गुड़ खाते हैं तो गुलगुले से परहेज़ क्यों

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गुड़ खाते हैं तो गुलगुले से परहेज़ क्यों

जनादेश  

नई दिल्ली .गुड़ और गुलगुले का इस्तेमाल भले मुहावरे के लिए किया जाता हो लेकिन सच तो यह है कि हमारे यहां लोगों को न गुड़ से परहेज है और न गुलगुले से. गुड़ खाने वाले गुलगुला खाते हैं तो भला गुलगुला से परहेज क्यों हो सकता है लेकिन मुहावरा बना तो फिर गुड़ और गुलगुले को देखने का नजरिया भी बदला. लेकिन गुड़ के बिना गुलगुला मुमकिन ही नहीं है. अब मुहवारा क्यों बना और कैसे बना यह अलग चर्चा का विषय हो सकता है. फिलहाल तो गुड़ और गुलगुले की बात करें. सर्दियों में गुड़ खाने का अपना मजा है तो गुलगुला का भी. वैसे सर्दियों के मौसम में गाजर का हलवा भी खूब बनता है. अब तो घरों से निकल कर बाजारों तक में बिकने लगा है गाजर का हलवा. गांव-देहात में पहले यह लाल-पीला गजरा नहीं मिलता था. काली गाजर खेतों में होती थी और उसका अलग ही स्वाद होता था. धीरे-धीरे काली गाजर गायब होती गई. कहीं-कहीं यह जरूर दिख जाती है लेकिन उसकी जगह तो लाल-पीली गाजर ने ही ले ली है. जानदेश के साप्ताहिक कार्यक्रम भोजन के बाद-भोजन की बात में गाजर के साथ-साथ गुड़ और गुलगुले पर चर्चा हुई. पत्रकार आलोक जोशी, जनादेश के संपादक अंबरीश कुमार, आहार विशेषज्ञ पूर्णिमा अरुण, शेफ अन्नया खरे, होटल प्रबंधन संस्थान से जुड़े अमरजीत कुंडू और जर्मनी से अंजना सिंह ने चर्चा में हिस्सा लिया.

आलोक जोशी ने चर्चा की शुरुआत की. उन्होंने विषय को सामने रखा और अंबरीश कुमार से पूछा कि गुड़, गुलगुला और गाजर का हलवा को लेकर चर्चा आखिर क्यों. अंबरीश कुमार ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि दरअसल सर्दी के मौसम को हलवे का मौसम माना जाता है. पिछली बार हम लोगों ने काली गाजर का जिक्र किया था क्योंकि आमतौर पर सर्दियों के इस मौसम में काली गाजर बाजार में आ जाती है. गाजर का हलवा बहुत ज्यादा मशहूर है और जाड़ों में हर घर में यह बनाया जाता है. इसलिए तय किया था कि गाजर के हलवे और गरिष्ठ भोजन पर चर्चा करेंगे क्योंकि जाड़े के मौसम में गरिष्ठ भोजन को हमलोग आसानी से पचा लेते हैं. पूर्णिमा अरुण ने चर्चा को आगे बढ़ाई और कहा कि जाड़े के मौसम में शरीर का बाहरी तापमान कम होता है, तो शरीर अपनी गर्माहट को बनाए रखने के लिए भूख को बढ़ा देता है ताकि आप गरिष्ठ भोजन खाएं और शरीर को जो फैट की जरूरत होती है वह उसे मिल सके ताकि शरीर की गर्माहट बनी रही और उसका शरीर ठंड से बचा रहे. इसलिए गरिष्ठ भोजन की जरूरत शरीर को होती है. गाजर का हलवा गर्म तासीर का है और उसके साथ घी खाना फायदेमंद होता है.

अमरजीत कुंडू ने हलवे के इतिहास की चर्चा करते हुए बताया कि हलवा का ताल्लुक ईरान से है. ईरान से यह भारत आया. अलग-अलग तरह के हलवे बनते हैं भारत में भी और वहां भी. भारत में रामपुर एक जगह है जहां ऐसे-ऐसे हलवे मिलेंगे जो देश के दूसरे हिस्सों में नहीं मिलेंगे. वहां मटन का हलवा बनता है. मटन को दूध में पकाया जाता है. वहां घास का हलवा मिलता है, मिर्ची का, अदरक का हलवा वहां मिलता है. उत्तर भारत में गाजर का हलवा काफी लोकप्रिय है. फिर मूंग की दाल व सोहन हलवा है. इन हलवों में खोया और घी अधिक मात्रा में मिलाया जाता है इसलिए शक रहता है कि यह कहीं ठीक है या नहीं. इसलिए खोया और घी को लेकर थोड़ा सतर्क रहना जरूरी है. अमरजीत कुंडू ने खोया और घी में होने वाली मिलावट के बारे में विस्तार से बताया.

अंजना सिंह ने तुर्की के लोकुम का जिक्र किया और कहा कि यह कराची या बंबई हलवा का ही एक रूप है. जर्मनी में बहुत ज्यादा तुर्की हैं तो उनके यहां सैसमिन सीड का हलवा बना कर वे ब्रेड के साथ खाते हैं. अन्नया ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि सर्दियों के वक्त में गाजर का हलवा मशहूर है. एक तो हम पारंपरिक तरीके से घिस कर बनाते हैं लेकिन जल्दी बनाना चाहते हैं तो कुकर में बना सकते हैं. पंद्रह से बीस मिनट में यह तैयार हो जाता है.

चर्चा में गुड़ और गुलगुला का जिक्र भी आया. अंबरीश कुमार ने पूछा कि गुड़ का विकल्प हलवे में है या नहीं तो पूर्णिमा अरुण ने कहा कि हलवे में चीनी की जगह खांडसारी डाला जाए तो ज्यादा फायदा हो सकता है. चर्चा में ब्राउन शुगर का जिक्र भी आया कि इसे चीनी के विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है. पूर्णिमा अरुण ने गुलगुले का जिक्र किया और कहा कि गुड़ के साथ गुलगुले बनाने हैं तो उसमें दूध न डालें. यह एक तरह से मीठ पकौड़ी है जो जाड़ों में भी खाई जाती है. 


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