श्रीश जी का जाना

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श्रीश जी का जाना

अंबरीश कुमार 

जनसत्ता के स्थानीय संपादक रहे श्रीश चंद्र मिश्र के जाने की खबर मिली तो धक्का लगा .कुछ समय पहले उनसे बात हुई थी .किसी की मदद के लिए फोन किया था .वर्ष 1988 में जनसत्ता परिवार का हिस्सा बना था .डेस्क पर था और रात की पाली में में रहता तो दिन में कवरेज के सिलसिले में दिल्ली और आसपास आना जाना होता .दफ्तर आते आते देर हो जाती .पर श्रीश जी के चलते मुझे यह सुविधा मिल जाती थी .वे मेरी दिक्कत को जानते समझते थे . रात में अक्सर श्रीश जी ही अपने चीफ सब होते .वह दौर जनसत्ता का था .एक तरफ अरुण शौरी इंडियन एक्सप्रेस का मोर्चा संभाल रहे थे तो प्रभाष जोशी ने जनसत्ता को हिंदी का पहला अख़बार बना दिया था .पर उसे गढ़ने में बहुत से लोग थे .इनमे महत्वपूर्ण भूमिका श्रीश जी की भी थी .हम लोग कुछ उग्र स्वभाव के भी थे .बाद में एक्सप्रेस प्लांट यूनियन की राजनीति ने और उग्र बना दिया था .विवाद भी चलते रहते .डेस्क पर भी और रिपोर्टिंग में भी .पर वे श्रीश जी ही थे जो जनसत्ता के पत्रकारों को न सिर्फ संभालते बल्कि लगातार काम भी करवा लेते थे अपने स्वभाव से .याद नही कभी किसी ने उन्हें नाराज होते देखा हो .मुस्कराता हुआ चेहरा ,कोई कितने भी गुस्से में हो श्रीश जी के सामने आते ही शांत हो जाता था .ऐसा व्यक्तित्व था उनका .कितनी विचारधारा के लोग थे जनसत्ता में .गांधीवादी ,समाजवादी,वामपंथी और धुर वामपंथी .इनके साथ संघ परिवार का भी एक बड़ा खेमा था .जाहिर है विचारों की टकराहट होती ,विवाद होता .पर प्रभाष जोशी का अनुशासन ऐसा कि खबरों पर कोई असर न पड़ने पाए यह ध्यान रखा जाता .ऐसे में श्रीश जी डेस्क को संभालते थे .जनसत्ता को गढ़ने में डेस्क की बड़ी भूमिका भी थी .बड़े राजनीतिक विवाद का दौर था वह .रामनाथ गोयनका तब एक्सप्रेस बिल्डिंग में न सिर्फ बैठते बल्कि अक्सर कारीडोर में दिख भी जाते .अरुण शौरी अक्सर बेसमेंट में बने डेस्क पर आते जाते रहते तो प्रभाष जी देर रात भी पेज देखने आ जाते .कई बार बनते हुए पेज में भी बदलाव करवा देते .स्टाफ कम होता और काम ज्यादा .अंग्रेजी की स्टोरी का अनुवाद भी होता .बोफोर्स पर अरुण शौरी .गुरुमूर्ति से लेकर मानेक डाबर सब तो लिखते .बोफोर्स की एक स्टोरी के कई हिस्से कर दिए जाते .चार पांच लोग अनुवाद करते फिर अभय कुमार दुबे उसे दुरुस्त करते .इन सब के साथ वे श्रीश जी ही तो थे जो सारी व्यवस्था देखते .कई बार रात में एक या दो साथी होते तो वे खुद खबर बनाने बैठ जाते .फिल्म और खेल तो उनकी दिलचस्पी का क्षेत्र था .श्रीश के नाम से ही लिखते .

दरअसल जनसत्ता की डेस्क को लंबे समय तक श्रीश जी ने ही संभाला भले कोई भी न्यूज एडिटर रहा हो .प्रभाष जोशी भी यह बात जानते समझते थे .और बाद के दो तीन संपादक भी .जनसत्ता को बनाने में डेस्क की बड़ी भूमिका थी तो डेस्क को सँभालने में श्रीश जी की बहुत बड़ी भूमिका थी .कोई अहंकार नहीं कोई दुराव नहीं .और आठ दस घंटे तक काम करते रहना .ऐसे पत्रकार बहुत कम होते है .बहुत याद आएंगे श्रीश जी .बहुत से पत्रकारों को उन्होंने गढ़ा और बनाया .और जनसत्ता को बनाने वालों में भी वे प्रमुख थे .

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