चंचल
खादिम का बचपन किसी चुलबुले , चंचल बच्चे के बचपन से अलग थोड़े ही था , बस एक ही घपला था , वह बचपन टुकड़ों में था ,आज उसे सहेजना और सहेज कर तरतीब देना , मुजावर की कथरी का खोल बनाने के बराबर है ,जिसमे हर चकती चार इंच से बड़ी नही है और हर संभावित आकार में कटी फ़टी है , जिसे जोड़ने का हुनर पुरेगांव में केवल बसिकाली फुआ को ही आता रहा. मुजावर मुसलमान थे और बसिकाली हिन्दू बनिया लेकिन यह सवाल आज पिंटू , सुरेश , उमर , अमरजीत पूछ रहे है उस जमाने मे जब दोनो जिंदा थे और चलते फिरते , बोलते बतियाते जिंदा थे तब भी बच्चे थे , तब भी बच्चों के पास सवाल थे लेकिन इस तरह के नही.
तब के सवाल कुतूहल से निकलते थे और कुतूहल की तासीर में न धर्म है न मजहब , न जाति न लिंग गरज यह कि कोई भेद नही , और होगा भी तो रहे अपनी जगह कुतूहल सब पे भारी रहता था -
- मुजावर ! ई केकर झंडा आय ? सवाल पूरा हुआ नही था कि पीछे से एक पड़ाका कनपटी पे आ गिरा -
- 'ऐसे बात करते हैं ? मुजावर बाबा बोलते हैं. बोलो बाबा. ' चोट कितनी भी लग जाय कमबख्त उस जमाने मे बच्चे न रोते थे , न ही माँ बाप से शिकायत करते थे. उस जमाने मे बच्चों के मा बाप अकेले के नही होते थे , पूरे गांव में हर बूढ़ी दादी हुआ करती थी और दुलहिन भौजी. बहरहाल खादिम उसी बचपन से होकर गुजरा है. उस जमाने मे एक त्योहार आता था ' गर्मियों की छुट्टी ' / यह गर्मी की छुट्टी गांव के बचपन का असल उत्सव रहता. चैत बैसाख तक पढ़ाई खत्म , स्कूल बंद. बस्ता , गौंखे पे. पट्टी खूंटी पे. बोरिका गगरी के बगल लुढ़काय के. माँ से ननिऑरे जाने की इजाजत नही , इंतजाम मुहैया कराने की जिद , सिफारिश में दादी को खड़ा करना और इस तरह शुरुआत होती ' ननीऔरे ' यानी ननिहाल में बचपन गुजारने का स्वच्छंद भाव.
हमारी नानी बहुत सीधी थी. गलती हो जाने पर , जो अक्सर होती रहती , नानी ने कभी डांटा हो ,याद नही है तब हम मा को नानी से मिलान करते थे , गुपचुप. बोलकर ? खाल खींच जाती. मा से खूब मार खाता था. बाज दफे तो कलुई कुकुरि की वजह से. चूल्हा के बगल बोरी बिछा के खादिम याद करता - उठो लाल अब आंखे खोलो , ताला लायी हूँ / एक सुटकुनी पीठ पे ,
- ताला लायी हूँ ? निबहुरा देखि के ना पढ़ि पौते ? ताला से मुह धोइबे ? का करबे , जब तोर बापय दू तक पढ़े बा तो सपूत कित्ता पढ़े ? उनका त गुजर ग रियासत के मालिक रहे , राय साहब रहे , तैं का करबे ? ननिहाल में सात खून माफ. ताला से मुह धोइये या तल्ली से , न लुकारे से मार की डर न कोई रोकटोक. नानी मनुहार करती - नाति ! किसुनी ( पूरा नाम रहा किसुनी सिंहः ) के यहां से आग मागि लावो त. लाई दे बचवा सफेदकी खांड देब. ' हमारे घर मे गन्ने की खेती नही होती थी , आज भी नही , रवायत है - 'राय खानदान में गन्ने की खेती ? इतने गरीब हो गए हैं ? ' चुनांचे न गुड़ , न खांड , न राब , कुछ नही. पर ननिहाल सब भरा पड़ा. खांड का गगरा गर्मी तक आते आते सूख जाता और खांड मिश्री की डली माफिक चमकने लगती. गगरे में हाथ डाला मुट्ठी भरा और छलांग लगा कर बाहर मामा के बगल. इस मिश्री की डली ने किसुनी की तरफ दौड़ा दिया वरना किसुनी ? नाम से नही बुलाता था - आव राय साहब ! आव !! और चिढ़ाता - अबे दस बार खाब , दस बार. और हमे चिढ़ होती. बोरसी में से आग निकालता और हवाबाजी करता , नानिके आगे आग रख देता.
गजब का जमाना था आग पूरे गांव में घूमती. सांझ का धुंवा बताता कि आग किस घर मे है , किस घर मे चूल्हा नही जल रहा.
क्यों नही जल रहा चूल्हा ?
इसका जवाब ही गांव का दर्शन रहा.
अगला - कब आयी गांव में 'अंगारडीबिया' ?
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