दिलीप चिंचालकर को जानते हैं आप

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दिलीप चिंचालकर को जानते हैं आप

जयंत सिंह तोमर 

जनसत्ता अखबार का लोगो डिजाइन करने वाले दिलीप चिंचालकर चले गए .प्रभाष जोशी ने जनसत्ता का मास्ट हेड डिजाइन कराया था .कैसा खींचता हुआ वह अक्षर है .आप क्या उन दिलीप चिंचालकर को जानते हैं .  संपादक राहुल बारपुते , कला गुरु देवलालीकर, पंडित कुमार गंधर्व, राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी , विष्णु चिंचालकर, बाबा डिके जैसे मनीषियों ने मालवा की जिस सुगंध को दिग- दिगंत में फैलाया था, दिलीप  चिंचालकर ने उसी परंपरा को आगे बढ़ाया.कुछ साल पहले जाड़ों में दिल्ली पुस्तक मेले के समय दिलीप  जी के साथ  गांधी शांति प्रतिष्ठान से प्रगति -मैदान तक  जब पैदल चल रहा था, पूछ ही लिया था- " अनुपम मिश्र जी की जितनी किताबों के लिए आपने चित्र बनाये उनमें रेखाओं की जगह रेत से झरते कण में आकृति कैसे बनाईं? "

स्मित हास्य के साथ बोले थे-" अनुपम जी राजस्थान के कुंआ- बावड़ी- तालाब पर लिख रहे थे. तब लगा कि मरुथल में रेत होता है. तो क्यों न आकृतियों को रेखाओं की वजाय रेत जैसे कण में बनाया जाए. तब यह चित्र मरुथल की प्रकृति के ज्यादा करीब होंगे."

हमें दिलीप  जी के विषय में तब तक यह जानकारी थी कि वे इंदौर के कला -गुरु विष्णु चिंचालकर के बेटे हैं, जनसत्ता अखबार का मास्ट - हेड प्रभाष जोशी जी ने उनसे बनवाया, बाद में राम बहादुर राय जी ने ' यथावत' पत्रिका का मत्था भी उन्हीं से बनवाया, और अनुपम जी अपने प्रिय चित्रकार के रूप में अपनी सभी किताबों और प्रकाशनों में उन्हीं से चित्र बनवाते हैं. साथ में इतना कि  भारत- भवन भोपाल के न्यासी के आसन को भी सुशोभित किया है.इसी जानकारी के आधार पर मैंने दिलीप  जी से उनकी कला- यात्रा के विषय में पूछ लिया था. जवाब में बोले- ' ट्रक चलाये, छापे की मशीन चलाई, डिजाइन को लेकर काम किया, नाइट्रोजन को लेकर कुछ काम किया, बस यही सब. "

तब तक हम लोग पुस्तक- मेले की भीड़- भाड़ में पहुँच चुके थे, लिहाजा बातचीत अधूरी रह गयी. सोचा बाद में कभी विस्तार से बात करेंगे.

इस अवधि में बार बार यह समझने की कोशिश करता रहा कि चित्रकला और डिजाइन का ट्रक ड्राइवरी और नाइट्रोजन आदि से क्या सम्बन्ध है? फिर यह कह कर मन को समझाते रहे कि जब गुरुजी विष्णु चिंचालकर हवाई -चप्पल से मोनालिसा बना सकते हैं तो उनके सुयोग्य बेटे की प्रयोगधर्मिता की क्या सीमा हो सकती है.हवाई चप्पल से मोनालिसा बनाने का किस्सा भी अनुपम मिश्र जी से ही गांधी शांति प्रतिष्ठान के ' पर्यावरण- कक्ष' में ही सुना था.बाद में सोपान जोशी से विस्तार से जानकारी मिली जिसमें पता चला वे मूल रूप से विज्ञान के विद्यार्थी रहे और रसायन शास्त्र में पीएच डी करने आस्ट्रेलिया गये थे. सोपान जी के माध्यम से उनका एक बार ग्वालियर आने का कार्यक्रम बना जो किसी कारणवश सम्भव नहीं हुआ.अनुपम जी की डांट दिलीप  जी बड़े प्रेम से सुनते थे.

अनुपम जी के अंतिम दिनों में जब एम्स में मिलने पहुंचा दिलीप  जी उनकी तीमारदारी करते जा रहे थे और झिड़की सुनते जा रहे थे. उस क्रम में डांट खाने और झिड़की सुनने का नम्बर मेरा आना था, और आया भी. अनुपम जी बोले थे- ' तुमने गांधी-मार्ग के लिए कभी कुछ लिखा नहीं.' 

हमने इतना ही कहा - गांधी- मार्ग का अपना एक स्तर है. मेरा लेखन उतने ऊंचे दर्जे का है नहीं. इसलिए संकोच करता रहा.संपादक राहुल बारपुते , कला गुरु देवलालीकर, पंडित कुमार गंधर्व, राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी , विष्णु चिंचालकर, बाबा डिके जैसे मनीषियों ने मालवा की जिस सुगंध को दिग- दिगंत में फैलाया था, दिलीप  चिंचालकर ने उसी परंपरा को आगे बढ़ाया. निस्पृह भाव से.उन्होंने पक्षी विज्ञानी सलीम अली का सान्निध्य लिया. शायद उन्ही के प्रभाव में बेटी का नाम गौरैया रखा. मालवा की माटी की यह सुगंध अब कैसे कब तक वातावरण को सुरभित करेगी दिलीप  चिंचालकर के जाने के बाद अभी तो यही सोचता हूँ.

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