ कि यह लाश गुज़रे वक्त की मशहूर अदाकारा नलिनी जयवंत की है. जब उनका शव एंबुलेंस से जा रहा था तो कोई भी रिश्तेदार, मित्र मौजूद नहीं था. बाद में किसी दूर के रिश्तेदार ने उनके शव को पहचानने की औपचारिकता निभाई और अंतिम संस्कार किया. 

नलिनी की मृत्यु पर सिर्फ पुराने सिनेमा से जुड़े मीडिया के एक हिस्से ने शोक व्यक्त किया. इलेक्ट्रिानिक मीडिया ने कोई त्वजो नहीं दी. जब कभी कोई म्यूज़िक चैनल गोल्डन इरा के गोल्डन दिनों की बात चलाता है तो पचास के दशक की शोख हसीना नलिनी जयवंत ठंडी हवा के झोंके की तरह आती है और दिल की ओर इशारा करते हुए गा उठती है- नज़र लागी राजा तोहे बंगले पे, जो मैं होती राजा बेला चमेलिया, लिपट रहती राजा तोहे बंगले पे. मृत्यु के समय तन्हाई की दोस्त नलिनी की आयु 84 साल थी. कभी-कभी पीछे मुड़ कर लाखों के दिलों की मलिका नलिनी के बारे में सोचता हूं तो बरबस मुंह से यही निकलता है कैसे-कैसे लोग होते है? क्यों दुनिया से अलग एक तन्हा दुनिया बसा लेते हैं लोग?


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