भूरीबाई और ‘चित्तरकाज’

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भूरीबाई और ‘चित्तरकाज’

 शंपा शाह

पद्मश्री से विभूषित श्रीमती भूरीबाई के नाम के आगे ‘लिखमा जोखारी’(भील समुदाय इन्हें हर मनुष्य का कर्म लिख देनेवाली देवी मानता है) ने जन्म के समय ही लिख दिया-"चित्तरकाज." लेकिन, भूरीबाई और बाकी सारी दुनिया को इस बात का पता चलने में देर लगी. पहले तो भूरीबाई यही सोचती थीं कि उनके भाग्य में मेहनत, मज़दूरी, सर पर बोझ ढोना ही लिखा है. 

गाँव पिटोल, जिला-झाबुआ के एक हागड़ा (सागौन) के पत्तों से छवाये छप्पर वाले मिटटी के घर में भूरीबाई ने जन्म लिया. किसी को नहीं पता कि ये कौन-सा साल, कौन-सा महीना था? भूरीबाई को जन्म की तारीख, महीना, साल आदि भले न पता चल पाया हो, लेकिन वो इस दुनिया में क्यों आयीं, इस धरती पर उनके होने का मक़सद क्या है - इसे ‘लिखमा जोखारी’ ने बड़े साफ़ हर्फों में लिख दिया था. 

माता-पिता की खेती बहुत कम थी, उससे घर का गुज़ारा नहीं चलता था. जल्दी ही भूरी और उनकी बड़ी बहन झांपड़ी, एक लबाना (जमींदार) के खेत पर निंदाई करने जाने लगीं. दिन भर निंदाई करने पर शाम को एक रूपया मिलता था. लेकिन लबाना के खेतों में हमेशा काम नहीं मिलता था. ज़्यादातर समय दोनों बहनें पीपल के पत्तों का या सूखी, जंगल से इकठ्ठा की गयीं टहनियों का गट्ठर ले दाहोद जातीं और वहां उन्हें दो रुपये किलो के मोल से एक आदमी को बेचतीं.

गाँव से कोई चार किलोमीटर दूरी पर अणास रेलवे स्टेशन से दोनों बहनें सुबह ग्यारह बजे साबरमती एक्सप्रेस पकड़कर दाहोद पहुंचतीं और शाम को फिर दाहोद से यही ट्रेन पकड़कर लौटतीं. ट्रेन का कोई ठिकाना तो था नहीं, कई बार दो तीन घंटे लेट होती और तब दोनों बहनों को घर पहुँचने में रात के नौ-दस बज जाते. दोनों बहनें कड़ी मेहनत करतीं, तब जाकर घर का दानापानी चलता था. बाकी सारे भाई-बहन छोटे थे और पिता के कमाने से घर-भर को रोटी नहीं जुट पाती थी. 

पिता के चचेरे भाई इस बीच भोपाल में जाकर मज़दूरी करने लगे थे. उन्होंने इन लोगों को बताया कि शहर में दिन भर की मज़दूरी के छह रूपये मिलते हैं. दोनों बहनें चाचा के साथ भोपाल आ गईं. दूसरे सारे लोग भोपाल के बड़े तालाब के किनारे झोपड़ियां बनाकर रहते थे. चाचा मुख्यमंत्री निवास के आउटहाउस में रहते थे. भूरीबाई भी वहीँ रहने लगी. भूरी अपनी बहन और गाँव के दूसरे लोगों के साथ मज़दूरी करने लगी -- कभी ‘मानव संग्रहालय’ में, कभी ‘वन विहार’ में, कभी ‘भारत भवन’ में. इन सभी संस्थानों का वह निर्माण काल था और भूरीबाई इन महत्वपूर्ण राष्ट्रीय संस्थानों की 'ग्रासरूट निर्माता !’

इस समय भूरीबाई की उम्र कोई चौदह बरस की रही होगी. काम करते आते-जाते उनकी पहचान जोहरसिंह से हुई. यूँ जोहरसिंह शादीशुदा भी थे और भूरीबाई से उम्र में भी बड़े थे. पर जोहरसिंह का मन भूरीबाई पर इस कदर आया कि वे जब-तब चाचा के आस-पास ही बने रहते. उन्होंने अपने मन की बात भूरीबाई, उनके चाचा आदि से भी कह दी. भूरीबाई तय नहीं कर पा रही थी कि क्या सही है क्या गलत -- शादीशुदा आदमी ऊपर से दाहोद यानी गुजरात, यानी सूखे इलाके का रहनेवाला. किन्तु जोहरसिंह बांके सजीले थे और भूरीबाई को बहुत चाहते भी थे.

तभी भगोरिया मेले का समय (होली) आ गया. वही भगोरिया मेला जहाँ भील युवक युवतियां एक दूसरे को पसंद कर शादी का मन बनाते हैं. भूरीबाई और गाँव के सारे लोग भगोरिया के लिए गाँव गए. जोहरसिंह अपने दोस्तों के साथ मेले में पहुंचे और वहाँ चूड़ी खरीद रही भूरीबाई को साथ चलने के लिए अपनी गाड़ी में बैठने को कहने लगे. भूरी के भाई और बहनोई आदि ने जोहरसिंह को पीटना शुरू कर दिया. भूरीबाई से न रहा गया और वे बोल पड़ीं कि वे अपनी मर्ज़ी से जोहरसिंह के साथ जाने लगी थीं. इस तरह भगोरिया के मेले में भूरीबाई का ब्याह जोहरसिंह से हो गया. जोहरसिंह और उनकी पहली पत्नी भोपाल में पीडब्ल्यूडी में काम करते थे. थोड़ा बहुत झगड़ा तो होना ही था, लेकिन फिर सब साथ में तालाब के किनारे एक झोपडी में रहने लगे.

उन दिनों भूरीबाई अपनी बहन के साथ ‘भारत भवन’ में मज़दूरी कर रही थी. एक दिन बाबा उर्फ़ ‘रूपंकर, भारत भवन’ के निदेशक, श्री जगदीश स्वामीनाथन आये और पूछने लगे कि तुम लोग कौन समाज हो, तुम्हारे यहाँ शादी कैसे होती है, बच्चे के जन्म पर क्या होता है, मुझे चित्र बनाकर दिखाओगी? भूरीबाई और अन्य औरतों को हिंदी नहीं आती थी, चाचा के लड़के ने सारी बात बताई. भूरीबाई की बहन ने भूरी से कहा कि वो घर की दीवार पर जैसे चित्र बनाती थी वैसे ही कुछ बना दे. भूरीबाई बोली मुझे मज़दूरी कौन देगा? बाबा बोले जो चित्र बनाएगा उन्हें छह की जगह दस रूपये मज़दूरी मिलेगी. लेकिन खुश होने के बजाये भूरीबाई और डर गयी कि पता नहीं क्या बात है -- छह की जगह कोई दस रुपये भला क्यों देगा?

स्वामी जी ने कहा घर पे तो दीवार पर चित्र बनाती थीं पर यहाँ मैं कागज़, रंग और ब्रश दूंगा. उससे बिल्डिंग में चलकर टेबल-कुर्सी में बैठकर चित्र बनाओ. भूरीबाई और भी डर गयी. उन्होंने बिल्डिंग के अंदर जाने से साफ़ मना कर दिया. बाबा ने पूछा तब कहाँ बैठकर चित्र बनाओगी? भूरी बोली मंदिर के चबूतरे पर. चुनांचे दस दिनों तक भूरीबाई ने ‘भारत भवन’ के पास बने मंदिर के चबूतरे पर बैठकर चित्र बनाये और हर दिन नगद दस रुपये पाए. लेकिन बावजूद इसके भूरीबाई के अलावा कोई भी और चित्र बनाने के लिए प्रेरित नहीं हुआ. स्वामी जी को उनके चित्र बहुत पसंद आये. वे बोले मुझे अपना घर दिखा दो. बाद में फिर कभी चित्र बनाने बुलाऊंगा. 

स्वामीनाथन जी ने कुछ समय बाद भूरी को फिर से चित्र बनाने के लिए बुलाया. इस बार लाडोबाई, संतुबाई और सादूबाई नामक भील लड़कियों ने भी उनके साथ चित्र बनाये. दस चित्र बनाने के हर एक को पंद्रह सौ रूपये मिले. भूरीबाई को विश्वास न होता कि आराम से बैठकर चित्र बनाने के लिए कोई उन्हें इतने रुपये देगा. समाज के लोग तरह-तरह की बातें करते और भूरी बाई के पति को भड़काने की कोशिश करते, लेकिन जोहरसिंह ने भूरीबाई को चित्र बनाने के लिए कभी कोई रोकटोक नहीं की. 

इस बीच भूरीबाई अपने परिवार के साथ बाणगंगा इलाके में रहने लगी. एक रोज़ पडोसी गुल्लुमियाँ ने जोहरसिंह को बताया कि तुम्हारी पत्नी का फोटो अख़बार में आया है. उन्हें शिखर-सम्मान मिला है. भूरीबाई को बड़ा आश्चर्य हुआ और वे जोहरसिंह से बोलीं -- "ये कैसा सामान है. अपने घर में तो सब सामान है. फिर सरकार ये क्या सामान दे रही है?" 

तब गुल्लुमियां ने बताया-- "यह सामान नहीं आपका मान-सम्मान करने की बात हो रही है." 

शिखर-सम्मान मिलने के बाद भूरीबाई को सभी पहचानने लगे और समाज में भी उनकी इज़्ज़त बढ़ गयी. देश में कई जगहों से चित्र बनाने के लिए बुलावे आने लगे. भूरीबाई के अब तक छह बच्चे हो चुके थे. फिर वे बीमार पड़ीं और कोई चार साल तक खाट में पड़ी रहीं. उन्हें चमड़ी का रोग हो गया था जो किसी दवाई से ठीक होने में नहीं आ रहा था. धीरे-धीरे किसी को उनके बचने की उम्मीद सी न रही. अंततः थक हार कर भूरीबाई ने सारी अंग्रेजी दवाइयां छोड़ कर केवल नारियल का तेल लगाना शुरू किया. तब अचानक भूरीबाई ठीक होने लगीं और अंततः पूरी तरह स्वस्थ हो गयीं. 

बीमारी के दौरान वे ‘आदिवासी लोककला परिषद्’ के निदेशक श्री कपिल तिवारी से मिलीं (भूरी बाई के ही साथ इस वर्ष कपिल तिवारी को भी पद्मश्री से सम्मानित किया गया है.) और अपनी तकलीफ बताई. तिवारी जी ने उनके इलाज के बंदोबस्त के अलावा परिषद् में उन्हें बतौर कलाकार नौकरी भी दी. जिससे भूरीबाई को बड़ा सहारा मिला. 

श्रीमती भूरीबाई को 2009 में ‘राष्ट्रीय अहिल्याबाई होल्कर सम्मान’ और 2010 में ‘राष्ट्रीय दुर्गावती सम्मान’ से नवाज़ा गया. भूरीबाई कहती हैं कि लड़कपन से ही आसमान में हवाईजहाज़ को उड़ता देख उन्हें उसमें बैठने का मन करता था. अंततः उनकी ये इच्छा भी पूरी हो गयी. 

धीरे-धीरे भूरीबाई के काम का सम्मान और उसकी बढ़ती मांग को देख उनके पति ने भी काम में हाथ बँटाने में रूचि दिखाई. भूरीबाई को बेहद ख़ुशी हुई, उन्होंने जोहरसिंह को चित्र बनाना सिखाया और तब वे साथ-साथ चित्र बनाने का काम करने लगे. किन्तु अचानक एक रोज़ जोहरसिंह की तबियत कुछ ख़राब हुई. उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया, पर तबियत न सम्भली और कभी बीमार न पड़नेवाले जोहरसिंह इस लोक से चल बसे. 

भूरीबाई अब अपने बच्चों के साथ रहती हैं. इनमें दो बच्चे पहली पत्नी के हैं. भूरीबाई के साथ में अब उनकी बड़ी बेटी शांताबाई, सबसे छोटा बेटा अनिल बारिया और उसकी पत्नी सविता चित्रकारी के काम में मदद करते हैं. भूरीबाई बताती हैं कि -- यूँ तो सभी अच्छे चित्र बना लेते हैं, पर ये तीन ज़्यादा अच्छा काम करते हैं.  

कोई पचास साल पहले ‘लिखमा जोखारी’ ने भूरीबाई के नाम के आगे 'चित्तरकाज' लिखा था जिसे भूरीबाई दिनों-दिन बढ़ती लगन से करती जा रही हैं. वे कहती हैं कि काम करते हुए वे आज भी स्वर्गीय श्री जगदीश स्वामीनाथन जी के आशीर्वाद को अनुभव करती हैं और उन्हीं से अपने ‘चित्तरकाज’ की प्रेरणा पाती हैं.(सप्रेस)   शंपा शाह मूलतः मूर्तिकार हैं, जो पिछले बीस सालों में मिट्टी के माध्यम से काम कर रही हैं। वे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल के सिरेमिक अनुभाग से संबद्ध रही है। लोक व आदिवासी कला, साहित्यिक पहलुओं पर लिखती रहती हैं। 

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