सतीश जायसवाल
मेनोका चाय बागान में, जहां हम ठहरे हुए हैं आज शनिवार को साप्ताहिक बाजार का दिन है. दिन का बाजार रात में लगता है.बागान के मजदूर दिन भर बागान में काम करते हैं.अभी, रात में सामान खरीदने के लिये निकले है. हफ्ते भर के की घरेलू जरूरतों की सामान खरीदी कर लेंगे. यहां जलेबी, भजिया,चाय से लेकर सुखाई हुई मछली, तम्बाकू,हरी सब्जी, मिर्च मसाला और अनाज राशन तक सब कुछ है.दुकानदार आसपास की बस्तियों से सामान लादकर लाये हैं.रात तक अपने घरों को लौट जाएंगे.फिर इतना बड़ा खाली मैदान सूना पड़ जायेगा.और इस पर अंधेरे का कब्ज़ा हो जाएगा.और रात और गहरी हो जाएगी.
वैसे रात अभी उतनी गहरी नहीं है, जितनी लग रही है.अभी मुश्किल से साढ़े 05 से 06. बजे का समय है.बहुत अधिक नहीं हुआ है.अंधेरा पूरे मैदान में यकसाँ फैल चुका है.मैदान में बिजली की रोशनी नहीं है.बिजली के तार इस मैदान तक नहीं पहुंचे हैं.बाजार में ढिबरी और किरासिन लैम्पों की मद्धम रोशनियों में बाजार झिलमिल हो रहा है.लैम्पों-ढिबरियों की मद्धम कमजोर रोशनियां किसी मायालोक का आभास करा रही हैं.
कमजोर रोशनियों वाले बाजार में एक भी आदिवासी की आंखों पर चश्मे की रोशनी नहीं है . दिन में भी किसी मजदूर की आंखों पर चश्मा नहीं दिखा था.यहां मजदूरों का अच्छा संगठित समूह है. प्रायः छत्तीसगढ़, झारखण्ड और बिहार के मजदूर यहां हैं.अधिकांश बिहार, झारखण्ड के हैं.और मैँ इनमें छत्तीसगढ़, खास तौर पर बिलासपुर के मजदूरों को ढूंढ रहा था. 1899, 1900 और 1901 के सूखे में रोजी-रोटी कमाने के ये मजदूर यहां आये थे. कुछ लौटे, कुछ यहीं बस गए. अब यहां, उनकी अच्छी हैसियत है. रास्ते में छोटी छोटी दुकानें हैं.अधिकांश बिहारी मजदूरों के हैं. अधिकांश की यह दूसरी पीढी हैं. जिनके पिता यहां आये थे.
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