चंचल को कितना जानते हैं आप !

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चंचल को कितना जानते हैं आप !

अंबरीश कुमार 

एक बार सुपर स्टार राजेश खन्ना दिल्ली में शाम चार बजे चंचल को लेकर खुशवंत सिंह के घर पहुंच गए .जैसा कि खुशवंत सिंह खुद लिख चुके है कि बिना समय लिए वे घर पर किसी से मिलते नहीं थे .और वही हुआ खुशवंत सिंह ने सुपर स्टार राजेश खन्ना से मिलने से मना कर दिया .उनके नौकर ने राजेश खन्ना से कहा कि वे खुशवंत सिंह से मिलने शाम सात बजे मेरेडियन होटल में मिले .राजेश खन्ना भन्नाए पर फिर जब सात बजे होटल मेरेडियन के बार में पहुंचे तो देखा खुशवंत सिंह उनका ग्लास पहले से बनाए बैठे है .खुशवंत सिंह भांप गए काका नाराज हैं .बोले ,यार सात बजे से पहले मिलकर क्या करते तुम्हारे साथ बैठने का सही समय सात बजे के बाद ही है .फिर बैठक लंबी चली .और चंचल भी साथ थे .खांटी समाजवादी चंचल और राजेश खन्ना .बहुत लोगों को यह अजीब बेमेल किस्म की मित्रता लग सकती है पर वह भी दौर था जब राजेश खन्ना के साथ चंचल रात तीन बजे तक बैठते .राजेश खन्ना दिल्ली में डेरा जमा चुके थे और जनसत्ता के सुमित मिश्र की वजह से मुझे भी उनकी कई बैठकों में शामिल होने का मौका मिला था .पर चंचल की तो उनसे गाढ़ी छन रही थी .जनसत्ता वाले चंचल से थोड़ी दूरी बनाकर रखते .वजह जनसत्ता के एडिटर न्यूज सर्विसेज हरिशंकर व्यास के बारे में उन्होंने चौथी दुनिया में लिख दिया था 'व्यास ने चड्ढी में पत्रकारिता कर दी ' .जनसत्ता और रविवार की भी भिडंत उस दौर में हो ही चुकी थी . खैर आज तो चंचल का दिन है .उनका जन्म दिन दो जनवरी को पड़ता है पर हमने देर से आज बधाई दी .

अपने जन्म के बारे में चंचल ने खुद जो लिखा पहले उसपर गौर करें 'हुआ कुछ नहीं बस बीच में दो जनवरी आ गया . यह तारीख हमारी अपनी है .हमें तो याद नहीं पर हमारी दादी बताती थी कि यह घोर ठंढ की रात में पैदा हुआ था और जोर से चीखा था . तब से इसकी यह आदत बनी हुई है . भुसौल घर में सीलन भरा कमरा बाहर कोहरा और गलन इसे बर्दास्त नहीं हुआ ,वैद ने बताया निमोनिया है इसे उंगली से ब्रांडी चखा दो और चखते ही कथरी में ऐसे दुबक के सोया कि पूछो मत . वैदकी दवा इसे आज भी 'सूट ' करती है . बरसो बाद चुन्नी लाल के साथ जब मदरसे गया तो पंडित तडकू उपाधिया ने उसका नाम लिख दिया यही जो आज तक चल रहा है गो कि यह नाम हमारी बेजा हरकतों की वजह से पड़ा था .पंडित जी ने बगैर घर से दरियाफ्त किये इसी नाम को जस का तस डाल दिया ,चुनाचे वे बेजा हरकते आज तक ब दस्तूर कायम हैं . 

चंचल का नाम पहली बार करीब चार दशक पहले तब सुना जब हम लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ में कला संकाय से प्रतिनिधि चुनकर आये .अतुल कुमार सिंह अंजान अपने अध्यक्ष थे .अवध कुमार सिंह बागी उपाध्यक्ष तो रविदास मेहरोत्रा महासचिव .उस समय चंचल बनारस हिंदू विश्विद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष थे .बहुत लोकप्रिय छात्र नेता के रूप में वे उभरे थे .खांटी समाजवादी थे , कलाकार और चित्रकार भी .ऐसी बहुमुखी प्रतिभा उस दौर में किसी छात्र नेता में नहीं थी .छात्राओं का प्रचंड समर्थन उन्हें मिला था .वे उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े कद के छात्र नेता थे .लखनऊ का नंबर बनारस और इलाहाबाद विश्विद्यालय के बाद था .थोडा उस दौर को भी समझ लें .वर्ष 1977-78 का दौर था .इमरजंसी के बाद देश समाज और कालेज विश्विद्यालय सब जगह माहौल बदला हुआ था ..

इसी माहौल में हम लखनऊ विश्विद्यालय पहुंचे .पहले बीएससी में प्रवेश लिया .विषय था मैथमेटिक्स ,स्टैटिसटिक्स और फिजिक्स .पर इन विषय में कोई रौनक ही नहीं होती थी.अजीब मुंह लटकाए बस्ता टांगे दुबले पतले चश्मा वाले छात्र छात्राएं.एक विषय बदल लिया अब फिजिक्स की जगह साइकोलॉजी ले लिए बाकी सब वही विषय रहे.पर रौनक आ गई.बगल में पीजी ब्लाक और रौनक वाला था.खैर बदलाव का दौर था .बाहुबलियों का भी दौर था.परिसर में कट्टा बंदूक से लेकर रायफल तक.बात बात पर झगडा फसाद .कुछ मित्रों ने ऐसे माहौल में 'आम छात्र को ताकत दो' का अभियान चला .पावर तो साइलेंट मेजारिटी नारा था .आनंद सिंह इस अभियान के नेता थे.हम भी इससे जुड़ गए .कुर्ता  पैजामा और रिवाल्वर बंदूक वाले छात्र नेताओं के उस दौर में पैंट शर्ट वाला कोई छात्र नेतृत्व भी कर सकता है यह समझ से बाहर था .उससे पहले जेपी की छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से जुड़ना हो चुका था .पर उस माहौल में बदलाव की बात करना आसान नहीं था .और मैथमेटिक्स ,स्टैटिसटिक्स जैसे विषय की क्लास में जाता तो लोग अजीब निगाह से भी देखते .खैर तय हुआ और छात्र संघ में कला संकाय के प्रतिनिधि का चुनाव लड़ा गया और जीता ही नहीं गए बल्कि वह पूरा अघोषित पैनल ही जीत गया जो बाहुबलियों के खिलाफ चुनाव लड रहा था .पर यह बदलाव बनारस में और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ज्यादा ढंग से आया था .बीएचयू में चंचल की ऐतिहासिक जीत ने समाजवादियों का आवाज बुलंद कर दी दी थी .पर चंचल विश्वविद्यालय में कहां बंधने वाले .पत्रकारिता शुरू की और पत्रिकाओं के चित्र भी .बाद में कितनी पुस्तकों के आवरण चंचल ने बनाये होंगे यह उन्हें भी याद नहीं होगा .ऐसा व्यंग्य लिखते कि लोग जल भुन जाएं .शुक्रवार में हमने उका कालम शुरू किया जो सबसे ज्यादा मशहूर हुआ .एक बार वह नहीं छपा तो संघ के एक बड़े नेता ने पता भी किया कि कालम कैसे रह गया .पर दिल्ली से एक के बद एक मित्र जब निकल गए तो चंचल भी दिल्ली छोड़ अपने गांव पहुँच गए .समता घर बनाने और संवारने लगे .पर रहे फक्कड के फक्कड ही .

इससे जुड़ा चंचल का एक किस्सा उन्ही के शब्दों में ' जार्ज रेल मंत्री थे हम जार्ज के चमचे रहे .सो हम भी रेल से जुड़ गए .एक यात्रा प्रयाग से हुयी .दिल्ली से इलाहाबाद .फर्स्ट क्लास में सफ़र कर रहा था .उन दिनों हम बाटा के खिलाफ रहे (अभी भी हैं ) टायर का चप्पल बर्थ के नीचे था हम सो गए .सुबह देखा तो चप्पल गायब .हमने टीटी से कहा .वह भी बेचारा ढूंढा नहीं मिला .उसने कहा साहब ! महगी चप्पल देख कर कोइ उठा लिया होगा .हमने कहा नहीं भाई वह तो दो रूपये की टायर वाली चप्पल थी.टीटी वहीं सर पकड़ कर बैठ गया .हमने पूछा क्या हुआ ? वो तो कानपुर में ही हमने फेंक दी सोचा कोइ कंगला गलती से यहां आ गया होगा .हम दोनों हँसते रहे .हमने कहा भाई !हम भी कंगले ही हैं कल जब जार्ज हटेंगे तो हम फिर उसी मुकाम पर चले जायँगे .बहरहाल हम बाहर आये .सीधे रिक्शे पर और रिक्शा विनोद चंद दुबे के घर .भाभी आयी बोलीं चाय ला रही हूँ , क्या कुछ खाओगे बताओ .हमने कहा चप्पल .दोनों जान चौंके चप्पल ?फिर हमने पूरी बात बता दिआ .अंत और भी दमदार रहा ।विनोद जी के पेअर का साइज हमे नहीं आता सो भाभी जी के चप्पल से हम घर पहुचे . कहाँ बनारस ,कहाँ इलाहाबाद ,कहाँ गोरखपुर ,कहा दिल्ली  पूरा देश अपना हुआ करता रहा .आज भी उस पीढी तक महदूद है .आंदोलन भी इसी गति से एक साथ चलते रहे .

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