चंचल
नौ दिसम्बर को दो साहित्यकार हमसे विदा लेते है . पहले त्रिलोचन जी 2007 मे , फिर तेरह साल बाद 2020 को भाई मंलेश डबराल . दोनो ही अपने विचार से , अपने उद्गार से और अपनी ' सहज ' भाषा में अपनी जमीन से जुड़े खड़े मिलते हैं . जिसे ' अपनी मिट्टी का मोह ' कहते हैं . एक गांव से है और दूसरा पहाड़ से . सादगी और बेबाकी दोनो ही सोंधी महक देता है . त्रिलोचन कहते हैं - 'उस जनपद का कवि हूँ ' और अपनी शख्सियत का बखान अपने जनपद में लपेट कर सामने खड़े हो जाते हैं . तन कर . भाई मंगलेश डबराल अपनी बेबसी के साथ अपना मोह उठाते हैं -
' मैंने शहर को देखा ,
और मुस्कुराया
वहां कोई कैसे रह सकता है ,
यह जानने मैं गया ,
और वापस न आया . '
दोनो रचनाकार कलम करुणा के साथ उठाते हैं , चौंकाते नही , सहज और सरल मन से बगल बैठ कर , बना घुमाते है और आपको अपने सात्ज अपनी जमीन पर चले पैरों के निशान दिखाते है . यह साहित्यकार जाने , हम अनावश्यक अतिक्रमण नही करेंगे . कर भी नही सकता . लेकिन दोनो से अलग अलग का रिश्ता रहा है , उस बहाने से हम याद कर रहे हैं .
त्रिलोचन जी पर लिख चुका हूं , कई जगह , कई नामी कागदों से छापा और सराहा . क्यों कि हमने उनके व्यक्तिगत जीवन के अन्य कहे हिस्से को उठाया है . यहां भाई मंगलेश डबराल से अपने मुलाकाती हिस्से को आपके सामने रखना चाहता हूं .
सत्तर बहत्तर की बात होगी या उससे भी पहले की . जॉर्ज ( फ़र्नान्डिस ) ' प्रतिपक्ष ' साप्ताहिक निकाल रहे थे , हौज खास इसका दफ्तर था . वहाँ जार्ज ने मंगलेश जी से मिलवाया . इस दफ़्तरौर इसके संपादक जार्ज फ़र्नान्डिस ने अनगिनत लोंगो से मिलने और समझने का मौका दिया . भाई रमेश थानवी , स्नेहलता रेड्डी , कमलेश जी , वगैरह . और ये रिश्ते बने रहे .
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मंगलेश जी पहाड़ से थे .
अरसे बाद हम दिनमान पहुंचे थे , बतौर ट्रेनी . नेत्र सिंह रावत से हमारी खूब पटती थी . साहित्य , पत्रकारिता , कला , विचार , भाषा , ये सारी जिवनोपयोगी सहूलियतें और सलीका एक जगह देखने को मिला . ' दिनमान ' हनक ऐसी की बड़े बड़े पत्रकार उसे पढ़ने के लिए लालायित रहते थे . एक से बढ़ एक . रघुवीर सहाय . बोलने में कंजूस , लिखत में चोख नुकीले हमले . सर्वेश्वर जी , श्यामलाल शर्मा , प्रयाग शुक्ल , भाई त्रिलोक दीप , जवाहर लाल कौल , विनोद भारद्वाज , शुक्ला रुद्र , नेत्र सिंह रावत , सुषमा परासर , कहने का मतलब यह कहीं से भी दफ्तर नही लगता था . जब मर्जी तब आ रहे हैं . ठहाकों का दौर . इतना खिला और खुला माहौल हमने फिर नही देखा . सबसे मजेदार ' इंट्री ' होती थी , नेत्र सिंह रावत की . दोनो हाथ पैंट की जेब मे डाले ऐसे टहलते हुए आते थे जैसे सुबह की सैर पर हैं . हमारी नेत्र सिंह से खूब पटती थी . दिनमान में वे फ़िल्म पर लिखते थे , उप संपादक थे . हमने जितनी विदेशी फिल्में उनकी सोहबत में रहते हुए देखी , फिर कभी नही . नेत्र सिंह रावत ने आते ही हमे बुलाया -
- चंचल ! इनसे मिलो ये हैं मंगलेश डबराल .
- मिल चुका हूं . जार्ज के प्रतिपक्ष में .
मंगलेश जी भूल चुके थे . हमें गौर से देखा और मुस्कुराहट के साथ हमारा हाथ थाम लिए . हायह की वह तपिश , अपनापन अब तक जस का तस बना हुआ है कि कि दिल्ली में रहते हुए बार बार ' रिन्यूवल ' होता रहा .
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असकत
एक दिन दिल्ली का हो गया . 82 की बात है . टाइम्स हाउस में मुलाजमत करने लगा . दिनमान तो था ही , अलग अलग नाम से सारिका में लिख रहा था . तब तक दिनमान से बाहर के लोंगो से भी परिचय हो गया था . एक दिन पता चला कि शानी जी ( हिंदी के मशहूर और मकबूल लेखक गुल शेर खां शानी जी ) भी मयूर विहार आ रहे हैं , रहने के लिए . चलो एक 'आमदनी ' और हुई . अल सुबह की चाय कहाँ जो जाय कुछ तय नही रहता था . क्यों कि उस समय तक 'सारे दुखिया जमुना पार '
( यह शानी जी की ही टिप्पणी थी जो सारिका में छःपी थी . एक सुबह शानी जी ने जोर का ठहाका लगाया - यार चंचल ! तुमने तो कमाल कर दिया कल तुम्हे सारिका में पढ़ रहा था , तुमने एक शब्द हमारे जगदलपुर का उठा लिया है . मजा आ गया .
- कौन सा शब्द ?
- असकत . यह हमारे बस्तर का शब्द है , भोजपुरी और अवध में कैसे पहुंच गया ? तुम्हे बोलना है इस विषय पर . हम ' समझ ' गए . आप नही समझे होंगे .
मयूर बिंहार में शानी जी की शाम बगैर महफ़िल के नही गुजरती थी . ये विषय वगैरह सब बहाने होते . और शाम गाढ़ी होने लगी . भाई प्रयाग शुक्ल , गिरधर राठी , विष्णु खरे , भाभी चित्रा मुद्गल , अवधनारायण मुद्गल और मंगलेश डबराल . उस रात मंगलेश डबराल ने जिस सुर और ताल में शास्त्रीय टुकड़े के साथ गाना गाया वह यादगार शाम रही .
- एक बात बताओ भाई मंगलेश ! हमारे बस्तर का एक शब्द है अस्कत . यह आपके यहाँ भी है ?
- है , न बोलचाल में खूब है
- प्रयाग जी ने तस्दीक किया यह बंगाल तक मे है .
- विष्णु खरे जी ने अपनी आवाज में कहा भाषा
उड़ती है , हवा के साथ , पराग की तरह , जहां जहां विश्राम कर ले . जब तक दिल्ली रहा और जमुनापार रहा तीसरे या चौथे दिन महफ़िल जमती . अब का पता नही , महेश दर्पण ने बताया अब न मुसल्ला है , न ही नमाज . सब उजाड़ हो गया है .
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