सतीश जायसवाल
रायपुर .छेरछेरा ओ छेर छेरा, कोठी ले धान हेरते हेरा...पौष पूर्णिमा की बिखरी चांदनी का पर्व छत्तीसगढ़ में छेर छेरा है.इस समय धान कट कर कोठी में पहुंच चुका होता है.बस्ती से बाहर पैरे की खरही देखकर पता चलता है कि फसल अच्छी हुई है.छेर छेरा इसकी खुशी मनाने का पर्व है.नाचने-गाने का.
बच्चे और बड़े टोलियां बनाकर निकलते हैं.घरों के सामने पहुंचकर आवाज़ लगाते हैं -- छेर छेरा ओ छेर छेरा, कोठी ले धान हेरते हेरा.दान छेकने के लिए निकली टोलियों में पुरुष ही होते हैं.स्त्रियां घरों में रहकर उनकी प्रतीक्षा करती हैं.और उनके पहुंचने पर दान में धान देती हैं. यह हमारी ग्रामीण संरचना में सामुदायिकता का सुंदर उदाहरण है.
यह प्रथा कब शुरू हुई ? इसका कोई लिखित विवरण उपलब्ध नहीं.अलग-अलग अनुमान हैँ.एक अनुमान इस प्रथा को केरल के ओणम से भी जोड़ता है.राजा बलि की दान-वीरता से,जिसने दान में अपना सर्वस्व दे दिया था.लेकिन इस अवसर पर होने वाला "डंडा नृत्य" एक अलग दिशा दिखाता है.और इस पर्व को गुजरात के डांडिया नृत्य से जोड़कर कृष्ण भक्ति परम्परा तक पहुंचाता है.वृंदावन की रासलीला तक.
वस्तुतः छत्तीसगढ़ के प्रायः पर्व और प्रथा परंपराओं के तार किन्हीं ना किन्हीं पुराण कथाओं तक खींचकर जोड़े जा सकते हैं.
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