मिठाइयों का बाजार छीन लिया केक पेस्ट्री और चाकलेट ने

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मिठाइयों का बाजार छीन लिया केक पेस्ट्री और चाकलेट ने

जनादेश ब्यूरो 

नई दिल्ली .देश में दिसंबर के आखिरी हफ्ते से उत्सव का माहौल शुरू हो जाता है. क्रिसमस से लेकर नए साल तक उत्सव का यह मौसम होता है. छुट्टियां मनाई जाती हैं, बर्फबारी का मजा लिया जाता है. सैलानियों का दल समुद्र तट की तरफ निकल जाता है यानी जश्न और उल्लास भरे दिन. क्रिसमस के मौके पर शुरू होने वाला उत्सव कई दिनों तक चलता है. इस दौरान केक, पेस्ट्री, पुडिंग, चाकलेट वगैरह का ज्यादा इस्तेमाल होता है. बेकिंग के व्यंजनों को लेकर कई दुविधा भी होती है. सेहत पर इसके पड़ने वाले प्रभाव को लेकर भी सवाल उठते हैं. जनादेश लाइव में भोजन के बाद-भोजन की बात में इस बार इसी पर चर्चा हुई. चर्चा में हिस्सा लिया जनादेश के संपादक अंबरीश कुमार, खानपान विशेषज्ञ पूर्णिमा अरुण, शेफ अनन्या खरे, होटल प्रबंधन संस्थान के शिक्षक अमरजीत कुंडु और पत्रकार आलोक जोशी.

बातचीत की शुरुआत करते हुए अंबरीश कुमार ने कहा कि मैं करीब बीस साल से इस मौसम में समुद्री इलाके में ही रहता हूं लेकिन इस साल कोरोना की वजह से मैं समुद्री इलाके में नहीं हूं. पुर्तगाली जब भारत आए तो अपने साथ बेकिंग की विधा लेकर आए. यानी केक, पेस्ट्री और दूसरी चीजें इससे जुड़ी हैं लेकर आए. गोवा या दूसरे समुद्री इलाके में जाएं तो इसका बहुत प्रचलन है. दरअसल समुद्री इलाका में चावल होते थे. पुर्तगाली आए तो उन्हें चावल से समस्या हुई क्योंकि वे ब्रेड यानी डबल रोटी खाते थे. उन्हें गेंहू का आटा मिला भी तो खमीर नहीं मिलता था. तब उन्होंने ताड़ी से खमीर बना कर ब्रेड बनाया जो काफी लोकप्रिय हुआ. गोवा हो या दमन-दीव या पुडुचेरी वहां भी ब्रेड का काफी प्रचलन है. लोग बहुत चाव से खाते हैं. हालांकि इसे लेकर आशंकाएं भी हैं बहुत सारी कि आटा खराब होता है. सेहत के लिए ठीक नहीं होता है और दूसरी तरह की बातें. पूर्णिमा अरुण ने बातचीत को आगे बढ़ाया और बेकिंग से बनी चीजों के बारे में जानकारी दी. उन्होंने कहा कि यह बात सही है कि यह हमारी विधा नहीं है, यह विदेश से ही आई है. इसीलिए इसमें आटे का बहुत फाइन रूप इस्तेमाल किया जाता है, जिसे हम मैदा कहते हैं. आजकल की बात नहीं बता रहीं हूं, शुरुआत ही उस तरह के आटे से हुई थी जिसमें चोकड़ नहीं होता था. चोकड़ नहीं होने की वजह से हमारे यहां सुबह डबल रोटी खाना पसंद नहीं किया गया. पुर्तगालियों ने डबल रोटी, पाव या बिस्कुट बनाना शुरू किया तो बिस्कुट जरूर पसंद किए गए. क्योंकि उसका इस्तेमाल स्नैक के तौर पर किया जा सकता है और उसे स्टोर कर के भी रख सकते हैं. मैंने जो सुना है कि वहां के स्थानीय लोगों से जब आदान-प्रदान हुआ तो स्थानीय लोगों ने कहा कि आप मुझे बिस्कुट दे दें तो हम आपको काली मिर्च दे देंगे. इस तरह बिस्कुट एक्सचेंज के तौर पर भी धीरे-धीरे पसंद किए जाने लगे. डबल रोटी तो बहुत बाद में पसंद की गई क्योंकि रोटी हमारे यहां पहले से ही थी. हमारे यहां बेकरी वहां पर ही हुई जहां अंग्रेज अपनी छुट्टियां मनाने जाते थे. जैसे वे नैनीताल, मसूरी, दार्जिलिंग, शिमला चले गए तो वहां काफी अच्छी बेकरियां हैं. इन जगहों पर कई तो अभी भी चली आ रहीं हैं. भारतीयों ने भी देखा-देखी शुरू तो किया लेकिन बाद में छोड़ दिया क्योंकि मैदा की वजह से कब्ज होता है इसलिए पसंद नहीं किया जाता है. लोगों ने इसे समझा तो अब मोटे आटे और मल्टीग्रेन की डबल रोटी बनने लगी है और सभी जगह बनने लगी है. मैदे का इस्तेमाल पूरी दुनिया में अब कम होने लगा है. सेहत के लिहाज से देखें तो मैदे को लेकर ही परेशानी थी. बाकी फरमेंटेशन में समस्या नहीं थी क्योंकि आयुर्वेद में इसे अच्छा माना गया है.


अमरजीत कुंडू ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि भारत में उस तरह का गेंहू नहीं है जिसका हम ब्रेड बना सकते हैं. क्योंकि हमारे यहां के गेंहूं में प्रोटीन नहीं के बराबर पाया जाता है. हमारे यहां के गेंहूं में प्रोटीन सात से दस फीसद पाया जाता है. जबकि अच्छे ब्रेड के लिए प्रोटीन हमें करीब 14 फीसद चाहिए. इसी वजह से ब्रेड उद्योग ने केमिकल इस्तेमाल करने शुरू कर दिए हैं. यानी कैलशियम, ग्लुटन, पोटाशियम और दूसरे केमिकल का इस्तेमाल किया ताकि उसकी स्टेबलेटी बढ़ा दें. यानी ब्रेड को बेक करने के बाद हम चार-पांच दिन रख सकते हैं. अमरजीत ने कहा कि ब्रेड इसलिए ज्यादा लोकप्रिय हुई क्योंकि इसमें लागत कम लगती है और साइज बड़ा बन रहा है. अनन्या खरे ने बताया कि क्रिसमस पास है तो ईसाई समुदाय के हर घर में केक और कुकीज बन रहा होगा. क्रिसमस से पहले वाले रविवार को ही वे ज्यादातर अपनी बेकिंग कर के रख देते हैं. क्रिसमस केस जो बहुत लोकप्रिय है उसकी मिक्सिंग कर के रख देते हैं और उसे फरमेंट होने देते हैं. क्रिसमस से पहले वाले रविवार को वे यही काम करते हैं. क्रिमसस केक को ट्वलवथ नाइट केक के नाम से भी जाना जाता है. जैसा आपने बताया कि बारह दिनों का यह उत्सव होता है तो 25 दिसंबर से लेकर पांच जनवरी यानी बारहवें दिन यह केक बनाया जाता है. लेकिन चुंकि अब लोगों के पास वक्त की कमी है तो 25 दिसंबर को ही उत्सव मना लिया जाता है. नहीं तो ईसाई समुदाय की यह परंपरा रही है कि बारहवें दिन यह केक बनाया जाता है. चर्चा का लिंक 

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