आलोक तोमर के नाम की पहली खबर !

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आलोक तोमर के नाम की पहली खबर !

हरीश पाठक 

 पिछले नौ सालों से आलम यह है कि 20 दिसम्बर ( मेरे जन्मदिन) पर उपजी खुशी 27 दिसम्बर (आलोक तोमर का जन्म दिन) तक आते आते एक नामालूम से सन्नाटे ,परिचित कोहराम और यादों के सघन वन में तब्दील हो जाती है.मैं तब उस शोकसभा का केंद्रीय पात्र बन जाता हूँ जो शोकसभा किसी अपने के अंतिम संस्कार के ठीक बाद होती है.बिलखते लोग,होंठों पर जबरन रोकी चीख और डबडबाई आंखों का लंबा सिलसिला.

    आलोक तोमर यदि जिंदा होता तो आज वह उम्र के 60 साल पूरे कर रहा होता.केवल तीन साल का फासला था हम दोनों में.यह भी कि जब हम मिले यानी साल 1979 (उस दिन शरद पूर्णिमा थी) तब वह उन्नीस साल का लड़का था और मेरी उम्र थी 22 साल.वह आलोक कुमार सिंह तोमर 'पतझर' के नाम से नवगीत लिखता था.ओम प्रभाकर का 'पुष्पचरित्र' उसे कंठस्थ याद था.भारत भूषण,वीरेंद्र मिश्र,मुकुटबिहारी सरोज,सोम ठाकुर,किशन सरोज और मुकुट सक्सेना के गीत उसे रटे हुए थे.बात बात में वह 'वह देखो कोहरे में चंदन वन डूब गया' गाता और मैं हरीश कुमार पाठक 'दीगर' के नाम से कहानियां लिखता था.बाद में छिंदवाड़ा के समानांतर सम्मेलन में कमलेश्वर ने मेरा नाम हरीश पाठक कर दिया.तब दोनों की आंखों में सपने ,मन में विश्वास और कुछ कर गुजरने का हौसला था.

     ग्वालियर की हिंदी साहित्य सभा की गोष्ठियां और उसकी सक्रियता तब के ग्वालियर में प्रतिष्ठा की प्रतीक थीं.वहां जाना,रचना पढ़ना गौरव की बात थी.वह शरद पूर्णिमा की काव्य गोष्ठी थी जो साहित्य सभा की छत पर होती थी.गोष्ठी के अंत में खीर बंटती थी.मैं इस गोष्ठी में पहुँचा.संचालन कर रहे जहीर कुरेशी ने मुझे मंच पर बुला लिया और मेरे बारे में कुछ बताया भी.तब तक मेरी कहानियाँ बाहर की पत्रिकाओं में छप चुकी थीं.कमलेश्वर के समानान्तर कहानी आंदोलन से मैं जुड़ा था.उनके सम्मेलनों में शिरकत कर चुका था और ग्वालियर के समानान्तर कथाकार मंच में सक्रिय था. इसी गोष्ठी में आलोक,वरिष्ठ कवि ,कथाकार त्रिमोहन सिंह चन्देल के साथ पहुँचा.उसने चन्देल जी से पूछा 'यह सज्जन कोन हैं जिन्हें तत्काल मंच पर बुला लिया.'चन्देल जी ने मेरे बारे में उसे बताया और यह भी कहा उससे जरूर मिल लेना.

    गोष्ठी के तुरंत बाद वह मेरे पास आया और बोला,'मेरा नाम आलोक तोमर है और कल आपसे हर हाल में मिलना है.कैसे,कहाँ मिलूं'.मैं चौक गया. मैंने कहा,'अरे,मैं नया बाजार के तेली के बाड़े में रहता हूँ.कभी भी आ जाना'.दूसरे दिन बारह  बजे वह मेरे घर पर था.उसने आते ही कहा,'हरिज्जि(उसका यह संबोधन उम्र भर रहा) मैं कल तक स्वदेश में था पर राजेन्द्र जी प्रूफ रीडिंग विभाग से मुझे सम्पादकीय में लेना ही नहीं चाहते.लिहाजा मैंने स्वदेश छोड़ दिया.भिंड वापस जा रहा हूं.वैसे करना तो पत्रकारिता ही चाहता था.'मैं सन्नाटे में आ गया.मैने तुरन्त कहा 'करेंगे भी पत्रकारिता.हो सकता है साथ साथ.'तब मेरी स्वदेश में बातचीत चल रही थी.राजेन्द्र जी भले आदमी हैं,उनसे भी बात करेंगे.

     पर मैं तो वह कमरा भी छोड़ आया हूँ जहां रहता था.शिंदे की छावनी के सरकारी  शौचालय के पास एक कमरा था.एक चादर की तरफ उसने इशारा किया.यह रहा मेरा सामान.

    'कोई बात नहीं.आप कुछ दिन मेरे साथ मेरे इसी घर मे रहोगे.मेरा परिवार दस दिन के लिए गांव गया है.तब तक व्यवस्था हो ही जायेगी.'

    कुछ दिनों बाद हम साथ साथ स्वदेश में काम कर रहे थे.वह संपादकीय विभाग में था.पहले प्रादेशिक डेस्क पर,फिर रिपोर्टिंग में.मैं पहले पेज पर महेश खरे के साथ था और नवल गर्ग के साथ रविवारीय परिशिष्ट देखता था.

    एक दिन दफ्तर में खबर आयी कि एक सुंदर सा लड़का जो फर्राटेदार अंग्रेजी बोल रहा है,साइकिल चुराते  पकड़ा गया है.वह हुजरात कोतवाली में बंद है.आलोक मेरे पास आया.बोला' चलेंगे, पर जाएंगे कैसे'?दोनों के पास साइकिल नहीँ थी.अरुण शिरडोंडकर    हमारे सहयोगी थे.उनकी साइकिल ले कर हम दोनों हुजरात कोतवाली पहुंचे.कोतवाली के भीतर एक पेड़ के नीचे कुर्सी पर एक सिपाही,नीचे जमीन पर एक सुंदर सा नौजवान बैठा था.

    पहले तो हमें यकीन ही नहीं हुआ कि अंग्रेजी बोल रहा यह लड़का साइकिल चुराएगा.सिपाही ने बताया,यह उरई का रहनेवाला है.दतिया में गीता नाम की एक लड़की के प्यार के चक्कर में पड़ गया.लड़की की शादी हो गयी और यह उसके गम में चोरी चकारी करने लगा.यहां मेडिकल कॉलेज के हॉस्टल में उस लड़की को लेकर आता है.खर्चे पानी को चोरी करता है.आलोक ने उससे पूछा,'आप अपराध की दुनिया में क्यों आ गये?'

      उसने पूछा,'आपने द सरपेन्टाइन पढ़ी है?'

      हम एक दूसरे का चेहरा देखने लगे.'वह क्या है?' मैंने पूछा. वह बोला,'यह चार्ल्स शोभराज की आत्मकथा है.वह मेरा आदर्श है.मैं उससे मिलना चाहता हूँ.'उसकी बातें सुन कर हम दोनों भौचक्के थे.काम साइकिल चोरी,सपना शोभराज बनने का. हुजरात कोतवाली के उस पेड़ के नीचे साइकिल चोरी के अपराध में गिरफ्तार उस शख्स का नाम था राजू भटनागर.जो बाद में इस देश में संगठित अपराध का सरगना बना और 1980 में जब चार्ल्स शोभराज तिहाड़ जेल से बर्थ डे पार्टी में धतूरा खिलाकर फरार हुआ था और उसे जो गाड़ी जेल में लेने आयी थी उसे राजू भटनागर ही चला रहा था.यानी  हुजरात कोतवाली में मिला वह साइकिल चोर , अंततःअपने सपने तक पहुँच ही गया था.

    हम दफ्तर पहुँचे.आलोक ने खबर लिखी.उसकी इच्छा थी कि इस खबर के साथ उसका नाम जाये.उसने मुझसे कहा.मैंने कहा,'महेश जी को खबर दे देना.उन्हें पसंद आयी तो उनसे आपका नाम देने की  कहूंगा'.तब खबरों के साथ नाम देने की परम्परा शुरू ही हुई थी.तब जयकिशन शर्मा स्वदेश के स्थानीय संपादक थे.वे कैम्पस में ही रहते थे.कुछ देर को आराम करने के बाद सात बजे फिर आ जाते थे.वे एक एक खबर देखते थे.महेश जी ने खबर पढ़ी और शीर्षक लगाया 'करता है साइकिल चोरी,बनेगा शोभराज'.खबर राजू भटनागर के फोटू सहित छपी.

  यह थी आलोक के नाम से छपी पहली खबर.  फिर यह सिलसिला चल निकला.स्वदेश का वातावरण और प्रधान संपादक राजेन्द्र शर्मा का आत्मीय व्यवहार काम करने का ऐसा माहौल रचते थे कि बेहतर करने की इच्छा जगती थी.मैं नवल गर्ग के बाद रविवारीय भी देखता था.दीपावली विशेषांक भी निकालता था.आलोक दिन में आ कर संपादक के नाम पत्र में प्रदीप दुबे,शोध छात्र,इकबाल रिजवी और मीना तोमर,थाटीपुर कॉलोनी के नाम से भी पत्र लिख देता था,जिन पर लगातार बहस होती और वह स्तम्भ स्वदेश का चर्चित स्तम्भ बन गया. तभी ग्वालियर के पास श्योपुर में दलिया खाने से 7 बच्चों की मौत हो गयी.पहले पन्ने पर यह खबर छपी.तब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे अर्जुन सिंह.विधान सभा में अर्जुन सिंह ने कहा ,'यह झूठ है.ऐसा कुछ नहीं हुआ.'

    अगले दिन आलोक श्योपुर था.वह मृत बच्चों के परिजनों से मिला.तमाम तथ्य इकठ्टे किये और सब राजेन्द्र जी के सामने रख दिये. सुबह स्वदेश के पहले पेज की लीड थी,'मुख्यमंत्री झूठ बोलते हैं'.यह खबर आलोक के नाम से थी.सारे प्रमाणों के साथ.नतीजा यह हुआ कि विधान सभा में मुख्यमंत्री को स्वीकार करना पड़ा कि घटना हुई है और दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा.

     यही नहीं  जब ओलम्पिक विजेता पान सिंह, चम्बल को अशान्त किये था तब पुलिस के एक आला अधिकारी से मेरे साथ मिलने आलोक उनके दफ्तर गया.कुछ जरूरी और गोपनीय फाइलें उन्होंने आलोक को दिखायीं और कहा जल्द ही हम उसका खात्मा कर देंगे.उसने कुछ नोट करने के बहाने उनसे पीछे जाने की अनुमति मांगी.फिर वह तुरन्त लौट भी आया.वापसी में मैंने पूछा,'इतनी जल्दी क्या नोट कर लिया'. उसने जेब से एक तस्वीर निकाली.वह पान सिंह की वह तस्वीर थी जो आज भी अखबारों में छपती है.उसका साफ साफ कहना था,' मेरे लिए रिश्ते नहीं,पत्रकारिता सबसे आगे है.' उसने यह किया भी.

     वह 1980 के शुरुआती दिन थे.मेरा दिल्ली प्रेस में चयन हो गया था.मुझे देर सवेर दिल्ली जाना ही था.मेरे सपनों में तब दिल्ली,मुम्बई ही आते थे.मैं वाया दिल्ली,मुम्बई बसने के ख्बाब सँजो रहा था.देर रात अखबार छपने के बाद जब हम अखबार के बंडलों के साथ स्टेशन जाते और कट चाय के साथ कभी अश्विनी सरीन,कभी अरुण रंजन ,तो कभी अरुण शौरी ,तो कभी उदयन शर्मा की खबरों पर चर्चा करते तो वह करुणा विगलित शब्दों में कहता,'आप मुझे अकेला छोड़कर क्यों जा रहे हो? कुछ दिन और रुक जाते.'

     उस दिन जब मैंने आलोक से कहा,'कल मेरी ट्रेन है आज ग्वालियर में हमारा यह अंतिम दिन है' तो उसने दोनों हाथों से मुझे पकड़ लिया.उन दिनों वह स्वदेश के कैम्पस में ही रहता था.उस रात उसने मुझे अपने घर जाने ही नहीँ दिया.  संस्मरणों की पुस्तक ' मलहरा टू मेम्फिस वाया मुम्बई' का एक अंश.


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