एलएस हरदेनिया
भोपाल .अभी हाल में मध्यप्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रति प्रतिबद्ध रहे प्रतिष्ठित पत्रकार माणिक चंद वाजपेयी के नाम व स्मृति में पत्रकारों के लिए पुरस्कार की पुर्नस्थापना की है. यह पुरस्कार पूर्व में स्थापित किया गया था, परन्तु इसे कमलनाथ सरकार ने बंद कर दिया था.
इस संबंध में मेरी राय है कि पत्रकारों के लिये सरकार को किसी भी प्रकार के पुरस्कार की स्थापना नही करनी चाहिए. पत्रकारों के लिए देश और दुनिया में अनेक पुरस्कार स्थापित है पर इन सबका संचालन पत्रकार या समाचार पत्र करते हैं. हमारे देश में भी प्रसिद्ध पत्रकार स्वर्गीय श्री रामनाथ गोयनका के नाम पर पुरस्कार स्थापित है जिसे प्रसिद्ध अंग्रजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस प्रदान करता है. जब स्वर्गीय मोतीलाल वोराजी मुख्यमंत्री थे उस समय उन्होंने पत्रकारों के लिए एक पुरस्कार की स्थापना की. हम लोगो के विरोध के कारण उसे वापिस ले लिया गया. पुरस्कार के संबंध में मुझे एक घटनाक्रम याद आ रहा है, घटनाक्रम निम्न प्रकार है:-
मोतीलाल वोरा ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान पत्रकारों के लिए एक पुरस्कार की घोषणा की थी. पुरस्कार संबंधी नियम बनाने के लिए एक समिति बनाई गई. इस समिति में मुझे भी शामिल किया गया था. समिति के सदस्यों में एमपी क्रानिकल के संपादक के.पी. नारायणन भी थे. समिति के सदस्य सचिव वरिष्ठ आई.ए.एस अधिकारी डी.जी. भावे थे.
समिति की बैठक में जाने के पूर्व मैंने नारायणनजी से बात की. मैंने उनसे जानना चाहा कि क्या सरकार को पत्रकारों का सम्मान करने का अधिकार दिया जाना चाहिए? मेरा तर्क था कि यदि ऐसे पत्रकार का सम्मान किया जाता है जो सरकार की प्रशंसा में ही लिखता है तो उसे खुशामदखोर निरूपित किया जायेगा. जहां तक आलोचना करने वाले पत्रकार का सवाल है तो कितनी भी साहसी जूरी पुरस्कार के लिए गठित हो गई हो उसकी नाम की सिफारिश नहीं करेगी. वह आलोचक पत्रकार के नाम की सिफारिश शायद ही कर पाएगी.
ऐसी परिस्थिति में सरकारी पुरस्कार की प्रासंगिता ही नहीं रह जाती है. नारायणन ने मुझसे जानना चाहा कि हमें क्या करना चाहिए. इस पर मैंने सुझाव दिया कि हमें प्रस्तावित पुरस्कार समाप्त करने की सिफारिश करनी चाहिए. नारायणन ने मुझसे सहमति व्यक्त की. निर्धारित दिन ज्योंही नियम बनाने वाली समिति की बैठक प्रारंभ हुई, हम दोनों ने इसी तरह का प्रस्ताव पेश किया. हमारे प्रस्ताव को सुनकर भावे स्तब्ध रह गये. अन्य पत्रकार सदस्यों को भी हमारे प्रस्ताव का उद्देश्य समझ में नहीं आया. हमने बैठक में तर्क दिया कि सरकारी पुरस्कार, एक तरह से पत्रकारों और पत्रकारिता की आजादी व निष्पक्षता को प्रभावित करेगा.
हमारे तर्क सुनने के बाद अन्य पत्रकार सदस्यों का हमसे असहमत होने का साहस नहीं हुआ. अंततः हमारा प्रस्ताव स्वीकार हुआ और सरकार को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा. बाद में उस पुरस्कार को उत्तम छपाई के लिए दिया जाने लगा.
हम लोगों के रवैये के संबंध में मिश्रित प्रतिक्रिया हुई. कुछ ने उसे पसंद किया और कुछ ने नाराजगी दिखाई. पुरस्कार की राशि एक लाख रूपय थी. यह पुरस्कार प्रतिवर्ष दिया जाना था. हमें यहां तक बताया गया कि कुछ पत्रकारों ने स्वयं को पुरस्कार पाने वालों की पंक्ति में खड़ा कर लिया था और पुरस्कार की राशि को खर्च करने की योजना तक बना ली थी.
परंतु मुझे इस बात का तनिक भी पछतावा नहीं है. बाद में नारायणन ने मुझे एक पुरस्कार से सम्मानित किया. उस पुरस्कार के साईटेशन में उन्होंने कहा कि मुझे यह पुरस्कार, सरकारी पुरस्कार को समाप्त करवाने के लिए किये गये सराहनीय प्रयासों के लिए दिया जा रहा है.
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