जंगल बोलता है ,सुना है कभी

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जंगल बोलता है ,सुना है कभी

अंबरीश कुमार 

जंगल बोलता है .कभी जंगल में हो तो सुबह शाम आप भी सुन सकते हैं .सौ साल से भी ज्यादा पुराने दरख्तों के बीच से निकलती पगडंडी जो अब कच्ची सड़क में बदल गई थी उसपर चलते हुए हमने भी जंगल को सुना .निशानगाड़ा पहुंचे तो यह ठीक से सुनाई पड़ा .ऐसा शिकारगाह जिसके चारो और जंगल .ठीक सामने एक बरगद का पुराना पेड़ .दरअसल यह दो मंजिला डाक बंगला था जिसमें नीचे ठीक बगल में रसोई घर था  जिसका रसोइया शाम होते ही सहमा-सहमा नजर आया . घर बगल में ही है जहां एक-दो कर्मचारी और रहते हैं. पर उसके डर की वजह थी बाघ के शैतान बच्चे. पता नहीं उसका भ्रम है या हकीकत. पर बाघ के इन बच्चों के आधी रात को दरवाजा थपथपाने से भयभीत रहता है.कतर्निया घाट वन्य जीव अभ्यारण के रेंजर ने बताया कि बाघ शाम से ही इस क्षेत्र में विचरण करने लगते हैं. अंग्रेजों के बनाए निशानगाढ़ा गेस्टहाउस का नज़ारा उस जमाने के नवाबों राजाओं के शिकारगाह से मिलता-जुलता है. जिसके चारों ओर घने जंगल हैं और जानवरों और पक्षियों की अजीबो-गरीब आवाज सन्नाटें को तोड़ती रहती है. नीचे का बरामदा लोहे की ग्रिल से पूरी तरह बंद नजर आता है.

 पूछने पर पता चला कि यह बड़े जानवरों से हिफ़ाजत का इंतजम है. शाम के बाद गेस्टहाउस के आसपास निकलना भी जोखिम भरा माना जता है. जंगलात विभाग के रेंजर हमें रात में जंगल का एक दौरा वन्य जीव अभ्यारण्य का कराने के लिए कह रहे थे. पर दिन भर नेपाल की गेरुआ नदी और कतर्निया  घाट के जंगलों में घूम-घूम कर हम थके हुए थे इसलिए उनका अनुरोध निम्रता से ठुकरा दिया. दरअसल हमें रुकना कतर्निया घाट के गेस्टहाउस में था पर उस गेस्टहाउस को देख बेटे अंबर ने कहा, यहां की टूटी खिड़कियों से तो कोई भी जानवर भीतर आ सकता है. और आसपास बाघों से लेकर अजगरों तक का इलाका है. बात सही थी. जिसके बाद हमने डीएफओ रमेश पांडेय को सूचित किया. जिसके बाद हमें दूसरे  गेस्टहाउस निशानगाड़ा में ठहराने की कवायद शुरू हुई. खास बात यह है कि  कतर्निया घाट तक पहुंचते-पहुंचते सभी तरह के मोबाइल बंद हो जते हैं.  भोजन आदि की व्यस्था की भी दिक्कत तो थी ही . कुछ देर हम यह सब सुनते रहे .अंधेरा होने लगा था .मौसम खुशनुमा हो चला था .थोड़ी देर में जेनरेटर चलाया जाने वाला था .रात नौ बजे तक यह चलता पर कुछ छूट मिल जाती तो दस बजे तक भी चला देता .

क्योंकि  घने जंगलों में अत्याधुनिक संचार कंपनियों के कोई भी टावर तक नहीं हैं. आसपास कई किलोमीटर तक टेलीफोन विभाग की लाइनें भी नहीं हैं. जंगल का प्रशासन यहां वायरलेस से चलता है और किसी अतिथि के आने पर उसके आने-जाने  रुकने के साथ भोजन नाश्ते की मीनू की व्यस्था भी अग्रिम होती है. यहां दूर दूर तक कोई बाजार नहीं है. सभी बंदोबस्त पहले से करना पड़ता है. बहरहाल गेस्ट हाउस बदलने में हमें दिक्कत नहीं आई और हमें बताया गया कि निशानगाड़ा  गेस्टहाउस में कमरा हो गया है. रात के भोजन और नाश्ते की व्यस्था भी जंगलात विभाग ने  कतर्निया घाट में ही की थी. पर जब हमने सुरक्षा की दृष्टि से निशानगाढ़ा जने की जिद्द की थी तो उन्होंने रास्ता बता दिया. अंधेरा घिर रहा था और हम जल्द से जल्द निशानगाड़ा पहुंचना चाहते थे. 

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