कम्युनिस्ट सरकार का जनवादी हक पर हमला

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कम्युनिस्ट सरकार का जनवादी हक पर हमला

के विक्रम राव

 केरल की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट सरकार ने नागरिकों, विशेषकर महिलाओं की, मानमर्यादा की सुरक्षा तथा ''उछृंखल'' सोशल मीडिया को व्यवस्थित करने हेतु गत दिनों एक अध्यादेश जारी किया है. इसके माध्यम से केरल पुलिस एक्ट, 2011, की धारा 128 में उपधारा 'ए'' जोड़ दी गयी है. माकपा मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन का दावा है कि इस कानून से ''निष्पक्ष पत्रकारिता'' तथा ''अभिव्यक्ति की आजादी'' को कोई भी खतरा नहीं होगा. हालांकि विधि—विशेषज्ञों और सामाजिक विश्लेषकों का मानना है कि इन्दिरा गांधी के दोनों सूचना मंत्रियों (इन्दर गुजराल और विद्याचरण शुक्ल) द्वारा जून 1975 में लागू किये गये प्रेस सेंसरशिप आदेश से केरल का यह नियम ज्यादा कठोर है. बिहार के कांग्रेसी मुख्यमंत्री स्व. जगन्नाथ मिश्र और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मानहानि विरोधी कानून तुलनात्मक रूप से केरल के इस अध्यादेश से बड़े मुलायम थे.

इस पुलिसिया अध्यादेश की आधारभूत वजह बतायी जा रही है कि विगत दिनों में माकपा मुख्यमंत्री के कार्यालय की दुबई से सोने की तस्करी में संलिप्तता पायी गई थी, जिसे मीडिया ने खूब प्रचारित किया. इससे पिनरायी विजयन को खौफ हुआ. केन्द्रीय प्रवर्तन निदेशालय द्वारा मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव एम. शिवशंकर, आईएएस, की कैद और केरल हाईकोर्ट से उनकी जमानत के विफल प्रयास तथा मुख्यमंत्री के निजी सचिव सीएम रवीन्द्रन को तस्करी का आरोपी नामित कर हिरासत में बाधित करने के समाचार का मलयाली भाषायी टीवी पर व्यापक प्रसार हुआ. इसे मुख्यमंत्री ने बहुत वीभत्स माना है. अत: तभी इस अध्यादेश की अनिवार्यता का एहसास हुआ.

       आखिर इस अध्यादेश में है क्या? इसकी धारा 128 ए के अनुसार पुलिस ही मुलजिम की शिकायतकर्ता हो सकती है. वही दण्डाधिकारी भी. अर्थात पीड़ित द्वारा प्राथमिकी दर्ज कराने की अपरहार्यता समाप्त हो गई. सजा के तौर पर तीन वर्ष की जेल और दस हजार रूपये का जुर्माना या दोनों. अपराध के कारणों में एक नया तत्व यह भी है कि सोशल मीडिया की खबर से अपराधकर्ता ने यदि ''दिमागी यातना'' पहुंचायी हो, तो वह दण्डनीय है. केरल के पूर्व विधि सचिव बीजी हरीन्द्रनाथ ने बताया कि ऐसी पीड़ा की परिभाषा पुलिसवाला ही तय करेगा. ऐसा अपराध करने वाले को तत्काल गिरफ्तार करने का अधिकार भी पुलिस को होगा.  इसलिए माकपा मुख्यमंत्री ने पार्टी प्रवक्ताओं को निर्दिष्ट कर दिया है कि किसी भी टीवी बहस में शिरकत नहीं करेगा.

नये कानून के अनुसार मानहानि का अपराध संज्ञेय होगा. अर्थात मानहानि का मुकदमा अब पीड़ित/आहत को दायर नहीं करना पड़ेगा. ऐसा इसलिये किया गया क्योंकि माकपा के मुख्यमंत्री का कहना है कि ऐसी पीड़ादायिनी सोशल— मीडिया पोस्ट के अंजाम में त्रासदपूर्ण वारदातें (आत्महत्या जैसी) हुईं हैं. ''शासन का कर्तव्य है कि नागरिक की स्वतंत्रता और गरिमा की हिफाजत करे.'' 

      कम्युनिस्ट शासन ने तर्क दिये है कि ऐसे नियम के द्वारा आहत प्रतिष्ठा को राहत, निर्बल की निरापदता, राष्ट्रीय सुरक्षा का हित, फर्जी और प्रायोजित समाचार पर रोक आदि जैसे जनहितकारी लाभ मिलेंगे. ''आखिर वामपंथी सरकार भी तो जनवादी होती है.'' ऐसे प्रतिबंध लगाना उसका कर्तव्य है. किन्तु विरोधियों को आशंका है कि इन बहानों की आड़ में सिविल आजादी की हत्या हो जायेगी. 

इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के महासचिव केपीए माजीद ने इल्जाम लगाया कि मीडिया की वाणी दबाने का माकपा शासन का यह कुत्सित प्रयास हैं. वायनाड के सांसद राहुल गांधी जिसका मुस्लिम लीग ने समर्थन किया था, का ध्यान लीग आकर्षित करेगी. माकपा की पोलित ब्यूरो के एक सदस्य का मानना है कि आलोचकगण इस कानून से असहमति का दमन करने का आरोप आयद करेंगे. कुछ ही महीनों बाद केरल विधानसभा का निर्वाचन भी है. उस पर कुप्रभाव पड़ सकता है. सोनिया—कांग्रेस के विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रमेश चेन्निथला ने कहा कि पिनरायी विजयन निजी हित में ऐसा विध्वंसक कानून ला रहे है. पूर्व केन्द्रीय गृहमंत्री पलनिअप्पन चिदम्बराम ने कहा, ''ऐसा कानून घबराहट सर्जाता है. मुझे धक्का लगा है.'' भाजपा की केरल इकाई के अध्यक्ष के.सुरेन्दन ने इस कानून की तीव्र भत्सर्ना करते हुए कहा कि राजनीतिक विरोध का गला घोंटने हेतु यह लाया गया है. वे आखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय नेता रहे. भारतीय काम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव तथा सांसद दोराईस्वामी राजा ने माकपायी मुख्यमंत्री को समझाया है कि इस अध्यादेश को विधानसभा में छह माह तक पेश ही न करें ताकि यह स्वत: निष्प्रभावी हो जाये. फिर मई में नये चुनाव होने ही है. विधानसभा भंग हो जायेगी.

       केरल के सभी श्रमजीवी पत्रकार संगठनों ने खुलकर इस अध्यादेश का विरोध किया है. मगर माकपा समाचारपत्र  ''देशाभिमानी'' मौन है. हालांकि माकपा के राष्ट्रीय महासचिव सीताराम येचूरी ने इसके पुनर्विचार का आग्रह किया है.  इण्डियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (IFWJ) ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द से अपील की है कि इस अध्यादेश को स्वीकृति कदापि न दें. आईएफडब्ल्यूजे ने स्मरण कराया है कि  सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 66 (आईटी एक्ट) को अवैध करार दिया था. उसमें और इस केरल एक्ट में पूरा सदृश्य है. श्रेया सिंधल वाले केस, (2015) में भी सर्वोच्च न्यायालय का यही निर्णय था. इस प्रकरण में भारत के आजाद आवाज के झण्डा बरदारों का मौन बहुत शोर मचा रहा है. चूंकि दोषकर्ता (केरल सरकार) जनवादी है. लाल परचम वाली है? क्या इसीलिये! तो वह बेगुनाह है? 

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