स्वर्ण युग की वे अभिनेत्रियां !

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स्वर्ण युग की वे अभिनेत्रियां !

मनोहर नायक

फिल्म इतिहासकारों ने सन 1940 से 60 के दशक को हिंदी फिल्मों का स्वर्ण युग कहा है. मोटेतौर पर यह समय सन 1941 से 1965 तक का माना जाता है. यह आज़ादी से ठीक पहले और बाद का समय है और अगर हम पूरे राष्ट्रीय परिदृश्य को देखें तो पायेंगे कि जीवन के तमाम क्षेत्रों में उस समय दिग्गज प्रतिभायें सक्रिय थीं. हिंदी सिनेमा में भी हर तरह के हुनरमंदों का जमावड़ा था. स्टूडियो सिस्टम ध्वस्त नहीं हुआ था, नयी फिल्म नयी फिल्म कंपनियां बन रही थीं. नवोन्मेष का ज़माना था और नये विचारों, प्रयोगों, सरोकारों की धूम थी. महबूब ख़ान, बिमल रॉय, बीआर चोपड़ा, विजय भट्ट, कमाल अमरोही, चेतन आनंद, के. आसिफ़, राजकपूर, गुरुदत्त और विजय आनंद जैसे फिल्मकार थे. अशोक कुमार, मोतीलाल, दिलीप कुमार, राजकपूर, देवआनंद, बलराज साहनी, गुरुदत्त, सुनील दत्त, शम्मी कपूर जैसे अभिनेता और दुर्गा खोटे, सुरैया, नरगिस, मधुबाला, मीना कुमारी, नूतन, वहीदा रहमान, वैजयंतीमाला जैसी अभिनेत्रियां थीं. गीत-संगीत और हिंदी फिल्मों का नाता अनिवार्य और अटूट रहा है. यह इस सिनेमा का अद्बितीय समय था. अनिल विश्वास अभी सक्रिय थे और उनके पीछे एक पूरी आकाशगंगा थी, सचिन देव बर्मन, सी. रामचंद्र, नौशाद, खेमचंद प्रकाश, सज्जाद हुसेन, शंकर जयकिशन, मदनमोहन, रोशन, रवि, हेमंत कुमार, कल्याणजी आनंदजी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल. शकील बदायूंनी, साहिर लुधियानवी, शैलेंद्र, प्रेम धवन, पंडित नरेंद्र शर्मा, मजरुह सुल्तानपुरी, हसरत जयपुरी, राजेंद्र कृष्ण, राजा मेहंदी अली खां, आनंद बख्शी, गुलज़ार जैसे लिखने वाले थे और शमशाद बेग़म, मोहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर, गीता दत्त, तलत महमूद, मुकेश, मन्ना डे, किशोर कुमार, हेमंत कुमार, महेंद्र कपूर जैसे गायक-गायिकायें थीं. यह स्वर्णकाल अत्यंत सुरीला और लयात्मक था.

 वैसे कोई भी काल अपने आप नहीं निर्मित नहीं होता. अपने पूर्ववर्ती से वह सीधे जुड़ा रहता है, बल्कि उसी की कोख से जन्मता है. वह नया और अनूठा तभी बनता है जब उसकी मूलवृत्ति भविष्य की ओर हो और वह आगे की ओर अभिमुख हो. बदलते दौर से हमकदम हो. देश-दुनिया से रचनात्मक प्रभावों को आत्मसात करने के लिए उसमें खूब खुलापन हो. इस दौर में ये सब खूबियां थीं. उसने बाहर से ही नहीं, देश के अंदर पनपे और पुष्ट हो रहे भाषायी सिनेमा से भी नये संस्कार लिये. ऋत्विक घटक, सत्यजित रॉय, मृणाल सेन जो कर रहे थे वह भी बांबे देख-समझ रहा था. वैसे भी न्यू थियेटर्स ने बांबे टॉकीज  को बहुत कुछ दिया ही था. यह महान फिल्मों का दौर रहा है जिसमें गहरे सरोकारों, सामाजिक यथार्थ से साक्षात्कार कराने वाली फिल्में बनी हैं तो दूसरी ओर महान रोमांटिक फिल्में भी. सिर्फ उम्दा गीत-संगीत से सजी फिल्मों की तो गिनती ही नहीं. हास्य, रहस्य-रोमांस से भी यह दौर भरापूरा था. 'दो बीघा ज़मीन', 'मदर इंडिया', 'मुगल-ए-आज़म', 'प्यासा', 'आवारा' और 'गाइड' जैसी कालजयी फिल्में इसने दीं. एक लम्बी फ़ेहरिस्त है अलग-अलग तरह की फिल्मों की जिसकी मिली-जुली बानगी में 'नीचा नगर', 'धरती के लाल', 'कल्पना', 'देवदास', 'श्री 420', 'नया दौर', 'कागज़ के फूल', 'मधुमती', 'काला पानी', 'काला बाज़ार', 'सुजाता', 'बंदिनी', 'बैजू बावरा', 'चलती का नाम गाड़ी', 'गुमराह' आदि हैं.

 किसी भी एक काल खंड का आगा-पीछा होता है. उनमें एक निरंतरता होती है. अपने से पहले को देखकर, सीखकर समकालीनता में आगे बढ़ा जाता है. स्वर्णिम दौर की नायिकाओं का ख्याल करें तो ज़ेहन में फौरन नरगिस, मधुबाला, नूतन, मीना कुमारी, वहीदा के अक्स उभर आते हैं. लेकिन ऐसा होता है कि न सिर्फ़ उनके पहले की बल्कि उनके साथ ही सक्रिय अनेकानेक अभिनेत्रियों से ध्यान हट जाता है. मूक दौर के कलाकारों के काम का हमारे पास कोई व्यवस्थित आकलन नहीं है क्योंकि बहुत सी फिल्में नष्ट हो गयीं या बुरे हाल में हैं. फिर बहुतेरे स्मृति से बाहर चले जाते हैं और वे एक विशेष कालखंड को बताने वाले नाम भर रह जाते हैं. 'मास्टर विनायक', 'ज़ुबेदा', 'मंदाकिनी', 'ग़ौहर' आदि को इस श्रेणी में रख सकते हैं. यह एक कारवां है जो आगे बढ़ता रहता है और एक से एक हुनरमंद कलाकार सामने आते रहते हैं. सौ साल से ज्यादा लंबे सिनेमा के सफऱ में यह बात आसानी से पहचानी जा सकती है.

 आज भी एक से एक अभिनेत्रियां हैं जिन्होंने देश-विदेश में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है. प्रियंका चोपड़ा, कंगना रनौत, आलिया भट्ट दीपिका पादुकोण, विद्या बालन आदि. उनसे पहले भी रानी मुकर्जी, प्रीति जिंटा, काजोल, जूही चावला, माधुरी दीक्षित, श्रीदेवी, रेखा, ज़ीनत अमान, हेमा मालिनी, शबाना आज़मी, राखी, स्मिता पाटिल, परवीन बॉबी, दीप्ति नवल, मीनाक्षी शेषाद्री, फरहा, जयाप्रदा आदि अभिनेत्रियां आयीं. इनके पहले के दौर की अभिनेत्रियां इस स्वर्ण युग की अभिनेत्रियां थीं. पर उनसे पहले भी अनेक अभिनेत्रियां थीं जिन्होंने फिल्म कला को अपनी प्रतिभा से परवान चढ़ाया. इनमें महत्वपूर्ण रहीं हैं ग़ौहर, सुलोचना, फ़ीरोजा, दुर्गा खोटे, ललिता पवार, फियरलेस नादिया, वनमाला, जमुना, जेबुनिसा, शांता आप्टे, खुर्शीद, ज़ेबुन्निसा, शोभना समर्थ, लीला चिटणीस, सितारा देवी, सरदार अख्तर, परीचेहरा, नसीम, साधना बोस, स्नेहप्रभा प्रधान, नूरजहां आदि. नूरजहां तो सिंगिंग स्टार थीं. यह खिताब फिर सुरैया को मिला. यहां दो शीर्ष अभिनेत्रियों के जि़क्र के बिना बात नहीं बनेगी. हिंदी सिनेमा की पटरानी देविका रानी जिन्होंने सिनेमा के रोशन काल में अनेक फिल्में की जिनमें अछूत कन्या भी है. अशोक कुमार को एक बड़े अभिनेता में ढाला. बांबे टॉकीज़ की नींव रखी, जहां से दिलीप कुमार, देवआनंद आदि निकलकर सितारा बने. दूसरी हैं कानन देवी जिन्होंने परिस्थितियों के दबाव में 10 साल की उम्र में ही फिल्मों में काम शुरू किया. विद्यापति, मुक्ति, साथी, स्ट्रीट सिंगर आदि फिल्मों के साथ उनकी कीर्ति बढ़ती ही गयी. उनका स्मरण इसलिए भी ज़रूरी है कि यह उनका शताब्दी वर्ष भी है.

इस सबके बीच में स्वर्ण युग है. इस दौर में नारी कंठ से उभरती आवाज़ों पर ध्यान दें तो उससे भी यह दौर कैसा था इसका अंदाज होता है: 'ये जिंदगी उसी की है जो किसी का हो गया', 'सुनो गज़ल क्या गाये', 'आंचल में क्या जी', 'तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले', 'दुनिया में अगर आये हैं तो जीना ही पड़ेगा, जीवन है अगर ज़हर तो पीना ही पड़ेगा', 'प्यार हुआ इकऱार हुआ प्यार से फिर क्यूं डरता है दिल', 'रसिक बलमा, 'हाय दिल क्यों लगाया तोसे', 'लग जा गले', 'तेरा मेरा प्यार अमर फिर क्यूं मुझको लगता है डर', 'तेरा जाना दिल के अरमानों का लुट जाना', 'जा जा जा, बेवफ़ा', 'ईश्वर तेरो नाम'. इस दौर की नायिकाओं में प्रेम का उल्लास है, उसकी टीस है और संघर्ष का माद्दा है. इस दौर में आकर नायिका की दिल की गिरह खुलती गयी है और वह जीवन से प्यार के गीत लगातार गाती रही है. इस तरह से देखें तो लता, सुरैया, शमशाद, गीता दत्त, आशा, सुमन, मुबारक बेगम भी इस दौर की असली नायिकायें हैं.

 यह दिलचस्प है कि पति परमेश्वर, सती सावित्री आदि फिल्मी दौर से आती नायिका इस दौर में उन्मुक्त है. हालांकि इसी दौर में 'कैसे कहूं', 'मैं चुप रहूंगी' फिल्में भी बनीं और 'तुम्हीं मेरे मंदिर तुम्हीं मेरी पूजा' जैसे गीत भी बने पर इस दौर की नायिका ने बहुत से बंधनों को तोड़ दिया और आज की निर्भीक, बेधड़क अभिनेत्रियों का मार्ग प्रशस्त किया. 'गाइड' में जब 'कांटों से खींचकर ये आंचल' गाने के लिए निर्देशक विजय आनंद गीतकार शैलेंद्र को परिस्थिति समझा रहे थे तो उन्होंने कहा था कि रोज़ी पुराने बंधनों को तोड़कर नृत्य को अपना लेती है, इसलिए आप इसमें 'तोड़ के बंधन बांधी पायल' लाइन ज़रूर रखें. ये गीत इस हिसाब से भी अनोखा है कि यह अंतरे से शुरू होकर मुखड़े पर आता है. 'कांटों से खींचकर ये आंचल, तोड़ के बंधन बांधी पायल, तय कर लिया... आज फिर जीने की तम'ाा है आज फिर मरने का इरादा है. ' ये बंधन लगातार टूटते गये 'तीन देवियां' में तो साफ़ ऐलान था, 'डाल के घुंघटा, रूप को अपने/और नहीं मैं छिपाऊंगी/सुंदरी बनके तेरी बलमवा/आज तो मैं लहराउंगी.' आगे 'दो रास्ते' में बात और भी साफ़ कर दी गयी थी 'बिंदिया चमकेगी' गाने में... 'लाख मना कर ले दुनिया कहते हैं मेरे घुंघरु/पायल बाजेगी, गोरी नाचेगी/छत टुटदी है तो टुट जाये. ' यह स्वर्णयुग के बाद की डफल्म है पर इसकी हीरोइन मुमताज थी जो स्वर्णयुग में स्टंट फिल्मों और दारासिंह की नायिका हुआ करती थीं लेकिन स्वर्णकाल की यह बूंद उसके परवर्ती काल में मोती बन गयी थी. हालांकि 'राम और श्याम' 1965 की फिल्म थी जिसमें दिलीप कुमार की एक नायिका थी.

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