एक अजूबा थे, यार भी अहमद पटेल!

गोवा की आजादी में लोहिया का योगदान पत्रकारों पर हमले के खिलाफ पटना में नागरिक प्रतिवाद सीएम के पीछे सीबीआई ठाकुर का कुआं'पर बवाल रूकने का नाम नहीं ले रहा भाजपा ने बिधूड़ी का कद और बढ़ाया आखिर मोदी है, तो मुमकिन है बिधूड़ी की सदस्य्ता रद्द करने की मांग रमेश बिधूडी तो मोहरा है आरएसएस ने महिला आरक्षण विधेयक का दबाव डाला और रविशंकर , हर्षवर्धन हंस रहे थे संजय गांधी अस्पताल के चार सौ कर्मचारी बेरोजगार महिला आरक्षण को तत्काल लागू करने से कौन रोक रहा है? स्मृति ईरानी और सोनिया गांधी आमने-सामने देवभूमि में समाजवादी शंखनाद भाजपाई तो उत्पात की तैयारी में हैं . दीपंकर भट्टाचार्य घोषी का उद्घोष , न रहे कोई मदहोश! भाजपा हटाओ-देश बचाओ अभियान की गई समीक्षा आचार्य विनोबा भावे को याद किया स्कीम वर्करों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न क्या सोच रहे हैं मोदी ?

एक अजूबा थे, यार भी अहमद पटेल!

के विक्रम राव

अगस्त का पहला सप्ताह था, 2017 वर्ष का. लखनऊ में भाजपा ने एक भोज पार्टी रखी थी. राजधानी के चुनिन्दा जन आमंत्रित थे. मुझे भी निमंत्रण मिला. भाजपा मुखिया अमित शाह के टेबल पर कुर्सी भी मिली. मैं लगातार उनसे प्रश्न पूछता रहा, अहमद पटेल को राज्य सभा जाने से आप रोक पायेंगे? (गांधीनगर में 8 अगस्त 2017 को मतदान था.), बगलवाली कुर्सी पर उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य विराजे थे.  हर दफा अमित शाह का जवाब एक ही था, सधा हुआ, ''मैं जीतूंगा.'' वे भी प्रत्याशी थे. भाजपा जुट गयी थी कि नर्मदा तटवासी (भरुच जिला) किसान कुटुंब के अहमदभाई मोहम्मदभाई पटेल संसद भवन न पहुंच पायें. मतदान के तेरह दिवस बाद ही वे अड़सठवां जन्मदिवस मनाने वाले थे. भाजपा तत्परता से लगी रही कि पटेल को उपहार में हार मिले. मगर पटेल सांसद बन ही गये. उनके गृह प्रदेश में उनकी लंगड़ाती—टूटती कांग्रेस को संबल मिला. प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष की तमाम कोशिशों के बावजूद पटेल ने ढय्या छू ही ली? यह करिश्मा था.

 आम सियासतदारों से अहमदभाई एकदम जुदा थे. हर पार्टी को अपने ही वरिष्ठों पर ही संदेह होता रहा कि वह अहमदभाई का प्रछन्न सुहृद है. सहायक है. पटेल का व्यवहार इतना खांड (गुजराती में शक्कर) भरा होता था. राजनीति में शायद ही कोई मिले जो पर्दे के पीछे रहे और मंचासीन पात्र की डोरी उसकी उंगलियों से नत्थी  रहे. इसी कारणवश मैं अमित शाह से बारबार जानना चाहता था कि गांधीनगर के मतदान केन्द्र  से रथी (बल्कि महारथी) भाजपायी एक विरथ पटेल को पटखनी दे पायेंगे? यूं गुजरात का वर्षों से अधिकतर राज्यसभा निर्वाचन निर्विरोध होता रहा. बस एक बार स्मृति ईरानी (अमेठी से सांसद) जंजाल में फंस गई थीं, जब उन्होंने नरेन्द्र मोदी के 2002 के समय में मुख्यमंत्री पद और कृतियों की आलोचना कर दी थी. तब अटल बिहारी वाजपेयी ने मोदी को राजधर्म सिखाने का सुझाव रखा था.

           इसी सिलसिले में सूचना है कि ''टाइम्स नाऊ'' की एंकर नाविका कुमार ने समाचार साया कर दिया कि सोनिया—कांग्रेस ने पटेल की मौत के कुछ घंटों बाद ही पार्टी की वेबसाइट से पटेल की सूचना—परिचय आदि को हटा दिया गया. हालांकि इसे लोग अपुष्ट बताते रहे. 

अगर यह सच निकला तो कांग्रेसी पुरोधाओं से अधिक खुदगर्ज, विश्वासघाती और नीच मिलना कठिन है. साजिश की गहराईयों को छूनेवाले ही वे सब समझे जायेंगे.

                ताउम्र अहमद पटेल ने प्रत्येक याची की मदद ही की है, चाहे उनका वैचारिक रंगढंग जैसा रहा हो. कौन सी पार्टी है जिसमें दिग्गज कभी न कभी पटेल की कृपा के भोगी न रहे हों? इन्दिरा गांधी, उनके पुत्र, उनकी बहू और सरदार मनमोहन सिंह के दुर्दिन में पटेल ही तारक रहे थे.  

इस्लामी होकर गुजरात में उनका पनपना ही चकित करता है. अहसान जाफरी के बाद पटेल दूसरे मुसलमान थे जो गुजरात से सदन में पहुंचे थे. जाफरी 2002 के दंगों में मारे गये थे.

           भरुच से अस्सी किलोमीटर दूर स्थित वडोदरा में तब मैं ''टाइम्स आफ इंडिया'' का संवाददाता था. भरुच क्षेत्र से अहमद पटेल ने जिला पंचायत निर्वाचन से राजनीति शुरू की थी. फिर तीस साल के थे जब लगभग छठी लोकसभा के लिए इन्दिरा—कांग्रेस के प्रत्याशी थे. तब नर्मदा की बाढ़ की तरह इंदिरा विरोधी तूफान में उत्तर से पश्चिम तक कांग्रेस पार्टी बह गई थी. खुद इन्दिराजी रायबरेली से हार गईं थीं. गुजरात की 26 सीटों में केवल दस सीटें ही कांग्रेस जीत पायी थी. हमेशा (1952 से) तीन चौथाई हासिल करती थी. इस बार (1977) आधे से कम ही पर विजयी हुये. उनमें युवा कांग्रेसी अहमद पटेल भी थे. पार्टी में उनका सफर शुरु हुआ तो वरिष्ठतम नेता मोतीलाल वोरा के  स्थान (पार्टी कोषाध्यक्ष) तक पटेल पहुंचे. वापस मुड़कर नहीं देखा.

             पार्टी में गत वर्षों में माता—पुत्र के खेमे अलग हो गये थे. पटेल सोनिया के राजनीतिक सचिव बने रहे. राहुल अंदाज नहीं लगा पाये कि पटेल पार्टी के चकमक पत्थर है जिससे आग की लौ सर्जाती है. दियासलाई के बनने के पूर्व चकमक रगड़ कर आग पैदा की जाती थी. राहुल पटेलरूपी चकमक को साधारण ईट—पत्थर समझ बैठे थे. पटेल के पूर्व कांग्रेस में केवल वीर बहादुर सिंह (गोरखपुर वाले) ही थे जिनसे विपक्ष के नेता खौफ खाते थे. कब उनका सदस्य कांग्रेसी दामन थाम ले ऐसा खतरा बना रहता था. पटेल भी वीर बहादुर की लीक पर काफी प्रगति कर चुके थे.

अहमद पटेल के चार दशकों से राजनीतिक जीवन में सबसे अनपेक्षित, बल्कि अचरज भी घटना रही कि धुर मुस्लिम विरोधी शिव सेवा और सेक्युलर कांग्रेस को एक ही पलड़े में बैठाकर उन्होंने भानुमति का पिटारा रचा. शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने अपने शब्दकोश में बहुत उम्दा अपशब्द अहमद पटेल के लिए प्रयुक्त किये थे. उद्दव ठाकरे भी धिक्कार करने से पीछे नहीं रहे. बल्कि शिवसेना तो भारतीय मुसलमानों की नागरिकता ही निरस्त करने के पक्ष में रही. फिर भी शिवसेना से इतनी घिन के बावजूद ये दोनों विरोधी  ध्रुव रेखा की एक ही बिन्दु पर आ मिले.

आखिरी बार अहमद पटेल से मेरी भेंट दिल्ली में इन्दिरा गांधी विमान स्थल (टर्मिनल तीन) पर हुई थी. मैं मुंबई और वे अहमदाबाद से आ रहे थे. हाथ मिलाकर तपाक से गुजराती में बोले, '' घर पर आईये.'' मैंने चेताया कि पार्टी गुप्तचर आपको हानि पहुंचा देंगे. पर वे जिद करते रहे. मैं हितैषी के नाते नहीं गया. मैं पटेल की हानि नहीं चाहता था.एक बात तो कहनी पड़ेगी अपनी मौत से भी अहमद पटेल ने भाजपा सरकार पर हमला बोल ही दिया. वे कोविड 19 से मरे. इससे साबित हो गया कि सरकार महामारी की रोकथाम में निकम्मी हो रही. प्रचार मात्र ही हो रहा है.

  • |

Comments

Subscribe

Receive updates and latest news direct from our team. Simply enter your email below :