ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना

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ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना

संजय स्वतंत्र

मैं जा रही हूं

उसने कहा,

जाओ- मैंने उत्तर दिया,

यह जानते हुए भी कि जाना,

हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है.

बरसों पहले पढ़ी कवि केदारनाथ सिंह की ये पंक्तियां मुझ जैसे हिंदी के साधारण विद्यार्थी को तत्काल समझ में नहीं आई कि जाना भला कौन सी खौफनाक क्रिया है? जिंदगी की थोड़ी बहुत समझ बढ़ने और लेखकीय तथा पत्रकारीय कर्तव्यों को निभाते हुए जाना कि जाना क्यों खौफनाक क्रिया है.केदार बाबू सहजता से बता गए कि जाने वाला फिर कहां लौटता है.जो जिंदगी से निकल गया, न वह लौटता है और और न वे वापस आते है जिनकी सांसों की डोर टूट जाती हैं.जो चले गए सो चले गए.उनके चेहरे और उनका किया-धरा सब यादों की पोटली में बंध जाता है.पहले श्रीभगवान सुजानपुरिया फिर अनंत डबराल.दोनों ही जनसत्ता के बेहतरीन पत्रकार.मगर असमय ही चले गए.इसके बाद आलोक तोमर और फिर प्रभाष जी.... प्रभाष जी यानी जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी.और अब श्रीशजी।

 श्रीशजी यानी जिनके बिना जनसत्ता की कल्पना नहीं की जा सकती.प्रभाषजी ने बेशक हिंदी का ठेठ और तेज-तर्रार अखबार गढ़ा हो, मगर लंबे समय तक अखबार श्रीशचंद्र मिश्र ने ही निकाला.कौन थे श्रीशजी? यह जानना जरूरी है उन युवाओं के लिए जो पत्रकारिता में कदम रख रहे हैं और उन पत्रकारों के लिए भी जो हर घड़ी गुमान में रहते हैं.या फिर तैश में रहते हैं.  

 ... तो यादों की पोटली खुल गई है.मेरे सामने वह पत्र है जिसे तत्कालीन समाचार संपादक के हस्ताक्षर के साथ जारी हुआ और डाकिया दे गया.इसमें लिखा है-

  प्रिय संजय जी,

          हमारे विज्ञापन के जवाब में आए आपके निवेदन के सिलसिले में सूचना है कि आप रविवार 27 जुलाई को लिखित टेस्ट के लिए एक्सप्रेस बिल्डिंग में सुबह ग्यारह बजे आएं.टेस्ट चीन से चार घंटे ले सकता है.सफलता की शुभकामनाओं सहित,

आपका, 

अच्युतानंद मिश्र            

  हिंदू कालेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद एमफिल में जुटे मुझ जैसे सामान्य छात्र के लिए जनसत्ता से यह चिट्ठी आना बड़ी बात थी.हालांकि तब मैं स्वतंत्र लेखन कर रहा था.कुछ पैसे भी मिल जाते थे.खैर पेपर हुआ.यह बिल्कुल सिविल सेवा परीक्षा की ही तरह था.सवालों का कोई सिरा नहीं छोड़ा गया था.परचा अच्छा गया.वहीं दो बेहतरीन मित्र मिले.एक आर्येंद्र उपाध्याय और दूसरे बालेंदु दाधीच.इन पर चर्चा फिर कभी.... कुछ ही दिनों बाद रात दस बजे मुझे भारतीय डाक विभाग का तार मिला.जिसकी प्रति अभी मेरे सामने रखी है.इसमें लिखा है- रीच जनसत्ता देहली फॉर इंटरव्यू आॅन ट्यूजडे.... खुशी-डर और आशंका जैसी कई भावनाएं मन में आ-जा रही थीं.करीब 35 लोगों को साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था.जिनमें पांच जनों का चयन हुआ.ये थे- बालेंदु, अंबरीश कुमार, गंगेश मिश्र, रजनी नागपाल, आर्येंद्र उपाध्याय और आपका यह मित्र.यह वह दौर था जब प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी कर रहे युवा भी जनसत्ता से जुड़ने के लिए लालायित थे.आज भी वे अफसर पुराने दिनों को याद करते मिल जाते हैं.मैं आपको बता दूं कि आइएएस अफसरों की एक भरी-पूरी जमात जनसत्ता की प्रशंसक रही है.वहीं नेताओं और कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग इस अखबार का कद्रदान रहा।

 ऐसे दौर में इतने प्रतिष्ठित संस्थान के देश भर में चर्चित हिंदी समाचारपत्र में नौकरी मिलना बड़ी बात थी.तब इसके प्रधान संपादक प्रभाष जोशी थे.उनसे कभी सीधे मुलाकात तो नहीं होती थी, मगर वे अकसर डेस्क पर चले आते.सबसे मिलते.देश के नामचीन संपादक.गरिमामय व्यक्तित्व.मगर साथियों के लिए सहज.झट कंधे पर हाथ रख देते.सम्मान में कोई खड़ा भी होता तो तुरंत बैठा देते.यह उनका बड़प्पन था.मैं प्रशिक्षु उप संपादक था.सामने डाक डेस्क के प्रभारी शंभूू जी यानी शंभूनाथ शुक्ल अपनी टीम के साथ देश भर से आई डाक की खबरों को देखते.उनके साथ ज्यादातर युवा पत्रकार थे.यथा- संजय सिंह, अमरेंद्र राय, सुनील शाह, प्रदीप पंडित, अजय शर्मा और संजय सिन्हा.और ठीक सामने गंगेश के साथ मैं राजधानी पेज पर. कामर्स पेज के प्रभारी उमेश जी जब शाम को चले जाते तो उनकी डेस्क पर यदा-कदा हमारा कब्जा हो जाता.और साथियों की तरह हम भी श्रीशजी की ही देखरेख में थे.प्रशिक्षण के के बाद और उसके बरसों बाद भी मैं सीधे उनके ही मातहत रहा.मुझसे जो गलतियां होती, उसे वे ही सुलटा देते.याद नहीं कि कभी राहुल जी या ओम थानवी जी ने बुला कर डांटा हो.अच्युतानंद जी तो कमरे में बुला कर मिठाई खिला देते थे.कुछ समय बाद समझ में आया कि श्रीश जी तो सबके लिए कवच हैं।

आज के दौर में पत्रकार जब उच्च वेतमान और बड़ी कुर्सी पाकर अपने जूनियर की ऐसी तैसी करने लगता है तो ऐसे में श्रीशजी को याद करना चाहिए.जिन्होंने तीन दशक के कार्यकाल में न तो किसी पत्रकार की निंदा की और न झाड़ लगाई और न ही संपादक से कभी शिकायत की.वह भी तब जबकि इस बात का वे अधिकार रखते थे.उप संपादक से स्थानीय संपादक के पद पर पहुंच जाने के बाद भी कोई अहंकार नहीं.विनम्रता, सादगी और सहजता ऐसी कि एक पल में वे अपने से लगने लगते थे.आज टीवी के पत्रकारों से मिलता हूं तो हैरानी होती है.भारी भरकम सैलरी, महंगे परिधान और आसमान छूते अहंकार में दबे ये पत्रकार कभी झुक कर बात करना शायद ही सीख पाएं.ऐसे में श्रीशजी से सीखना चाहिए साथियों के प्रति सौम्यता क्या चीज होती है.उनसे कैसे बात करनी चाहिए.और किसी बात को लेकर कभी मतभेद हो जाए तो कैसे भूूल कर आगे बढ़ा जाता है.

   आज श्रीश जी के साथ काम कर चुकी एक पीढ़ी इस वक्त अखबारों और टीवी चैनलों में बड़े पदों पर हैं.वे उनके मूल्यों को साथ लेकर गए हैं.कुछ अच्छी बातें मैंने भी उनसे सीखी.उनके साथ काम करते हुए कितने बरस निकल गए, पता ही नहीं चला.श्रीशजी का कार्यकाल मेरे सामने पूरा हुआ.अंतिम दिन काम खत्म करने के बाद हम साथ ही घर लौटे थे.इससे पहले न जाने कितनी बार उन्हें घर छोड़ा, पर उस दिन लगा जैसे जनसत्ता के एक युग का अवसान हो गया.प्रभाष जी और श्रीशजी का जाना हमारे लिए एक युग का समापन ही था.और फिर उनका सचमुच चले जाना खौफनाक क्रिया ही है.यह आज बहुत गहराई से समझ में आ रहा है.

श्रीशजी अखबार को सजा-धजा कर पेश करने के कभी पक्षधर नहीं रहे.उनका कहना था कि पाठक सिर्फ खबर पढ़ना चाहता है.उसे समय पर अखबार मिलना चाहिए.ये सजाने का चकल्लस मैंने ही शुरू किया.तब राहुल देव कार्यकारी संपादक बन चुके थे.उनकी मौन सहमति थी.श्रीशजी ने भी आपत्ति नहीं जताई.वे चाहते तो मुझे डांट सकते थे.आखिर वे बॉस थे.मगर एक प्रयोगधर्मी अखबार को खुद को थोड़ा बदलते रहना चाहिए, इससे असहमत भी नहीं थे.मैंने समाचार सार की शुरुआत की.इसे बाद में दूरदर्शन और हमारे प्रतिद्वंद्वी अखबार ने भी छोटी खबरों के रूप में अपनाया.संस्था संवाद, मौसम और मुख्य खबरों में खास इंट्रो तथा पाइंटर भी लगाना मैंने ही शुरू किया.जिसे राहुल जी ने और साथियों ने भी पसंद किया.हालांकि कुछ को आपत्ति थी.आज अखबार जिस बदलाव के साथ पाठकों को खबरें परोस रहे हैं उनमें सूचना कम और सजावट ज्यादा होती है.इसलिए श्रीशजी ने हिंदी अखबारों को पढ़ना थोड़ दिया था.मगर जिस अखबार के वे बरसों समाचार संपादक और संपादक (दिल्ली क्षेत्र) रहे, उस अखबार के पाठक भी अंत समय तक बने रहे.बल्कि वे इसके लिए कभी-कभी लिखते भी रहे.

  श्रीशजी पान और मिठाई के बहुत शौकीन थे.हमने घर लौटते समय पुरानी दिल्ली की रबड़ी भी खूब खाई.मिठाई के प्रति उनका प्रेम काफी महंगा पड़ा.वे शुगर के शिकार हुए.फिर बाद में बीपी की शिकायत भी शुरू हो गई.मगर फिर भी वे घर और परिवार को साधते हुए हम सभी साथियों के लिए हमेशा हौसला बने रहे, उनके होने भर से हम निश्चिंत रहते.उनकी सेवानिवृत्ति के बाद जब दफ्तर की गाड़ी से अकेले घर लौटता तो उनकी बहुत याद आती.लगता जैसे वे साथ ही चल रहे हैं.मगर अब नहीं.अब वे मैत्रेयी अपार्टमेंट के बाहर इंतजार करते हुए भी नहीं मिलेंगे.न ही किसी होली और दिवाली पर पान वाले से अपना बीड़ा बंधवा कर मुझसे मीठा पान खा लेने के लिए इसरार करेंगे.अलबत्ता पश्चिम विहार में डॉ. अरुण जी जरूर मिलेंगे.नहीं मिलेंगे तो बस अब श्रीशजी.शुभ्रा मुझे माफ करना मैं अंतिम समय में उनको विदा करने भी नहीं आ पाया.

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