हरि मृदुल
ऐसा लग रहा था कि जैसे श्वेत धवल वस्त्रों में कोई संत चला आ रहा है. एक निर्लिप्त सी चाल. पठानी सूट और शॉल ओढ़े हुए जब यह शक्स थोड़ा करीब पहुंचा, तो स्पष्ट हो गया कि वे कौन हैं? और कौन? यूसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार. छाया की तरह उनके साथ रहनेवाली उनकी शरीकेहयात सायरा बानो उन्हें संभाले हुए थीं. हम उन्हीं के बंगले में थे. सायरा जी ने ही आमंत्रित किया था. दरअसल उन्होंने एक भोजपुरी फिल्म अब तो बन जा सजनवा हमारश’ प्रोड्यूस की थी. उस दौर में भोजपुरी इंडस्ट्री उरूज पर थी. हर हफ्ते एक भोजपुरी फिल्म लांच हो रही थी. लगभग दस साल पहले की बात है. खैर, सायरा जी ने आते ही प्रार्थना की कि साहब की तबियत थोड़ी नासाज है, इसलिए सवाल-जवाब का सिलसिला सहजता से संपन्न हो. तब तक कुछ और पत्रकार भी आ चुके थे. बारी-बारी सबसे हाथ मिलाया दिलीप साहब ने. हाथ मिलाते हुए नाम जरूर बताये, यह उनकी विनम्र प्रार्थना थी. इसलिए नहीं कि उन्हें अखबार और ओहदे जानने थे. इसलिए कि वे हर किसी को नाम के साथ संबोधित करना चाहते थे. एक दोस्त की तरह. महिमामंडित बुजुर्ग की तरह वे किसी भी हालत में पेश नहीं आना चाहते थे. हाथ मिलाने के बाद मैंने सोचा कि उनका दिल कितना नरम होगा. न जाने क्यों? उनकी हथेली का स्पर्श इतना पावन लगा कि जैसे किसी दुधमुंहे बच्चे को छू लिया हो.
कुर्सी में बैठने के बाद उन्होंने हम सभी को संबोधित कर एक सवाल पूछा कि महानगर का मिजाज कैसा है? हम में से कुछ लोगों को लगा कि वे मुंबई के मौसम के बारे में पूछ रहे हैं, लेकिन सुधी जनों की समझ में आ गया कि वे किस मौसम की बात कर रहे हैं? दरअसल एक जमाने में वे मुंबई के शेरिफ रहे हैं। मुंबई की राजनीतिक हलचलों और प्रशासनिक कार्रवाहियों पर उनकी दिलचस्पी तब से आज तक बनी हुयी है. वे मुंबई, महाराष्ट्र और देश की हर छोटी-बड़ी घटना को जानने और समझने की जिज्ञासा रखते हैं. माकूल जवाब न पाकर वे थोड़े निराश जरूर दिखे, परंतु वे मुस्कराये और फिर जल्द ही आत्मीयता से बातें करने लगे. लगा ही नहीं कि उनसे हम सभी पहली बार मिल रहे हैं. इतना बड़ा एक्टर इतना सहज इंसान भी हो सकता है, सचमुच कल्पना नहीं की थी. बीसियों एक्टरों से बीसियों बार मिलना होता रहा है. कुछ को छोड़ दें, तो मिलने का बड़ा उत्साह कभी महसूस नहीं किया. अक्सर तो यही देखा गया है कि एक्टर लोग पत्रकारों का सिर्फ यूज ही करते हैं और मतलब निकल जाने पर पहचानते भी नहीं. लेकिन दिलीप कुमार ऐसे हैं कि अपने दौर के पता नहीं किन-किन पत्रकारों को याद कर रहे हैं. बीते जमाने के किस्से सुना रहे हैं. कई बार वे भावुकता में इसकदर बह जा रहे थे कि रो पड़ रहे हैं. जाहिर है, ऐसे में पत्रकारों का असहज होना लाजिमी था.
मैं मन बना कर आया था कि मौका मिलेगा, तो दिलीप साहब से एक सवाल जरूर पूछूंगा. यह सवाल कई वर्षों से मेरे मन में कुलबुला रहा था कि कैसे वे एक हिंदू नाम को जीवन भर अपनाए रख सके हैं, जब कि भीषण सांप्रदायिक माहौल में उन पर काफी कीचड़ उछाली गयी आखिर मुझे मौका मिल गया, तो मैंने यह सवाल दाग ही दिया. दिलीप साहब ने मुझे एक भरपूर नजर देखा. मैं थोड़ा डरा कि मैंने उन्हें असहज करने का अपराध तो नहीं कर दिया है? लेकिन उनकी मुखाकृति फिर से बदल गई. सिर्फ इतना सा शालीन जवाब था- देविका रानी ने जब यह नाम दिया, तो मुझे पता नहीं था कि भगवान राम से महाराज दिलीप का क्या संबंध है? इतना जरूर पता था कि यह बहुत पवित्र और प्रतापी नाम है. इस जवाब के बाद दिलीप साहब ने एक लंबी चु्प्पी साध ली. तब माहौल को सामान्य बनाने की एक ही तरकीब बचती थी कि कोई हल्का-पुल्का सवाल पूछा जाए? तो उनसे सवाल किया गया कि वे आज के किस एक्टर को अपने करीब पाते हैं? तब उन्होंने बड़े बेलौस तरीके से जो जवाब दिया, वह इस प्रकार है ‘मैंने हमेशा अपने जूतों का साइज अपने पांव से बड़ा रखा है’. ऐसे में संभव ही नहीं है कि कोई मेरे जूतों में पांव डाले और वे फिट हो जाये’. पता नहीं दिलीप साहब उस क्षण किस मन की स्थिति से गुजर रहे थे कि उन्होंने अलग सा यह एक स्टेटमेंट ही दे दिया. उनके इस चमकीले वाक्य का मोटा-मोटा अर्थ लगाने में तो हम सभी सफल हो गये थे, लेकिन कह नहीं सकते कि ठीक-ठीक आशय समझ भी पाये हों. तब तक फिल्म का पीआर देख रहे पीटर मार्टिस आ गये और उन्होंने अनुरोध किया कि बातचीत में थोड़ा ब्रेक ले लीजिये. इसके बाद यह सिलसिला जारी रहेगा.जारी
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